Bhagavat gita chapter 7

 

 

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अध्याय सात: ज्ञान विज्ञान योग

दिव्य ज्ञान की अनुभूति द्वारा प्राप्त योग

 

13-19 आसुरी स्वभाव वालों की निंदा और भगवद्भक्तों की प्रशंसा

 

 

Srimad Bhagavad Gita chapter 7चतुर्विधा भजन्ते मां जनाः सुकृतिनोऽर्जुन ।

आर्तो जिज्ञासरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ ॥7.16॥

 

चतुः विधाः-चार प्रकार के; भजन्ते-सेवा करते हैं; माम् – मेरी; जनाः-व्यक्ति; सुकृतिनः-वे जो पुण्यात्मा हैं; अर्जुन-अर्जुन; आर्त:-पीड़ित; जिज्ञासुः-ज्ञान अर्जन करने के अभिलाषी; अर्थ अर्थी-लाभ की इच्छा रखने वाले; ज्ञानी-वे जो ज्ञान में स्थित रहते हैं; च-भी; भरत ऋषभ-भरतश्रेष्ठ, अर्जुन।।

 

हे भरतश्रेष्ठ! चार प्रकार के पवित्र लोग मेरी भक्ति में लीन रहते हैं:

*आर्त अर्थात (संकट निवारण के लिए भजने वाले दुःखी और पीड़ित जन ), 

*जिज्ञासा रखने वाले जिज्ञासु ( अर्थात मेरे वास्तविक और यथार्थ स्वरूप को तत्त्व से जानने की इच्छा से भजने वाले ),

*उत्तम कर्म करने वाले अर्थार्थी (सांसारिक पदार्थों धन इत्यादि के लिए भजने वाले या संसार के स्वामित्व की अभिलाषा रखने वाले)

*परम ज्ञान में स्थित ज्ञानी अर्थात परमात्म तत्त्व या विष्णु तत्व को जानने वाले ॥16॥

 

