श्रद्धात्रयविभागयोग- सत्रहवाँ अध्याय
Chapter 17: Śhraddhā Traya Vibhāg Yog
ॐ तत् सत के प्रयोग की व्याख्या
अश्रद्धया हुतं दत्तं तपस्तप्तं कृतं च यत्।
असदित्युच्यते पार्थ न च तत्प्रेत्य नो इह।।17.28।।
अश्रद्धया – श्रद्धाविहीन; हुतम्-यज्ञ; दत्तम-दान; तपः-कठोर तपस्या; तप्तम् – सम्पर्क करना; कृतम् – किया गया; च-भी; यत्-जो; असत्-नश्वर; इति-इस प्रकार; उच्यते-कहा जाता है; पार्थ – हे पृथापुत्र, अर्जुन; न कभी नहीं; च-भी; तत्-वह; प्रेत्य-परलोक में; न -न तो; इह-इस संसार में।
हे पार्थ ! जो भी यज्ञ कर्म या तप बिना श्रद्धा के किए जाते हैं वे ‘असत्’ कहलाते है। ये इस लोक और परलोक दोनों में व्यर्थ जाते हैं अर्थात अश्रद्धापूर्वक या बिना श्रद्धा के किया हुआ हवन, दिया हुआ दान एवं तपा हुआ तप और जो कुछ भी किया हुआ शुभ कर्म है- वह समस्त ‘असत्’- इस प्रकार कहा जाता है, इसलिए वह न तो इस लोक में लाभदायक है और न मरने के बाद ही ৷৷17.28॥
अश्रद्धया हुतं दत्तं तपस्तप्तं कृतं च यत् – अश्रद्धापूर्वक यज्ञ , दान और तप किया जाय और ‘कृतं च यत्’ (टिप्पणी प0 864) अर्थात् जिसकी शास्त्र में आज्ञा आती है – ऐसा जो कुछ कर्म अश्रद्धापूर्वक किया जाय – वह सब असत् कहा जाता है। ‘अश्रद्धया’ पद में श्रद्धा के अभाव का वाचक ‘नञ्’ समास है जिसका तात्पर्य है कि आसुर लोग परलोक , पुनर्जन्म , धर्म , ईश्वर आदि में श्रद्धा नहीं रखते। बरन धर्म नहिं आश्रम चारी। श्रुति बिरोध रत सब उर नारी।। (मानस 7। 98। 1) – इस प्रकार के विरुद्ध भाव रखकर वे यज्ञ , दान आदि क्रियाएँ करते हैं। जब वे शास्त्र में श्रद्धा ही नहीं रखते तो फिर वे यज्ञ आदि शास्त्रीय कर्म क्यों करते हैं ? वे उन शास्त्रीय कर्मों को इसलिये करते हैं कि लोगों में उन क्रियाओं का ज्यादा प्रचलन है उनको करने वालों का लोग आदर करते हैं तथा उनको करना अच्छा समझते हैं। इसलिये समाज में अच्छा बनने के लिये और जो लोग यज्ञ आदि शास्त्रीय कर्म करते हैं उनकी श्रेणी में गिने जाने के लिये वे श्रद्धा न होने पर भी शास्त्रीय कर्म कर देते हैं। असदित्युच्यते पार्थ न च तत्प्रेत्य नो इह – अश्रद्धापूर्वक यज्ञ आदि जो कुछ शास्त्रीय कर्म किया जाय वह सब असत् कहा जाता है। उसका न इस लोक में फल होता है और न परलोक में – जन्म-जन्मान्तर में ही फल होता है। तात्पर्य यह कि सकामभाव से श्रद्धा एवं विधिपूर्वक शास्त्रीय कर्मों को करने पर यहाँ धन-वैभव , स्त्री-पुत्र आदि की प्राप्ति और मरने के बाद स्वर्गादि लोकों की प्राप्ति हो सकती है और उन्हीं कर्मों को निष्कामभाव से श्रद्धा एवं विधिपूर्वक करने पर अन्तःकरण की शुद्धि होकर परमात्मप्राप्ति हो जाती है परन्तु अश्रद्धापूर्वक कर्म करने वालों को इनमें से कोई भी फल प्राप्त नहीं होता। यदि यहाँ यह कहा जाय कि अश्रद्धापूर्वक जो कुछ भी किया जाता है उसका इस लोक में और परलोक में कुछ भी फल नहीं होता तो जितने पापकर्म किये जाते हैं वे सभी अश्रद्धा से ही किये जाते हैं तब तो उनका भी कोई फल नहीं होना चाहिये और मनुष्य भोग भोगने तथा संग्रह करने की इच्छा को लेकर अन्याय , अत्याचार , झूठ , कपट , धोखेबाजी आदि जितने भी पापकर्म करता है उन कर्मों का फल दण्ड भी नहीं चाहता पर वास्तव में ऐसी बात है नहीं। कारण कि कर्मों का यह नियम है कि रागी पुरुष रागपूर्वक जो कुछ भी कर्म करता है उसका फल कर्ता के न चाहने पर भी कर्ता को मिलता ही है। इसलिये आसुरीसम्पदा वालों को बन्धन और आसुरी योनियों तथा नरकों की प्राप्ति होती है।छोटे से छोटा और साधारण से साधारण कर्म भी यदि उस परमात्मा के उद्देश्य से ही निष्कामभावपूर्वक किया जाय तो वह कर्म सत् हो जाता है अर्थात् परमात्मा की प्राप्ति कराने वाला हो जाता है परन्तु ब़ड़े से बड़ा यज्ञादि कर्म भी यदि श्रद्धापूर्वक और शास्त्रीय विधिविधान से सकामभावपूर्वक किया जाय तो वह कर्म भी फल देकर नष्ट हो जाता है , परमात्मा की प्राप्ति कराने वाला नहीं होता तथा वे यज्ञादि कर्म यदि अश्रद्धापूर्वक किये जाएं तो वे सब असत् हो जाते हैं अर्थात् सत् फल देने वाले नहीं होते। तात्पर्य यह है कि परमात्मा की प्राप्ति में क्रिया की प्रधानता नहीं है प्रत्युत श्रद्धाभाव की ही प्रधानता है। पूर्वोक्त सद्भाव , साधुभाव , प्रशस्त कर्म , सत्स्थिति और तदर्थीय कर्म – ये पाँचों परमात्मा की प्राप्ति कराने वाले होने से अर्थात् सत् – परमात्मा के साथ सम्बन्ध जोड़ने वाले होने से सत् कहे जाते हैं। अश्रद्धा से किये गये कर्म असत् क्यों होते हैं ? वेदों ने , भगवान ने और शास्त्रों ने कृपा करके मनुष्यों के कल्याण के लिये ही ये शुभकर्म बताये हैं पर जो मनुष्य इन तीनों पर अश्रद्धा करके शुभकर्म करते हैं उनके ये सब कर्म असत् हो जाते हैं। इन तीनों पर की हुई अश्रद्धा के कारण उनको नरक आदि दण्ड मिलने चाहिये परन्तु उनके कर्म शुभ (अच्छे) हैं इसलिये उन कर्मों का कोई फल नहीं होता – यही उनके लिये दण्ड है। मनुष्य को उचित है कि वह यज्ञ , दान , तप , तीर्थ , व्रत आदि शास्त्रविहित कर्मों को श्रद्धापूर्वक और निष्कामभाव से करे। भगवान ने विशेष कृपा करके मानवशरीर दिया है और इसमें शुभकर्म करने से अपने को और सब लोगों को लाभ होता है। इसलिये जिससे अभी और परिणाम में सबका हित हो – ