Bhagavat gita chapter 7

 

 

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अध्याय सात: ज्ञान विज्ञान योग

दिव्य ज्ञान की अनुभूति द्वारा प्राप्त योग

 

24-30 भगवान के प्रभाव और स्वरूप को न जानने वालों की निंदा और जानने वालों की महिमा

 

 

Shrimad Bhagavad Geeta Chapter 7वेदाहं समतीतानि वर्तमानानि चार्जुन ।

भविष्याणि च भूतानि मां तु वेद न कश्चन ॥7.26॥

 

वेद-जानना; अहम्-मैं; समतीतानि – भूतकाल को; वर्तमानानि-वर्तमान को; च-तथा; अर्जुन-अर्जुन; भविष्याणि-भविष्य को; च-भी; भूतानि-सभी जीवों को; माम्-मुझको; तु-लेकिन; वेद-जानना; न-नहीं; कश्चन-कोई 

 

अर्जुन! मैं भूत, वर्तमान और भविष्य को जानता हूँ अर्थात जो प्राणी भूत काल में हो चुके हैं , जो वर्तमान में स्थित हैं और जो भविष्य में होने वाले हैं उन सभी प्राणियों को मैं जानता हूँ लेकिन मुझे कोई नहीं जानता अर्थात मेरे शरणागत भक्तों को छोड़ कर मुझे कोई भी श्रद्धा और भक्ति रहित मनुष्य नहीं जानता। केवल मेरे प्रेमी भक्त ही मुझे जान सकते हैं ॥7.26॥

 