(‘चतुर्विधा भजन्ते मां जनाः सुकृतिनोऽर्जुन’ सुकृती पवित्रात्मा मनुष्य अर्थात् भगवत्सम्बन्धी काम करने वाले मनुष्य चार प्रकार के होते हैं। ये चारों मनुष्य मेरा भजन करते हैं अर्थात् स्वयं मेरे शरण होते हैं। पूर्वश्लोक में ‘दुष्कृतिनः’ पद से भगवान् में न लगने वाले मनुष्यों की बात आयी थी। अब यहाँ ‘सुकृतिनः’ पद से भगवान् में लगने वाले मनुष्यों की बात कहते हैं। ये सुकृती मनुष्य शास्त्रीय सकाम पुण्यकर्म करने वाले नहीं हैं बल्कि भगवान् से अपना सम्बन्ध जोड़कर भगवत्सम्बन्धी कर्म करने वाले हैं। सुकृती मनुष्य दो प्रकार के होते हैं । एक तो यज्ञ , दान ,तप आदि और वर्णआश्रम के शास्त्रीय कर्म भगवान् के लिये करते हैं अथवा उनको भगवान् के अर्पण करते हैं और दूसरे भगवन्नाम का जप तथा कीर्तन करना भगवान की लीला सुनना तथा कहना आदि केवल भगवत्सम्बन्धी कर्म करते हैं। जिनकी भगवान में रुचि हो गयी है , वे ही भाग्यशाली हैं , वे ही श्रेष्ठ हैं और वे ही मनुष्य कहलाने योग्य हैं। वह रुचि चाहे किसी पूर्व पुण्य से हो गयी हो , चाहे आफत के समय दूसरों का सहारा छूट जाने से हो गयी हो , चाहे किसी विश्वसनीय मनुष्य के द्वारा समय पर धोखा देने से हो गयी हो , चाहे सत्सङ्ग,  स्वाध्याय अथवा विचार आदि से हो गयी हो , किसी भी कारण से भगवान में रुचि होने से वे सभी सुकृती मनुष्य हैं। जब भगवान् की तरफ रुचि हो जाय वही पवित्र दिन है , वही निर्मल समय है और वही सम्पत्ति है। जब भगवान की तरफ रुचि नहीं होती वही काला दिन है , वही विपत्ति है – ‘कह हनुमंत बिपति प्रभु सोई। जब तव सुमिरन भजन न होई।।’ (मानस 5। 32। 2)भगवान् ने कृपा करके भगवत्प्राप्तिरूप जिस उद्देश्य को लेकर जिन्हें मानवशरीर दिया है वे ‘जनाः’ (जन) कहलाते हैं। भगवान का संकल्प मनुष्यमात्र के उद्धार के लिये बना है । अतः मनुष्यमात्र भगवान की प्राप्ति का अधिकारी है। तात्पर्य है कि उस संकल्प में भगवान ने मनुष्य को अपने उद्धार की स्वतन्त्रता दी है जो कि अन्य प्राणियों को नहीं मिलती क्योंकि वे भोग योनियाँ हैं और यह मानवशरीर कर्मयोनि है। वास्तव में केवल भगवत्प्राप्ति के लिये ही होने के कारण मानवशरीर को साधनयोनि ही मानना चाहिये। इसलिये इस स्वतन्त्रता का सदुपयोग करके मनुष्य शास्त्रनिषिद्ध कर्मों को छोड़कर अगर भगवत्प्राप्ति के लिये ही लग जाय तो उसको भगवत्कृपा से अनायास ही भगवत्प्राप्ति हो सकती है। परन्तु जो मिली हुई स्वतन्त्रता का दुरुपयोग करके विपरीत मार्ग पर चलते हैं वे नरकों और चौरासी लाख योनियों में जाते हैं। इस तरह सबके उद्धार के भाव को लेकर भगवान् ने कृपा कर के जो मानवशरीर दिया है उस शरीर को पाकर भगवान का भजन करने वाले सुकृती मनुष्य ही ‘जनाः’ अर्थात् मनुष्य कहलाने योग्य हैं। ‘आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ ‘ अर्थार्थी ,आर्त , जिज्ञासु और ज्ञानी अर्थात् प्रेमी ये चार प्रकार के भक्त भगवान् का भजन करते हैं अर्थात् भगवान के शरण होते हैं। (1) अर्थार्थी भक्त जिनको अपनी न्याययुक्त सुखसुविधा की इच्छा हो जाती है अर्थात् धन-सम्पत्ति , वैभव आदि की इच्छा हो जाती है परन्तु उसको वे केवल भगवान से ही चाहते हैं दूसरों से नहीं , ऐसे भक्त अर्थार्थी भक्त कहलाते हैं। चार प्रकार के भक्तों में अर्थार्थी आरम्भिक भक्त होता है। पूर्वसंस्कारों से उसकी धन की इच्छा रहती है और वह धन के लिये चेष्टा भी करता है पर वह समझता है कि भगवान के समान धन की इच्छा पूरी करने वाला दूसरा कोई नहीं है। ऐसा समझकर वह धनप्राप्ति के लिये तत्परतापूर्वक भगवन्नाम का जप-कीर्तन , भगवत्स्वरूप का ध्यान आदि करता है। धन प्राप्त करने के लिये उसका भगवान पर ही विश्वास , निष्ठा होती है। जिसको धन की इच्छा तो है पर उसकी प्राप्ति के लिये वह सांसारिक उपायों का सहारा लेता है और कभी धन के लिये भगवान को भी याद कर लेता है । वह केवल अर्थार्थी अर्थात् अर्थ का भक्त है , भगवान का भक्त नहीं है। कारण कि उसमें धन की इच्छा ही मुख्य है परन्तु जिसमें भगवान के सम्बन्ध की मुख्यता है , वह क्रमशः भगवान की तरफ ही बढ़ता चला जाता है। भगवान में लगे रहने से उसकी धन की इच्छा बहुत कम हो जाती है और समय पाकर मिट भी जाती है। यही भगवान का अर्थार्थी भक्त है। इसमें मुख्यता ध्रुवजी का नाम लिया जाता है। एक दिन बालक ध्रुव के मन में राजा की गोद में बैठने की इच्छा हुई पर छोटी माँ ने बैठने नहीं दिया। उसने ध्रुव से कहा कि तूने भजन नहीं किया है । तू अभागा है और अभागिन के यहाँ ही तूने जन्म लिया है । अतः तू राजा की गोद में बैठने का अधिकारी नहीं है। ध्रुव ने छोटी माँ की कही हुई सब बात अपनी माँ से कह दी। माँ ने कहा कि बेटा तेरी छोटी माँ ने ठीक ही कहा है क्योंकि भजन न तूने किया और न मैंने ही किया। इस पर ध्रुव ने माँ से कहा कि माँ अब तो मैं भजन करूँगा। ऐसा कहकर वे भगवद्भजन करने के लिये घर से निकल पड़े और माँ ने भी बड़ी हिम्मत करके ध्रुव को जंगल में जाने के लिये आज्ञा दे दी। रास्ते में जाते हुए नारदजी महाराज मिल गये। नारदजी ने ध्रुव से कहा कि अरे भोले बालक तू अकेला कहाँ जा रहा है । यों भगवान जल्दी थोड़े ही मिलते हैं । तू जंगल में कहाँ रहेगा ? वहाँ बड़े-बड़े जंगली जानवर हैं। वे तेरे को खा जायँगे। वहाँ तेरी माँ थोड़े ही बैठी है । तू मेरे साथ चल। राजा मेरी बात मानते हैं। मैं तेरा और तेरी माँ का प्रबन्ध करवा दूँगा। नारदजी की बातों को सुन कर ध्रुव की भगवद्भजन में और दृढ़ता हो गयी कि देखो भगवान की तरफ चलने से नारदजी भी इतनी बात कहते हैं। अब ये मेरे को घर चलने के लिये कहते हैं पर पहले ये कहाँ गये थे ? ध्रुव ने नारदजी से कहा कि महाराज मैं तो अब भगवान का  भजन ही करूँगा। ध्रुवजी का ऐसा दृढ़ निश्चय देखकर नारदजी ने उनको द्वादशाक्षर मन्त्र ( ॐ नमो भगवते वासुदेवाय) दिया और चतुर्भुज भगवान् विष्णु का ध्यान बताकर मधुवन में जाकर भजन करने की आज्ञा दी। ध्रुवजी ने मधुवन में जाकर ऐसी निष्ठा से भजन किया कि उनकी निष्ठा को देखकर छः महीने की अवधि के भीतर ही भीतर भगवान् ध्रुव के सामने प्रकट हो गये। भगवान ने ध्रुवजी को राजगद्दी का वरदान दिया पर इस वरदान से ध्रुवजी विशेष राजी नहीं हुए। भजन से अन्तःकरण शुद्ध होने के कारण उनको धन (राज्य) के लिये भगवान की तरफ चलने में बड़ी लज्जा हुई कि मैंने बड़ी गलती की । तात्पर्य यह हुआ कि ध्रुवजी को तो पहले राजा की गोद में बैठने की इच्छा हुई पर उन्होंने उस इच्छा की पूर्ति का मुख्य उपाय भगवान का भजन ही माना। भजन करने से उनको राज्य मिल गया और इच्छा मिट गयी। इस तरह अर्थार्थी भक्त केवल भगवान की तरफ ही लगता है। आजकल जो धनप्राप्ति के लिये झूठ , कपट , बेईमानी आदि करते हैं , वे भी धन के लिये समय-समय पर भगवान को पुकारते हैं। वे अर्थार्थी तो हैं पर भगवान के भक्त नहीं हैं। वे तो झूठ , कपट , बेईमानी आदि के भक्त हैं क्योंकि उनका पाप के बिना झूठ-कपट के बिना काम नहीं चलता । इस तरह झूठ-कपट आदि पर जितना विश्वास है उतना विश्वास भगवान पर नहीं है। जो केवल भगवान के ही परायण हैं और जो भगवान के साथ अपनापन करके भगवान का ही भजन करते हैं परन्तु कभी-कभी पूर्वसंस्कारों से अथवा किसी कारण से जिनमें अपने शरीर आदि के लिये अनुकूल परिस्थिति की इच्छा हो जाती है , वे भी अर्थार्थी भक्त कहलाते हैं। उनकी अनुकूलता की इच्छा ही अर्थार्थीपन है। (2) आर्त भक्त – प्राणसंकट आने पर , आफत आने पर , मन के प्रतिकूल घटना घटने पर जो दुःखी होकर अपना दुःख दूर करने के लिये भगवान को पुकारते हैं और दुःख को दूर करना केवल भगवान से ही चाहते हैं , दूसरे किसी उपाय को काम में नहीं लेते वे आर्त भक्त कहलाते हैं। आर्त भक्तों में उत्तर का दृष्टान्त लेना ठीक बैठता है (टिप्पणी प0 417.1)। कारण कि जब उस पर आफत आयी तब उसने भगवान के  सिवाय अन्य किसी उपाय का सहारा नहीं लिया। अन्य उपायों की तरफ उसकी दृष्टि ही नहीं गयी। उसने केवल भगवान का ही सहारा लिया (टिप्पणी प0 417.2)। तात्पर्य यह हुआ कि सकामभाव रहने पर भी आर्त भक्त उसकी पूर्ति केवल भगवान से ही चाहते हैं। जो भगवान के साथ अपनापन करके भगवान के परायण हैं और अनुकूलता की वैसी इच्छा नहीं करते पर प्रतिकूल परिस्थिति आने पर इच्छा हो जाती है कि भगवान ने ऐसा क्यों किया , यह प्रतिकूलता मिट जाय तो बहुत अच्छा है। इस प्रकार प्रतिकूलता मिटाने का भाव पैदा होने से , वे भी आर्त भक्त कहलाते हैं।(3) जिज्ञासु भक्त – जिसमें अपने स्वरूप को भगवत्तत्त्व को जानने की जोरदार इच्छा जाग्रत् हो जाती है कि वास्तव में मेरा स्वरूप क्या है ? भगवत्तत्त्व क्या है ? इस प्रकार तत्त्व को जानने के लिये शास्त्र , गुरु अथवा पुरुषार्थ (श्रवण , मनन , निदिध्यासन आदि उपायों ) का भी आश्रय न रखते हुए केवल भगवान के आश्रित होकर उस तत्त्व को केवल भगवान से ही जो जानना चाहते हैं , वे जिज्ञासु भक्त कहलाते हैं। जिज्ञासु भक्त वही होता है जिसका जिज्ञास्य केवल भगवत्तत्त्व और उपाय केवल भगवद्भक्ति ही होती है अर्थात् उपेय और उपाय में अनन्यता होती है। जिज्ञासु भक्तों में उद्धवजी का नाम लिया जाता है। भगवान ने उद्धवजी को दिव्यज्ञान का उपदेश दिया था जो उद्धवगीता (श्रीमद्भागवत 11। 7 30) के नाम से प्रसिद्ध है। जो भगवान में अपनापन करके भगवान के भजन में ही तल्लीन रहते हैं परन्तु कभी-कभी सङ्ग से संस्कारों से मन में यह भाव पैदा हो जाता है कि वास्तव में मेरा स्वरूप क्या है ? भगवत्तत्त्व क्या है ? वे भी जिज्ञासु कहलाते हैं। (4) ज्ञानी (प्रेमी ) भक्त अर्थार्थी , आर्त और जिज्ञासु तीनों भक्तों से ज्ञानी भक्त की विलक्षणता बताने के लिये यहाँ ‘च’ अव्यय आया है। ज्ञानी भक्त को अनुकूल से अनुकूल और प्रतिकूल से प्रतिकूल परिस्थिति , घटना , व्यक्ति , वस्तु आदि सब भगवत्स्वरूप ही दिखते हैं अर्थात् उसको अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति केवल भगवद लीला ही दिखती है। जैसे भगवान में अपने लिये अनुकूलता प्राप्त करने , प्रतिकूलता हटाने , बोध प्राप्त करने आदि किसी तरह की कभी किञ्चिन्मात्र भी इच्छा होती ही नहीं , वे तो केवल भक्तों के प्रेम में ही मस्त रहते हैं । ऐसे ही ज्ञानी (प्रेमी) भक्तों में किञ्चिन्मात्र भी कोई इच्छा नहीं होती । वे केवल भगवान के प्रेम में ही मस्त रहते हैं। ज्ञानी अर्थात् प्रेमी भक्तों में गोपिकाओं का नाम प्रसिद्ध है। देवर्षि नारदजी ने भी ‘यथा व्रजगोपिकानाम्’ (भक्तिसूत्र 21) कहकर गोपियों को प्रेमी भक्तों का आदर्श माना है। कारण कि गोपियों में अपने सुख का सर्वथा त्याग था। प्रियतम भगवान का सुख ही उनका सुख था। यहाँ एक बात समझने की है कि धन की इच्छा , दुःख दूर करने की इच्छा और जिज्ञासापूर्ति की इच्छा को लेकर जो भगवान की तरफ लगते हैं , उनमें तो भगवान का प्रेम जाग्रत् हो जाता है और वे भक्त कहलाते हैं। परन्तु जिनकी यह भावना रहती है कि अन्य उपायों से धन मिल सकता है , दुःख दूर हो सकता है , जिज्ञासापूर्ति हो सकती है ,उनका भगवान के साथ सम्बन्ध न होने से , उनमें प्रेम जाग्रत् नहीं होता और उनकी भक्त संज्ञा नहीं होती। संतों की वाणी में आता है कि प्रेम तो केवल भगवान ही करते हैं , भक्त केवल भगवान में अपनापन करता है। कारण कि प्रेम वही करता है जिसे कभी किसी से कुछ भी लेना नहीं है। भगवान ने जीवमात्र के प्रति अपने आपको सर्वथा अर्पित कर रखा है और जीव से कभी कुछ भी प्राप्त करने की इच्छा की कोई सम्भावना ही नहीं रखी है। इसलिये भगवान ही वास्तव में प्रेम करते हैं। जीव को भगवान की आवश्यकता है इसलिये जीव भगवान से अपनापन ही करता है। जब अपने आपको सर्वथा भगवान के अर्पित करने पर भक्त में कभी कुछ भी पाने की कोई अभिलाषा नहीं रहती तब वह ज्ञानी अर्थात् प्रेमी भक्त कहा जाता है। अपने आपको सर्वथा भगवान के अर्पित कर देने से उस भक्त की सत्ता भगवान से  किञ्चिन्मात्र भी अलग नहीं रहती बल्कि उसकी जगह केवल भगवान की सत्ता ही रह जाती है। विशेष बात (1)चार लड़के खेल रहे थे। इतने में उनके पिताजी चार आम लेकर आये। उनको देखते ही एक लड़का आम माँगने लग गया और एक लड़का आम लेने के लिये रो पड़ा। पिताजी ने उन दोनों को एक-एक आम दे दिया। तीसरा लड़का न तो रोता है और न माँगता है , केवल आम की तरफ देखता है और चौथा लड़का आम की तरफ न देखकर जैसे पहले खेल रहा था वैसे ही मस्ती से खेल रहा है। उन दोनों को भी पिताजी ने एक-एक आम दे दिया। इस प्रकार चारों ही लड़कों को आम मिलता है। यहाँ आम माँगने वाला लड़का अर्थार्थी है , रोने वाला लड़का आर्त है , केवल आम की तरफ देखने वाला जिज्ञासु है और आम की परवाह न करके खेल में लगे रहने वाला लड़का ज्ञानी है। ऐसे ही अर्थार्थी भक्त भगवान से अनुकूलता माँगता है , आर्त भक्त भगवान से प्रतिकूलता दूर कराना चाहता है , जिज्ञासु भक्त भगवान को जानना चाहता है और ज्ञानी अर्थात् प्रेमी भक्त भगवान से कुछ भी नहीं चाहता। अर्थार्थी , आर्त , जिज्ञासु और ज्ञानी ये चारों ही भक्त भगवन्निष्ठ हैं। अतः इनको योगभ्रष्ट पुरुषों (गीता 6। 41 42) में नहीं लिया जा सकता। ऐसे ही अर्थार्थी और आर्त ये दोनों सकाम पुरुषों से अलग हैं क्योंकि इन दोनों भक्तों में भगवान का आश्रय मुख्य है। सकाम पुरुष कामनापूर्ति में ही लगे रहने के कारण ‘हृतज्ञानाः ‘ हैं (गीता 7। 20) इसलिये उनको आसुरी सम्पत्ति वाले पुरुषों में लिया गया है। यद्यपि अर्थार्थी आदि भक्तों में जो कुछ न्यूनाधिकता है वह कामना के कारण ही है परन्तु कामना होते हुए भी वे ‘हृतज्ञानाः’ नहीं हैं। उनको तो भगवान ने ‘सुकृतिनः’ और ‘उदाराः’ (7। 18) कहा है। जो भगवान के शरण होते हैं उनमें सकामभाव भी हो सकता है परन्तु उनमें मुख्यता भगवन्निष्ठ होने की ही होती है। इसलिये उनकी भगवान के साथ जितनी-जितनी घनिष्ठता होती जाती है उतना-उतना ही उनमें सकामभाव मिटता जाता है और विलक्षणता आती जाती है। इसलिये उनको भगवान ने ‘उदाराः’ कहा है और ज्ञानी भक्त को अपना स्वरूप बताया है ‘ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम्’ (7। 18)।(2)भगवान के साथ अपनापन मानने के समान दूसरा कोई साधन नहीं है , कोई योग्यता नहीं है , कोई बल नहीं है , कोई अधिकारिता नहीं है। भगवान का  प्राणिमात्र पर अपनापन सदा से है और सदा ही रहेगा। उस अपनेपन को केवल प्राणी ही भूला है और उसने भूल से संसार के साथ अपनापन मान लिया है। अतः इस भूल से किये हुए अपनेपन को हटाना है और प्रभु के साथ जो स्वतःसिद्ध अपनापन है उसको मानना है। प्रभु को अपना मानने में मन , बुद्धि आदि किसी की सहायता नहीं लेनी पड़ती । जबकि दूसरे साधनों में मन , बुद्धि आदि की सहायता लेनी पड़ती है। भगवान के साथ अपनापन होने पर अर्थात् मैं केवल भगवान का ही हूँ और केवल भगवान ही मेरे हैं , ऐसा दृढ़ता से मान लेने पर साधक भक्त को अपने कहलाने वाले अन्तःकरण में भावों की , गुणों की कमी भी सकती है पर भगवान के साथ अपनापन होने से वह टिकेगी नहीं। दूसरी बात साधक भक्त में कुछ गुणों की कमी रहने पर भी भगवान की दृष्टि केवल अपनेपन पर ही जाती है , गुणों की कमी पर नहीं। कारण कि भगवान के साथ हमारा जो अपनापन है , वह वास्तविक है। भगवान का अपनापन तो दुष्ट से दुष्ट मनुष्य पर भी वैसा ही है। इसलिये 16वें अध्याय में आसुरी प्रकृति वालों का वर्णन करते हुए भगवान कहते हैं कि क्रूर , द्वेष करने वाले नराधम दुष्टों को मैं आसुरी योनियों में गिराता हूँ। इस प्रकार भगवान् उनको आसुरी योनियों में गिराकर शुद्ध करते हैं। जैसे माता अपने बच्चे को स्नान कराती है तो उसकी सम्मति नहीं लेती । ऐसे ही उनको शुद्ध करने के लिये भगवान् उनकी सम्मति नहीं लेते क्योंकि भगवान का उन पर अपनापन है। भगवान के साथ अपनापन का सम्बन्ध पहले से ही है। फिर भी कोई कामना उत्पन्न हो जाती है तो भक्त का भगवान के साथ अपनेपन का सम्बन्ध मुख्य होता है और कामना गौण होती है। इस दृष्टि से ये भक्त पहली श्रेणी के हैं। भगवान सम्बन्ध तो पहले से ही है पर समय-समय पर कामना उत्पन्न हो जाती है जिसकी पूर्ति दूसरों से चाहते हैं। जब दूसरों से कामना की पूर्ति नहीं होती तब अन्त में भगवान से चाहते हैं। इस तरह अनन्यता की कमी होने के कारण ये भक्त दूसरी श्रेणी के हैं। जहाँ केवल कामनापूर्ति के लिये ही भगवान के साथ अपनेपन का सम्बन्ध किया जाय , वहाँ कामना मुख्य होती है और भगवान का सम्बन्ध गौण होता है। इस दृष्टि से ये भक्त तीसरी श्रेणी के हैं।मार्मिक बात – कामना दो तरह की होती है पारमार्थिक और लौकिक।(1) पारमार्थिक कामना – पारमार्थिक कामना दो तरह की होती है : मुक्ति (कल्याण) की और भक्ति (भगवत्प्रेम ) की। जो मुक्ति की कामना है उसमें तत्त्व को जानने की इच्छा होती है जिसे जिज्ञासा कहते हैं। यह जिज्ञासा जिस में होती है वह जिज्ञासु होता है। गहरा विचार किया जाय तो जिज्ञासा कामना नहीं है क्योंकि वह अपने स्वरूप को अर्थात् तत्त्व को जानना चाहता है , जो वास्तव में उसकी आवश्यकता है। आवश्यकता उसको कहते हैं , जो जरूर पूरी होती है और पूरी होने पर फिर दूसरी आवश्यकता पैदा नहीं होती (टिप्पणी प0 419.1)। यह आवश्यकता सत् विषय की होती है। दूसरी कामना प्रभु-प्रेम-प्राप्तिकी होती है। उसको प्राप्ति तो कहते हैं पर वास्तव में वह प्राप्ति अपने लिये नहीं होती बल्कि प्रभु के लिये ही होती है। उसमें अपना किञ्चिन्मात्र प्रयोजन नहीं रहता । प्रभु के समर्पित होने का ही प्रयोजन रहता है। प्रेमी तो अपने आपको प्रभु के समर्पित कर देता है जो कि उसी का अंश है (टिप्पणी प0 419.2)। उपर्युक्त दोनों ही पारमार्थिक कामनाएँ वास्तव में कामना नहीं हैं।(2) लौकिक कामना – लौकिक कामना भी दो तरह की होती है : सुख प्राप्त करने की और दुःख दूर करने की। शरीर को आराम मिले , जीतेजी मेरा आदर-सत्कार होता रहे और मरने के बाद मेरा नाम अमर हो जाय , मेरा स्मारक बन जाय , कोई ग्रन्थ बना दे जिसको लोग देखते रहें , पढ़ते रहें और यह जान जायँ कि ऐसा कोई विलक्षण पुरुष हुआ है , मरने के बाद स्वर्ग आदि में भोग भोगते रहें आदि-आदि लौकिक सुखप्राप्तिकी कामनाएँ होती हैं। ऐसी कामनाओं से तो वासना ही बढ़ती है , जिससे बन्धन और पतन ही होता है , उद्धार नहीं होता। यह कामना आसुरी सम्पत्ति है इसलिये यह त्याज्य है। दूसरी कामना दुःख दूर करने की है। दुःख तीन प्रकार के हैं : आधिदैविक , आधिभौतिक और आध्यात्मिक। अतिवृष्टि , अनावृष्टि , सरदी-गरमी वायु आदि से जो दुःख होता है उसको आधिदैविक कहते हैं। यह दुःख देवताओं के अधिकार से होता है। सिंह , साँप , चोर आदि प्राणियों से जो दुःख होता है उसको आधिभौतिक कहते हैं। शरीर और अन्तःकरण को लेकर जो दुःख होता है वह आध्यात्मिक होता है (टिप्पणी प0 420.1)। इन दुःखों को दूर करने की और सुख प्राप्त करने की जो कामना होती है वह सर्वथा निरर्थक है क्योंकि उस कामना की पूर्ति नहीं होती। पूर्ति हो भी जाती है तो दूसरी नयी कामना पैदा हो जाती है और अन्त में अपूर्ति ही बाकी रहती है। इसलिये इन दोनों कामनाओं की पूर्ति किसी भी मनुष्य की कभी भी नहीं हुई न होती है और न भविष्य में ही पूरी होने वाली है। पूर्वश्लोक में वर्णित चारों भक्तों में से ज्ञानी भक्त की विशेषता का विशद वर्णन आगे के श्लोक में करते हैं – स्वामी रामसुखदास जी )

 

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