Bhagavat gita chapter 7

 

 

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अध्याय सात: ज्ञान विज्ञान योग

दिव्य ज्ञान की अनुभूति द्वारा प्राप्त योग

 

24-30 भगवान के प्रभाव और स्वरूप को न जानने वालों की निंदा और जानने वालों की महिमा

 

 

Bhagavad Gita chapter 7नाहं प्रकाशः सर्वस्य योगमायासमावृतः ।

मूढोऽयं नाभिजानाति लोको मामजमव्ययम् ॥7.25॥

 

ना – न तो ; अहम्-मैं; प्रकाश:-प्रकट; सर्वस्य–सब के लिये; योगमाया- भगवान की परम अंतरंग शक्ति; समावृतः-आच्छादित; मूढः-मोहित, मूर्ख; अयम्-इन; न-नहीं; अभिजानाति–जानना; लोकः-लोग; माम्-मुझको; अजम्-अजन्मा को; अव्ययम्-अविनाशी।

 

मैं सभी के लिए प्रकट नहीं हूँ क्योंकि सब मेरी अंतरंग शक्ति ‘योगमाया’ द्वारा आच्छादित रहते हैं अर्थात अपनी योगमाया से छिपा हुआ मैं सबके प्रत्यक्ष नहीं होता, इसलिए मूर्ख और अज्ञानी लोग यह नहीं जानते कि मैं अजन्मा और अविनाशी हूँ अर्थात न तो मेरा जन्म होता है न मृत्यु या विनाश परन्तु माया द्वारा भ्रमित ये अल्पबुद्धि लोग मुझको जन्मने और मरने वाला समझते हैं ॥7.25॥

 

