अध्याय सात: ज्ञान विज्ञान योग
दिव्य ज्ञान की अनुभूति द्वारा प्राप्त योग
08-12 संपूर्ण पदार्थों में कारण रूप से भगवान की व्यापकता का कथन
ये चैव सात्त्विका भावा राजसास्तामसाश्च ये ।
मत्त एवेति तान्विद्धि न त्वहं तेषु ते मयि ॥7.12॥
ये-जो भी; च-तथा; एव–निश्चय ही; सात्त्विका:-सत्वगुण, अच्छाई का गुण; भावाः-भौतिक अस्तित्त्व की अवस्था; राजसा:-रजो गुण, आसक्ति का गुणः तामसा:-तमो गुण, अज्ञानता का गुण; च-भी; ये-जो; मत्तः-मुझसे; एव-निश्चय ही; इति–इस प्रकार; तान्-उनको; विद्धि-जानो; न-नहीं; तु-लेकिन; अहम्–मैं; तेषु-उनमें; ते-वे; मयि–मुझमें।
तीन प्रकार के प्राकृतिक गुण-सतोगुण, रजोगुण और तमोगुण मेरी शक्ति से ही प्रकट होते हैं तथा जो सत्त्व गुण , रजो गुण और तमो गुण से उत्पन्न होने वाले भाव हैं उन सबको तू मुझसे ही उत्पन्न हुआ जान। ये सब मुझमें हैं लेकिन मैं इनसे परे हूँ। यद्यपि वे मुझसे उत्पन्न होते हैं तथापि मैं उनमें नहीं हूँ अर्थात् संसारी मनुष्यों की भाँति मैं उनके वशमें नहीं हूँ परंतु वे मुझमें हैं यानी मेरे वशमें हैं, मेरे अधीन हैं॥7.12॥
(‘ये चैव सात्त्विका भावा राजसास्तामसाश्च ये ये ‘ जो सात्त्विक , राजस और तामस भाव (गुण , पदार्थ , क्रिया ) हैं । वे भी मेरे से ही उत्पन्न होते हैं। इसका तात्पर्य यह हुआ कि सृष्टिमात्र में जो कुछ हो रहा है । मूल में सबका आश्रय ,आधार और प्रकाशक भगवान् ही हैं अर्थात् सब भगवान से ही सत्तास्फूर्ति पाते हैं। सात्त्विक , राजस और तामस भाव भगवान से ही होते हैं । इसलिये इनमें जो कुछ विलक्षणता दिखती है , वह सब भगवान की ही है । अतः मनुष्य की दृष्टि भगवान की तरफ ही जानी चाहिये , सात्त्विक आदि भावों की तरफ नहीं। यदि उसकी दृष्टि भगवान की तरफ जायगी तो वह मुक्त हो जायगा और यदि उसकी दृष्टि सात्त्विक आदि भावों की तरफ जायगी तो वह बँध जायगा। सात्त्विक , राजस और तामस इन भावों के (गुण , पदार्थ और क्रियामात्र के) अतिरिक्त कोई भाव है ही नहीं। ये सभी भगवत्स्वरूप ही हैं। यहाँ शङ्का होती है कि अगर ये सभी भगवत्स्वरूप ही हैं , तो हम लोग जो कुछ करें , वह सब भगवत्स्वरूप ही होगा । फिर ऐसा करना चाहिये और ऐसा नहीं करना चाहिये , यह विधिनिषेध कहाँ रहा ? इसका समाधान यह है कि मनुष्यमात्र सुख चाहता है, दुःख नहीं चाहता। अनुकूल परिस्थिति विहित-कर्मों का फल है और प्रतिकूल परिस्थिति निषिद्ध-कर्मों का फल है। इसलिये कहा जाता है कि विहित-कर्म करो और निषिद्ध-कर्म मत करो। अगर निषिद्ध को भगवत्स्वरूप मानकर करोगे तो भगवान् दुःखों और नरकों के रूपमें प्रकट होंगे। जो अशुभ कर्मों की उपासना करता है , उसके सामने भगवान् अशुभ रूप से ही प्रकट होते हैं क्योंकि दुःख और नरक भी तो भगवान के ही स्वरूप हैं। जहाँ करने और न करने की बात होती है वहीं विधि और निषेध लागू होता है। अतः वहाँ विहित ही करना चाहिये , निषिद्ध नहीं करना चाहिये परंतु जहाँ मानने और जानने की बात होती है वहाँ परमात्मा को ही मानना चाहिये और अपने को अथवा संसार को जानना चाहिये। जहाँ मानने की बात है वहाँ परमात्मा को ही मानकर उनके मिलने की उत्कण्ठा बढ़ानी चाहिये। उनको प्राप्त और प्रसन्न करने के लिये उनकी आज्ञा का पालन करना चाहिये तथा उनकी आज्ञा और सिद्धान्तों के विरुद्ध कार्य नहीं करना चाहिये। भगवान की आज्ञा के विरुद्ध कार्य करेंगे तो उनको प्रसन्नता कैसे होगी ?और विरुद्ध कार्य करने वाले को उनकी प्राप्ति कैसे होगी ? जैसे किसी मनुष्य के मन के विरुद्ध काम करने से वह राजी कैसे होगा ? और प्रेम से कैसे मिलेगा ? जहाँ जानने की बात है , वहाँ संसार को जानना चाहिये। जो उत्पत्तिविनाशशील है , सदा साथ रहने वाला नहीं है , वह अपना नहीं है और अपने लिये भी नहीं है । ऐसा जानकर उससे सम्बन्ध-विच्छेद करना चाहिये। उसमें कामना, ममता , आसक्ति नहीं करनी चाहिये। उसका महत्त्व हृदय से उठा देना चाहिये। इससे सत्तत्त्व प्रत्यक्ष हो जायगा और जानना पूर्ण हो जायगा। असत् (नाशवान्) वस्तु हमारे साथ रहने वाली नहीं है ऐसा समझने पर भी अगर समय-समय पर उसको महत्त्व देते रहेंगे तो वास्तविकता (सत्वस्तु) की प्राप्ति नहीं होगी। ‘मत्त एवेति तान्विद्धि’ उन सबको तू मेरे से ही उत्पन्न होने वाला समझ अर्थात् सब कुछ मैं ही हूँ। कार्य और कारण ये दोनों भिन्न दीखते हुए भी कार्य कारण से अपनी भिन्न एवं स्वतन्त्र सत्ता नहीं रखता। अतः कार्य कारणरूप ही होता है। जैसे सोने से गहने पैदा होते हैं तो वे सोने से अलग नहीं होते अर्थात् सोना ही होते हैं। ऐसे ही परमात्मा से पैदा होने वाली अनन्त सृष्टि परमात्मा से भिन्न स्वतन्त्र सत्ता नहीं रख सकती। ‘मत्त एव’ कहने का तात्पर्य है कि अपरा और परा प्रकृति मेरा स्वभाव है । अतः कोई उनको मेरे से भिन्न सिद्ध नहीं कर सकता। 7वें अध्याय के परिशिष्टरूप 9वें अध्याय में भगवान ने कहा है कि कल्प के आदि में प्रकृति को वश में करके मैं बार-बार सृष्टि की रचना करता हूँ (9। 8) और आगे कहते हैं कि मेरी अध्यक्षता में प्रकृति चराचर संसार को रचती है (9। 10) ये दोनों बातें एक ही हुईं। चाहे प्रकृति को लेकर भगवान् रचना करें , चाहे भगवान की अध्यक्षता में प्रकृति रचना करे , इन दोनों का तात्पर्य एक ही है। भगवान रचना करते हैं तो प्रकृति को लेकर ही करते हैं तो मुख्यता भगवान की ही हुई और प्रकृति भगवान की अध्यक्षता में रचना करती है तो भी मुख्यता भगवान की ही हुई। इसी बात को यहाँ कहा है कि मैं सम्पूर्ण जगत् का प्रभव और प्रलय हूँ (7। 6) और इसका उपसंहार करते हुए कहते हैं कि सात्त्विक , राजस और तामस ये भाव मेरे से ही होते हैं। भगवान ने विज्ञानसहित ज्ञान कहने की प्रतिज्ञा करके जानने वाले की दुर्लभता बताते हुए जो प्रकरण आरम्भ किया , उसमें अपरा और परा प्रकृतिका कथन किया। अपरा और परा प्रकृतियों को सम्पूर्ण प्राणियों का कारण बताया क्योंकि इनके संयोग से ही सम्पूर्ण प्राणी पैदा होते हैं। फिर अपने को इन अपरा और पराका कारण बताया ‘मत्तः परतरं नान्यत्’ (7। 7)। यही बात विभूतियों के वर्णन का उपसंहार करते हुए यहाँ कही है कि सात्त्विक राजस और तामस भावों को मेरे से ही होने वाला जान। ‘न त्वहं तेषु ते मयि’ मैं उनमें नहीं हूँ और वे मेरे में नहीं हैं। तात्पर्य है कि उन गुणों की मेरे सिवाय कोई स्वतन्त्र सत्ता नहीं है अर्थात् मैं ही मैं हूँ , मेरे सिवाय और कुछ है ही नहीं। वे सात्त्विक , राजस और तामस जितने भी प्राकृत पदार्थ और क्रियाएँ हैं , वे सब के सब उत्पन्न और नष्ट होते हैं परन्तु मैं उत्पन्न भी नहीं होता और नष्ट भी