अध्याय सात: ज्ञान विज्ञान योग
दिव्य ज्ञान की अनुभूति द्वारा प्राप्त योग
20- 23 अन्य देवताओं की उपासना और उसका फल
कामैस्तैस्तैर्हृतज्ञानाः प्रपद्यन्तेऽन्यदेवताः ।
तं तं नियममास्थाय प्रकृत्या नियताः स्वया ॥7.20॥
कामैः-भौतिक कामनाओं द्वारा; तैः तैः-विविध; हृतज्ञाना:-जिनका ज्ञान भ्रमित है; प्रपद्यन्ते–शरण लेते हैं; अन्य-अन्य; देवताः-स्वर्ग के देवताओं की; तम् तम्-अपनी अपनी; नियमम् – नियम एवं विनियम; आस्थाय-पालन करना; प्रकृत्या – स्वभाव से; नियता:-नियंत्रित; स्वया अपने आप।
वे मनुष्य जिनकी बुद्धि भौतिक कामनाओं द्वारा भ्रमित हो गयी है और भोगों की कामना द्वारा जिनका ज्ञान हरा जा चुका है, वे उन कामनाओं की शीघ्र पूर्ति हेतु देवताओं की शरण में जाते हैं। अपनी-अपनी प्रवृत्ति के अनुसार वे देवताओं की पूजा करते हैं और इन देवताओं को संतुष्ट करने के लिए वे धार्मिक कर्मकाण्डों में संलग्न रहते हैं॥7.20॥
‘कामैस्तैस्तैर्हृतज्ञानाः’ उन-उन अर्थात् इस लोक के और परलोक के भोगों की कामनाओं से जिनका ज्ञान ढक गया है , आच्छादित हो गया है। तात्पर्य है कि परमात्मा की प्राप्ति के लिये जो विवेकयुक्त मनुष्य शरीर मिला है , उस शरीर में आकर परमात्मा की प्राप्ति न करके , वे अपनी कामनाओं की पूर्ति करने में ही लगे रहते हैं। संयोगजन्य सुख की इच्छा को कामना कहते हैं। कामना दो तरह की होती है । यहाँ के भोग भोगने के लिये धनसंग्रह की कामना और स्वर्गादि परलोक के भोग भोगने के लिये पुण्यसंग्रह की कामना। धनसंग्रहकी कामना दो तरह की होती है । पहली यहाँ चाहे जैसे भोग भोगें , चाहे जब चाहे जहाँ और चाहे जितना धन खर्च करें , सुख-आराम से दिन बीतें आदि के लिये अर्थात् संयोगजन्य सुख के लिये धनसंग्रह की कामना होती है और दूसरी मैं धनी हो जाऊँ , धन से मैं बड़ा बन जाऊँ आदि के लिये अर्थात् अभिमानजन्य सुख के लिये धनसंग्रह की कामना होती है। ऐसे ही पुण्यसंग्रह की कामना भी दो तरह की होती है। पहली यहाँ मैं पुण्यात्मा कहलाऊँ और दूसरी परलोक में मेरे को भोग मिलें। इन सभी कामनाओं से सत – असत , नित्य-अनित्य , सार-असार , बन्ध-मोक्ष आदि का विवेक आच्छादित हो जाता है। विवेक आच्छादित होने से वे यह समझ नहीं पाते कि जिन पदार्थों की हम कामना कर रहे हैं , वे पदार्थ हमारे साथ कब तक रहेंगे और हम उन पदार्थों के साथ कब तक रहेंगे ? ‘प्रकृत्या नियताः स्वया’ कामनाओं के कारण विवेक ढका जाने से वे अपनी प्रकृति से नियन्त्रित रहते हैं अर्थात् अपने स्वभाव के परवश रहते हैं। यहाँ प्रकृति शब्द व्यक्तिगत स्वभाव का वाचक है , समष्टि प्रकृति का वाचक नहीं। यह व्यक्तिगत स्वभाव सब में मुख्य होता है ‘स्वभावो मूर्ध्नि वर्तते।’ अतः व्यक्तिगत स्वभाव को कोई छोड़ नहीं सकता ‘या यस्य प्रकृतिः स्वभावजनिता केनापि न त्यज्यते’ परन्तु इस स्वभाव में जो दोष हैं उनको तो मनुष्य छोड़ ही सकता है अगर उन दोषों को मनुष्य छोड़ नहीं सकता तो फिर मनुष्यजन्म की महिमा ही क्या हुई ? मनुष्य अपने स्वभाव को निर्दोष , शुद्ध बनाने में सर्वथा स्वतन्त्र है परन्तु जब तक मनुष्य के भीतर कामनापूर्ति का उद्देश्य रहता है तब तक वह अपने स्वभाव को सुधार नहीं सकता और तभी तक स्वभाव की प्रबलता और अपने में निर्बलता दिखती है परन्तु जिसका उद्देश्य कामना मिटाने का हो जाता है वह अपनी प्रकृति (स्वभाव) का सुधार कर सकता है अर्थात् उसमें प्रकृति की परवशता नहीं रहती। ‘तं तं नियममास्थाय’ कामनाओं के कारण अपनी प्रकृति के परवश होने पर मनुष्य कामनापूर्ति के अनेक उपायों को और विधियों (नियमों) को ढूँढ़ता रहता है। अमुक यज्ञ करने से कामना पूरी होगी कि अमुक तप करने से , अमुक दान देने से कामना पूरी होगी कि अमुक मन्त्र का जप करने से आदि-आदि उपाय खोजता रहता है। उन उपायों की विधियाँ अर्थात् नियम अलग-अलग होते हैं। जैसे अमुक कामनापूर्ति के लिये अमुक विधि से यज्ञ आदि करना चाहिये और अमुक स्थान पर करना चाहिये आदि-आदि। इस तरह मनुष्य अपनी कामनापूर्ति के लिये अनेक उपायों और नियमों को धारण करता है। ‘प्रपद्यन्तेऽन्यदेवताः’ कामनापूर्ति के लिये अनेक उपायों और नियमों को धारण करके मनुष्य अन्य देवताओं की शरण लेते हैं किन्तु भगवान की शरण नहीं लेते। यहाँ ‘अन्यदेवताः’ कहने का तात्पर्य है कि वे देवताओं को भगवत्स्वरूप नहीं मानते हैं बल्कि उनकी अलग सत्ता मानते हैं । इसी से उनको अन्तवाला (नाशवान्) फल मिलता है ‘अन्तवत्तु फलं तेषाम्’ (गीता 7। 23)। अगर वे देवताओं की अलग सत्ता न मानकर उनको भगवत्स्वरूप ही मानें तो फिर उनको अन्त वाला फल नहीं मिलेगा बल्कि अविनाशी फल मिलेगा। यहाँ देवताओं की शरण लेने में दो कारण मुख्य हुए एक कामना और एक अपने स्वभाव की परवशता – स्वामी रामसुखदास जी