मूढोऽयं नाभिजानाति लोको मामजमव्ययम्’ मैं अज और अविनाशी हूँ अर्थात् जन्म-मरण से रहित हूँ। ऐसा होने पर भी मैं प्रकट और अन्तर्धान होने की लीला करता हूँ अर्थात् जब मैं अवतार लेता हूँ तब अज (अजन्मा) रहता हुआ ही अवतार लेता हूँ और अव्ययात्मा रहता हुआ ही अन्तर्धान हो जाता हूँ। जैसे सूर्य भगवान उदय होते हैं तो हमारे सामने आ जाते हैं और अस्त होते हैं तो हमारे नेत्रों से ओझल हो जाते हैं , छिप जाते हैं , ऐसे ही मैं केवल प्रकट और अन्तर्धान होने की लीला करता हूँ। जो मेरे को इस प्रकार जन्म-मरण से रहित मानते हैं वे तो असम्मूढ़ हैं (गीता 10। 3 15। 19) परन्तु जो मेरे को साधारण प्राणियों की तरह जन्मने-मरने वाला मानते हैं वे मूढ़ हैं (गीता 9। 11)।भगवान को अज – अविनाशी न मानने में कारण है कि इस मनुष्य का भगवान के साथ जो स्वतः अपनापन है , उसको भूलकर इसने शरीर को अपना मान लिया कि यह शरीर ही मैं हूँ और यह शरीर मेरा है। इसलिये उसके सामने परदा आ गया जिससे वह भगवान को भी अपने समान ही जन्मने-मरने वाला मानने लगा। मूढ़ मनुष्य मेरे को अज और अविनाशी नहीं जानते। उनके न जानने में दो कारण हैं। एक तो मेरा योगमाया से छिपा रहना और एक उनकी मूढ़ता। जैसे किसी शहर में किसी का एक घर है और वह अपने घर में बंद है तथा शहर के सब के सब घर शहर की चहारदीवारी (परकोटे) में बंद हैं। अगर वह मनुष्य बाहर निकलना चाहे तो अपने घर से निकल सकता है पर शहर की चहारदीवारी से निकलना उसके हाथ की बात नहीं है। हाँ , यदि उस शहर का राजा चाहे तो वह चहारदीवारी का दरवाजा भी खोल सकता है और उसके घर का दरवाजा भी खोल सकता है। अगर वह मनुष्य अपने घर का दरवाजा नहीं खोल सकता तो राजा उस दरवाजे को तोड़ भी सकता है। ऐसे ही यह प्राणी अपनी मूढ़ता को दूर करके अपने नित्य स्वरूप को जान सकता है परन्तु सर्वथा भगवत् तत्त्व का बोध तो भगवान की कृपा से ही हो सकता है। भगवान जिसको जनाना चाहें वही उनको जान सकता है ‘सोइ जानइ जेहि देहु जनाई’ (मानस 2। 127। 2)। अगर मनुष्य सर्वथा भगवान के शरण हो जाय तो भगवान उसके अज्ञान को भी दूर कर देते हैं और अपनी माया को भी दूर कर देते हैं। ‘नाहं प्रकाशः सर्वस्य योगमायासमावृतः’ उन सबके सामने अर्थात् उस मूढ़ समुदाय के सामने मैं भगवद्रूप से प्रकट नहीं होता। कारण कि वे मेरे को अज-अविनाशी भगवद्रूप से जानना अथवा मानना ही नहीं चाहते बल्कि वे मेरे को साधारण मनुष्य मान कर मेरी अवहेलना करते हैं। अतः उनके सामने मैं अपने भगवत्स्वरूप से कैसे प्रकट होऊँ ? तात्पर्य है कि जो मेरे को अज-अविनाशी नहीं मानते बल्कि मेरे को जन्मने-मरने वाला मानते हैं , उनके सामने मैं अपनी योगमाया में छिपा रहता हूँ और सामान्य मनुष्य जैसा ही रहता हूँ परन्तु जो मेरे को अज अविनाशी और सम्पूर्ण प्राणियों का ईश्वर मानते हैं , मेरे में श्रद्धा-विश्वास रखते हैं , उनके भावों के अनुसार मैं उनके सामने प्रकट रहता हूँ। भगवान की योगमाया विचित्र , विलक्षण , अलौकिक है। मनुष्यों का भगवान के प्रति जैसा भाव होता है , उसके अनुसार ही वे योगमायासमावृत भगवान को देखते हैं (टिप्पणी प0 435)। यहाँ भगवान ने कहा है कि जो मेरे को अज-अविनाशी नहीं जानते , वे मूढ़ हैं और 10वें अध्याय के दूसरे श्लोकमें कहा है कि देवता और महर्षि मेरे प्रभाव को नहीं जानते। इस पर शङ्का होती है कि भगवान को अज-अविनाशी नहीं जानना और उनके प्रभाव को नहीं जानना , ये दोनों बातें तो एक ही हो गयीं परन्तु यहाँ न जानने वालों को मूढ़ बताया है और वहाँ उनको मूढ़ बताया है ,ऐसा क्यों ? इसका समाधान है कि भगवान के प्रभाव को अर्थात् प्रकट होने को न जानना दोषी नहीं है क्योंकि वहाँ भगवान ने स्वयं कहा है कि मैं सब तरह से देवताओं और महर्षियों का आदि हूँ। जैसे बालक अपने पिता के जन्म को कैसे देख सकता है क्योंकि वह उस समय पैदा ही नहीं हुआ था। वह तो पिता से पैदा हुआ है। अतः उसका पिता के जन्म को न जानना दोषी नहीं है। ऐसे ही भगवान के प्रकट होने के हेतुओं को पूरा न जानना , देवताओं और महर्षियों के लिये कोई दोषी नहीं है। भगवान्के प्रकट होनेको कोई सर्वथा जान ही नहीं सकता। इसलिये वहाँ देवताओं और महर्षियोंको मूढ़ नहीं बताया है। मनुष्य भगवान को अज-अविनाशी जान सकते हैं अर्थात् मान सकते हैं। अगर वे भगवान को अज-अविनाशी नहीं मानते तो यह उनका दोष है। इसलिये उनको यहाँ मूढ़ कहा है। जो भगवान को अज-अविनाशी नहीं मानते , उनके ही सामने माया का परदा रहता है पर भगवान के सामने वह परदा नहीं रहता , इसका वर्णन आगे के श्लोक में करते हैं – स्वामी रामसुखदास जी 

 

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