श्रद्धात्रयविभागयोग- सत्रहवाँ अध्याय
Chapter 17: Śhraddhā Traya Vibhāg Yog
आहार, यज्ञ, तप और दान के पृथक-पृथक भेद
अभिसंधाय तु फलं दम्भार्थमपि चैव यत्।
इज्यते भरतश्रेष्ठ तं यज्ञं विद्धि राजसम्।।17.12।।
अभिसन्धाय-प्रेरित होकर; तु-लेकिन; फलम्-फल; दम्भ- आडम्बर , दिखावा , घमंड; अर्थम् – के लिए; अपि-भी; च-और; एव – वास्तव में; यत्-जो; इज्यते-किया जाता है; भरतश्रेष्ठ-भरतवंशियों में प्रमुख, अर्जुन; तम्-उस; यज्ञम् – यज्ञ को; विधि-जानो; राजसम्-रजोगुण।
हे श्रेष्ठ भरतवंशी! जो यज्ञ भौतिक लाभ , फल की इच्छा से प्रेरित हो कर या ध्यान में रखते हुए , आडम्बरपूर्ण उद्देश्य के साथ दिखावे के लिए किया जाता है उसे राजस या रजोगुणी श्रेणी का यज्ञ समझो ৷৷17.12॥
अभिसन्धाय तु फलम् – फल अर्थात् इष्ट की प्राप्ति और अनिष्ट की निवृत्ति की कामना रखकर जो यज्ञ किया जाता है वह राजस हो जाता है। इस लोक में हमें धन-वैभव मिले , स्त्री-पुत्र-परिवार अच्छा मिले , नौकर-चाकर , गाय-भैंस आदि भी हमारे अनुकूल मिलें हमारा शरीर नीरोग रहे । हमारा आदर-सत्कार , मान-बड़ाई , प्रसिद्धि हो जाय तथा मरने के बाद भी हमें स्वर्गादि लोकों के दिव्य भोग मिलें आदि इष्ट की प्राप्ति की कामनाएँ हैं। हमारे वैरी नष्ट हो जाएं ; संसार में हमारा अपमान , बेइज्जती , तिरस्कार आदि कभी न हो हमारे प्रतिकूल परिस्थिति कभी आये ही नहीं आदि अनिष्ट की निवृत्ति की कामनाएँ हैं। दम्भार्थमपि चैव यत् – लोग हमें भीतर से सद्गुणी , सदाचारी , संयमी , तपस्वी , दानी , धर्मात्मा , याज्ञिक आदि समझें जिससे संसार में हमारी प्रसिद्धि हो जाय – ऐसे दिखावटीपने को लेकर जो यज्ञ किया जाता है वह राजस कहलाता है। इस प्रकार के दिखावटी यज्ञ करने वालों में यक्ष्ये दास्यामि (16। 15) और यजन्ते नामयज्ञैस्ते (16। 17) आदि सभी बातें विशेषता से आ जाती हैं। इज्यते भरतश्रेष्ठ तं यज्ञं विद्धि राजसम् – इस प्रकार फल की कामना और दम्भ (दिखावटीपन) को लेकर जो यज्ञ किया जाता है वह राजस हो जाता है। जो यज्ञ कामनापूर्ति के लिये किया जाता है उसमें शास्त्रविधि की मुख्यता रहती है। कारण कि यज्ञ की विधि और क्रिया में यदि किसी प्रकार की कमी रहेगी तो उससे प्राप्त होने वाले फल में भी कमी आ जायगी। इसी प्रकार यदि यज्ञ की विधि और क्रिया में विपरीत बात आ जायगी तो उसका फल भी विपरीत हो जायगा अर्थात् वह यज्ञ सिद्धि न देकर उलटे यज्ञकर्ता के लिये घातक हो जायगा परन्तु जो यज्ञ केवल दिखावटीपन के लिये किया जाता है उसमें शास्त्रविधि की परवाह नहीं होती। यहाँ विद्धि क्रिया देने का तात्पर्य है कि हे अर्जुन ! सांसारिक राग (कामना) ही जन्म-मरण का कारण है। अतः इस विषय में तेरे को विशेष सावधान रहना है।