Bhagwat Gita Chapter 17

 

 

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श्रद्धात्रयविभागयोग-  सत्रहवाँ अध्याय

Chapter 17: Śhraddhā Traya Vibhāg Yog

 

आहार, यज्ञ, तप और दान के पृथक-पृथक भेद

 

 

Shrimad Bhagavad Gita Chapter 17मूढग्राहेणात्मनो यत्पीडया क्रियते तपः।

परस्योत्सादनार्थं वा तत्तामसमुदाहृतम्।।17.19।।

 

मूढ-भ्रमित विचारों वाले; ग्रहेण-प्रयत्न के साथ; आत्मनः-अपने ही; यत्-जो; पीडया – यातना; क्रियते – सम्पन्न किया जाता है; तपः-तपस्या; परस्य – अन्यों को; उत्सादनार्थं (उत्सादन-अर्थम् ) – अनिष्ट करना; वा-अथवा; तत्-वह; तामसम्-तमोगुण; उदाहतम्-कही जाती है।

 

जो तप मूढ़तापूर्वक हठ से, अपने को पीड़ा देकर ( मन, वाणी और शरीर की पीड़ा के सहित ) , दूसरों को कष्ट देने अथवा दूसरे का अनिष्ट या नाश करने के लिए किया जाता है, वह तप तामस कहा गया है अर्थात वह तप जो ऐसे व्यक्तियों के द्वारा किया जाता है जो भ्रमित विचारों वाले हैं तथा जिसमें स्वयं को यातना देना तथा दूसरों का अनिष्ट करना सम्मिलित हो , उसे तमोगुणी कहा जाता है ৷৷17.19॥

 

 मूढग्राहेणात्मनो यत्पीडया क्रियते तपः – तामस तप में मूढ़तापूर्वक आग्रह होने से अपने-आप को पीड़ा देकर तप किया जाता है। तामस मनुष्यों में मूढ़ता की प्रधानता रहती है । अतः जिसमें शरीर को , मन को कष्ट हो उसी को वे तप मानते हैं। परस्योत्सादनार्थं वा — अथवा वे दूसरों को दुःख देने के लिये तप करते हैं। उनका भाव रहता है कि शक्ति प्राप्त करने के लिये तप (संयम आदि) करने में मुझे भले ही कष्ट सहना पड़े पर दूसरों को नष्ट-भ्रष्ट तो करना ही है। तामस मनुष्य दूसरों को दुःख देने के लिये उन तीन (कायिक , वाचिक और मानसिक) तपों के आंशिक भाग के सिवाय मनमाने ढंग से उपवास करना , शीत-घाम को सहना आदि तप भी कर सकता है।तत्तामसमुदाहृतम् – तामस मनुष्य का उद्देश्य ही दूसरों को कष्ट देने का , उनका अनिष्ट करने का रहता है। अतः ऐसे उद्देश्य से किया गया तप तामस कहलाता है। [सात्त्विक मनुष्य फल की इच्छा न रखकर परमश्रद्धा से तप करता है । इसलिये वास्तव में वही मनुष्य कहलाने लायक हैं। राजस मनुष्य सत्कार , मान , पूजा तथा दम्भ के लिये तप करता है इसलिये वह मनुष्य कहलाने लायक नहीं है क्योंकि सत्कार , मान आदि तो पशु-पक्षियों को भी प्रिय लगते हैं और वे बेचारे दम्भ भी नहीं करते तामस मनुष्य तो पशुओं से भी नीचे हैं क्योंकि पशु-पक्षी स्वयं दुःख पाकर दूसरों को दुःख तो नहीं देते पर यह तामस मनुष्य तो स्वयं दुःख पाकर दूसरों को दुःख देता है।] अब भगवान आगे के तीन श्लोकों में क्रमशः सात्त्विक , राजस और तामस दान के लक्षण बताते हैं।

 

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