नहीं होता। अगर मैं उनमें होता तो उनका नाश होने पर मेरा भी नाश हो जाता परन्तु मेरा कभी नाश नहीं होता इसलिये मैं उनमें नहीं हूँ। अगर वे मेरे में होते तो मैं जैसा अविनाशी हूँ , वैसे वे भी अविनाशी होते परंतु वे तो नष्ट होते हैं और मैं रहता हूँ इसलिये वे मेरे में नहीं हैं। जैसे बीज ही वृक्ष , शाखाएँ , पत्ते , फूल आदि के रूप में होता है परंतु वृक्ष , शाखाओं और पत्ते आदि में बीज को खोजेंगे तो उनमें बीज नहीं मिलेगा। कारण कि बीज उनमें तत्त्वरूप से विद्यमान रहता है। ऐसे ही सात्त्विक राजस और तामस भाव मेरे से ही होते हैं परन्तु उन भावों में मेरे को खोजोगे तो उनमें मैं नहीं मिलूँगा (गीता 7। 13)। कारण कि मैं उनमें मूलरूप से और तत्त्वरूप से विद्यमान हूँ। अतः मैं उनमें और वे मेरे में नहीं हैं अर्थात् सब कुछ मैं ही मैं हूँ। जैसे बादल आकाश से ही उत्पन्न होते हैं आकाश में ही रहते हैं और आकाश में ही लीन होते हैं परंतु आकाश ज्यों का त्यों निर्विकार रहता है। न आकाश में बादल रहते हैं और न बादलों में आकाश रहता है। ऐसे ही 8वें श्लोक से लेकर यहाँ तक जितनी (17) विभूतियाँ बतायी गयी हैं वे सब मेरे से ही उत्पन्न होती हैं , मेरे में ही रहती हैं और मेरे में ही लीन हो जाती हैं परंतु वे मेरे में नहीं हैं और मैं उनमें नहीं हूँ। मेरे सिवाय उनकी स्वतन्त्र सत्ता नहीं है। इस दृष्टि से सब कुछ मैं ही हूँ। तात्पर्य यह हुआ कि भगवान के सिवाय जितने सात्त्विक , राजस और तामस भाव अर्थात् प्राकृत पदार्थ और क्रियाएँ दिखायी देती हैं उनकी सत्ता मानकर और उनको महत्ता देकर ये मनुष्य उनमें फँस रहे हैं। अतः भगवान् उन मनुष्यों का लक्ष्य इधर कराते हैं कि इन सब पदार्थों और क्रियाओं में सत्ता और महत्ता मेरी ही है। विशेष बात- सत्त्वगुण , रजोगुण और तमोगुण से उत्पन्न होने वाले तरह-तरह के जितने भाव (प्राकृत पदार्थ और क्रियाएँ) हैं वे सब के सब भगवान की शक्ति प्रकृति से ही उत्पन्न होते हैं परंतु प्रकृति भगवान से अभिन्न होने के कारण इन गुणों को भगवान ने ‘मत्त एव’ मेरे से ही होते हैं ऐसा कहा है। तात्पर्य यह है कि प्रकृति भगवान से अभिन्न होने से ये सभी भाव भगवान से उत्पन्न होते हैं और भगवान में ही लीन हो जाते हैं पर परा प्रकृति (जीवात्मा) ने इनके साथ सम्बन्ध जोड़ लिया अर्थात् इनको अपना और अपने लिये मान लिया । यही परा प्रकृति द्वारा जगत् को धारण करना है। इसी से वह जन्मता-मरता रहता है। अब उस बन्धन का निवारण करने के लिये यहाँ कहते हैं कि सात्त्विक , राजस और तामस ये सब भाव मेरे से ही होते हैं। इसी रीति से 10वें अध्याय में कहा है ‘भवन्ति भावा भूतानां मत्त एव पृथग्विधाः’ (10। 5) अर्थात् प्राणियों के ये अलग-अलग प्रकार वाले (बीस) भाव मेरे से ही उत्पन्न होते हैं और ‘अहं सर्वस्य प्रभवतो मत्तः सर्वं प्रवर्तते’ (10। 8) अर्थात् सबका प्रभव मैं हूँ और सब मेरे से प्रवृत्त होते हैं। 15वें अध्याय में भी कहा है कि स्मृति , ज्ञान आदि सब मेरे से ही उत्पन्न होते हैं ‘मत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च’ (15। 15)। जब सब कुछ परमात्मा से ही उत्पन्न होता है तब मनुष्य के साथ उन गुणों का कोई सम्बन्ध नहीं है। अपने साथ गुणों का सम्बन्ध न मानने से यह मनुष्य बँधता नहीं अर्थात् वे गुण उसके लिये जन्म-मरण के कारण नहीं बनते। गीता में जहाँ भक्ति का वर्णन है वहाँ भगवान् कहते हैं कि सब कुछ मैं ही हूँ ‘सदसच्चाहमर्जुन’ (9। 19) और अर्जुन भी भगवान के’ लिये कहते हैं कि आप सत् और असत् भी हैं तथा उनसे पर भी हैं सदसत्तत्परं यत्’ (11। 37)। ज्ञानी (प्रेमी) भक्त के लिये भी भगवान् कहते हैं कि उसकी दृष्टि में सब कुछ वासुदेव ही है ‘वासुदेवः सर्वम् ‘(7। 19)। कारण यह है कि भक्ति में श्रद्धा और मान्यता की मुख्यता होती है तथा भगवान में दृढ़ अनन्यता होती है। भक्ति में अन्य का अभाव होता है। जैसे उत्तम पतिव्रता को एक पति के सिवाय संसार में दूसरा कोई पुरुष दिखता ही नहीं । ऐसे ही भक्त को एक भगवान के सिवाय और कोई दिखता ही नहीं केवल भगवान् ही दिखते हैं। गीता में जहाँ ज्ञान का वर्णन है वहाँ भगवान् बताते हैं कि सत् और असत् दोनों अलग-अलग हैं ‘नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः’ (2। 16)। ऐसे ही ज्ञानमार्ग में शरीर-शरीरी , देह-देही , क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ , प्रकृति-पुरुष दोनों को अलग-अलग जानने की बात बहुत बार आयी है ‘जैसे प्रकृतिं पुरुषं चैव विद्ध्यनादी उभावपि ‘(13। 19) क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोर्ज्ञानम् (13। 2) क्षेत्रक्षेत्रज्ञसंयोगात् (13। 26) क्षेत्रं क्षेत्री तथा कृत्स्नम् (13। 33) क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोरेवमन्तरं ज्ञानचक्षुषा (13। 34)। कारण यह है कि ज्ञानमार्ग में विवेक की प्रधानता होती है। अतः वहाँ नित्य-अनित्य , अविनाशी-विनाशी आदि का विचार होता है और फिर अपना स्वरूप बिलकुल निर्लिप्त है , ऐसा बोध होता है। साधक में श्रद्धा और विवेक दोनों ही रहने चाहिये। भक्तिमार्ग में श्रद्धा की मुख्यता होती है और ज्ञानमार्ग में विवेक की मुख्यता होती है। ऐसा होने पर भी भक्तिमार्ग में विवेक का और ज्ञानमार्ग में श्रद्धा का अभाव नहीं है। भक्तिमार्ग में मानते हैं कि सात्त्विक , राजस और तामस भाव भगवान से ही होते हैं (7। 12) और ज्ञानमार्ग में मानते हैं कि सत्त्व , रज और तम ये तीनों गुण प्रकृति से ही होते हैं ‘सत्त्वं रजस्तम इति गुणाः प्रकृतिसंभवाः’ (14। 5)। दोनों ही साधक अपने में निर्विकारता मानते हैं कि ये गुण अपने नहीं हैं और दोनों ही जहाँ एक तत्त्व को प्राप्त होते हैं , वहाँ न द्वैत कह सकते हैं , न अद्वैत न सत् कह सकते हैं , न असत्। भक्तिमार्गवाले भगवान के साथ अनन्य प्रेम से अभिन्न होकर प्रकृति से सर्वथा रहित हो जाते हैं और ज्ञानमार्गवाले प्रकृति एवं पुरुष का विवेक करके प्रकृति से बिलकुल असम्बद्ध , अपने स्वरूप का साक्षात् अनुभव करके , प्रकृति से सर्वथा सम्बन्धरहित हो जाते हैं। भगवान ने पहले 12वें श्लोक में कहा कि ये सात्त्विक , राजस और तामस भाव मेरे से ही होते हैं पर मैं उनमें और वे मेरे में नहीं हैं। इस विवेचन से यह सिद्ध हुआ कि भगवान प्रकृति और प्रकृति के कार्य से सर्वथा निर्लिप्त हैं। ऐसे ही भगवान का शुद्ध अंश यह जीव भी निर्लिप्त है। इस पर यह प्रश्न होता है कि यह जीव निर्लिप्त होता हुआ भी बँधता कैसे है ? इसका विवेचन आगे के श्लोक में करते हैं – स्वामी रामसुखदास जी )