‘वेदाहं समतीतानि ৷৷. मां तु वेद न कश्चन’ यहाँ भगवान ने प्राणियों के लिये तो भूत , वर्तमान और भविष्यकाल के तीन विशेषण दिये हैं परन्तु अपने लिये ‘अहं वेद’ पदों से केवल वर्तमान काल का ही प्रयोग किया है। इसका तात्पर्य यह है कि भगवान की दृष्टि में भूत , भविष्य और वर्तमान ये तीनों काल वर्तमान ही हैं। अतः भूत के प्राणी हों , भविष्य के प्राणी हों अथवा वर्तमान के प्राणी हों , सभी भगवान की दृष्टि में वर्तमान होने से , भगवान सभी को जानते हैं। भूत , भविष्य और वर्तमान ये तीनों काल तो प्राणियों की दृष्टि में हैं ,भगवान की दृष्टि में नहीं। जैसे सिनेमा देखने वालों के लिये भूत , वर्तमान और भविष्यकाल का भेद रहता है पर सिनेमा की फिल्म में सब कुछ वर्तमान है , ऐसे ही प्राणियों की दृष्टि में भूत , वर्तमान और भविष्यकाल का भेद रहता है पर भगवान की दृष्टि में सब कुछ वर्तमान ही रहता है। कारण कि सम्पूर्ण प्राणी काल के अन्तर्गत हैं और भगवान काल से अतीत हैं। देश , काल , वस्तु , व्यक्ति , घटना , परिस्थिति आदि बदलते रहते हैं और भगवान हरदम वैसे के वैसे ही रहते हैं। काल के अन्तर्गत आये हुए प्राणियों का ज्ञान सीमित होता है और भगवान का  ज्ञान असीम है। उन प्राणियों  में भी कोई योगका अभ्यास करके ज्ञान बढ़ा लेंगे तो वे युञ्जान योगी होंगे और जिस समय जिस वस्तु को जानना चाहेंगे उस समय उसी वस्तु को वे जानेंगे परन्तु भगवान तो युक्त योगी हैं अर्थात् बिना योग का अभ्यास किये ही वे मात्र जीवों को और मात्र संसार को सब समय स्वतः जानते हैं। भूत ,भविष्य और वर्तमान के सभी जीव नित्य-निरन्तर भगवान में ही रहते हैं , भगवान से कभी अलग हो ही नहीं सकते। भगवान में भी यह ताकत नहीं है कि वे जीवों से अलग हो जायँ । अतः प्राणी कहीं भी रहें , वे कभी भी भगवान की दृष्टिसे ओझल नहीं हो सकते।मां तु वेद न कश्चन का तात्पर्य है कि पूर्वश्लोकमें कहे हुए मूढ़ समुदायमेंसे मेरेको कोई नहीं जानता अर्थात् जो मेरेको अज और अविनाशी नहीं मानते प्रत्युत मेरेको साधारण मनुष्यजैसा जन्मनेमरनेवाला मानते हैं उन मूढ़ोंमेंसे मेरेको कोई भी नहीं जानता पर मैं सबको जानता हूँ।जैसे बाँसकी चिक दरवाजेपर लटका देनेसे भीतरवाले तो बाहरवालोंको पूर्णतया देखते हैं पर बाहरवाले केवल दरवाजेपर टँगी हुई चिकको ही देखते हैं भीतरवालोंको नहीं। ऐसे ही योगमायारूपी चिकसे अच्छी तरहसे आवृत होनेके कारण भगवान्को मूढ़ लोग नहीं देख पाते पर भगवान् सबको देखते हैं।यहाँ एक शङ्का होती है कि भगवान् जब भविष्यमें होनेवाले सब प्राणियोंको जानते हैं तो किसकी मुक्ति होगी और कौन बन्धनमें रहेगा यह भी जानते ही हैं क्योंकि भगवान्का ज्ञान नित्य है। अतः वे जिनकी मुक्ति जानते हैं उनकी तो मुक्ति होगी और जिनको बन्धनमें जानते हैं वे बन्धनमें ही रहेंगे। भगवान्की इस सर्वज्ञतासे तो मनुष्यकी मुक्ति परतन्त्र हो गयी मनुष्यके प्रयत्नसे साध्य नहीं रही।इसका समाधान यह है कि भगवान्ने अपनी तरफसे मनुष्यको अन्तिम जन्म दिया है। अब इस जन्ममें मनुष्य अपना उद्धार कर ले अथवा पतन कर ले यह उसके ऊपर निर्भर करता है (गीता 7। 27 8। 6)। उसके उद्धार अथवा पतनका निर्णय भगवान् नहीं करते।इसी अध्यायके उन्नीसवें श्लोकमें भगवान् यह कह आये हैं कि बहुत जन्मोंके इस अन्तिम मनुष्यजन्ममें जो सब कुछ वासुदेव ही है ऐसे मेरे शरण होता है वह महात्मा दुर्लभ है। इसका तात्पर्य यह हुआ कि मनुष्यशरीरमें सम्पूर्ण प्राणियोंको यह स्वतन्त्रता है कि वे अपने अनन्त जन्मोंके सञ्चित कर्मसमुदायका नाश करके भगवान्को प्राप्त कर सकते हैं अपनी मुक्ति कर सकते हैं। अगर यही माना जाय कि कौनसा प्राणी आगे किस गतिमें जायगा ऐसा भगवान्का संकल्प है तो फिर अपना उद्धार करनेमें मनुष्यकी स्वतन्त्रता ही नहीं रहेगी और ऐसा करो ऐसा मत करो यह भगवान् सन्त शास्त्र गुरु आदिका उपदेश भी व्यर्थ हो जायेगा। इसके सिवाय जोजो मनुष्य जिसजिस देवताकी उपासना करना चाहता है उसउस देवताके प्रति मैं उसकी श्रद्धा दृढ़ कर देता हूँ (7। 21) और अन्तसमयमें मनुष्य जिसजिस भावका स्मरण करके शरीर छोड़ता है वह उसउसको ही प्राप्त होता है (8। 6) इस तरह उपासना और अन्तकालीन स्मरणमें स्वतन्त्रता भी नहीं रहेगी जो भगवान्ने मनुष्यमात्रको दे रखी है।बिना कारण कृपा करनेवाले प्रभु जीवको मनुष्यशरीर देते हैं (टिप्पणी प0 436) जिससे यह जीव मनुष्यशरीर पाकर स्वतन्त्रतासे अपना कल्याण कर ले। गीतामें ग्यारहवें अध्यायके तैंतीसवें श्लोकमें जैसे भगवान्ने अर्जुनसे कहा मयैवैते निहताः पूर्वमेव निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन् अर्थात् मेरे द्वारा ये पहले ही मारे जा चुके हैं तू केवल निमित्तमात्र बन जा। ऐसे ही मनुष्यमात्रको विवेक और उद्धारकी पूरी सामग्री देकर भगवान्ने कहा है कि तू अपना उद्धार कर ले अर्थात् अपने उद्धारमें तू केवल निमित्तमात्र बन जा मेरी कृपा तेरे साथ है। इस मनुष्यशरीररूपी नौकाको पाकर मेरी कृपारूपी अनुकूल हवासे जो भवसागरको नहीं तरता अर्थात् अपना उद्धार नहीं करता वह आत्महत्यारा है मयानुकूलेन नभस्वतेरितं पुमान् भवाब्धिं न तरेत् स आत्महा (श्रीमद्भा0 11। 20। 17)। गीतामें भी भगवान्ने कहा है कि जो परमात्माको सब जगह समान रीतिसे परिपूर्ण देखता है वह अपनी हत्या नहीं करता इसलिये वह परमगतिको प्राप्त होता है (13। 28)। इससे भी यह सिद्ध हुआ कि मनुष्यशरीर प्राप्त होनेपर अपना उद्धार करनेका अधिकार सामर्थ्य समझ आदि पूरी सामग्री मिलती है। ऐसा अमूल्य अवसर पाकर भी जो अपना उद्धार नहीं करता वह अपनी हत्या करता है और इसीसे वह जन्ममरणमें जाता है। अगर यह जीव मनुष्यशरीर पाकर शास्त्र और भगवान्से विरुद्ध न चले तथा मिली हुई सामग्रीका ठीकठीक उपयोग करे तो इसकी मुक्ति स्वतःसिद्ध है। इसमें कोई बाधा लग ही नहीं सकती।मनुष्यके लिये यह खास बात है कि भगवान्ने कृपा करके जो सामर्थ्य समझ आदि सामग्री दी है उसका मैं दुरुपयोग नहीं करूँगा भगवान्के सिद्धान्तके विरुद्ध नहीं चलूँगा ऐसा वह अटल निश्चय कर ले और उस निश्चयपर डटा रहे। अगर अपनी असामर्थ्यसे कभी दुरुपयोग भी हो जाय तो मनमें उसकी जलन पैदा हो जाय और भगवान्से कह दे कि हे नाथ मेरेसे गलती हो गयी अब ऐसी गलती कभी नहीं करूँगा। हे नाथ ऐसा बल दो जिससे कभी आपके सिद्धान्तसे विपरीत न चलूँ तो उसका प्रायश्चित हो जाता है और भगवान्से मदद मिलती है।मनुष्यकी असामर्थ्य दो तरहसे होती है एक असामर्थ्य यह होती है कि वह कर ही नहीं सकता जैसे किसी नौकरसे कोई मालिक यह कह दे कि तुम इस मकानको उठाकर एक मीलतक ले जाकर रख दो तो वह यह काम कर ही नहीं सकता। दूसरी असामर्थ्य यह होती है कि वह कर तो सकता है और करना चाहता भी है फिर भी समय पर प्रमादवश नहीं करता। यह असामर्थ्य साधक में आती रहती है। इसको दूर करनेके लिये साधक भगवान से कहे कि हे नाथ ! मैं ऐसा प्रमाद फिर कभी न करूँ , ऐसी मेरे को शक्ति दो। भगवान की ही दी हुई स्वतन्त्रता के कारण भगवान ऐसा संकल्प कभी कर ही नहीं सकते कि इस जीव के इतने जन्म होंगे। इतना ही नहीं चर-अचर अनन्त जीवों के लिये भी भगवान ऐसा संकल्प नहीं करते कि उनके अनेक जन्म होंगे। हाँ , यह बात जरूर है कि मनुष्य के सिवाय दूसरे प्राणियों के पीछे परम्परा से कर्मफलों का ताँता लगा हुआ है जिससे वे बार-बार जन्मते-मरते रहते हैं। ऐसी परम्परा में पड़े हुए जीवों में से कोई जीव किसी कारण से मनुष्यशरीर में अथवा किसी अन्य योनि में भी प्रभु के चरणों की शरण हो जाता है तो भगवान उसके अनन्त जन्मों के पापों को नष्ट कर देते हैं ‘कोटि बिप्र बध लागहिं जाहू। आएँ सरन तजउँ नहिं ताहू।। सनमुख होइ जीव मोहि जबहीं। जन्म कोटि अघ नासहिं तबहीं।।'(मानस 5। 44। 1) पूर्वश्लोक में भगवान ने यह कहा कि मुझे कोई भी नहीं जानता तो भगवान को न जानने में मुख्य कारण क्या है ? इसका उत्तर आगे के श्लोक में देते हैं – स्वामी रामसुखदास जी 

 

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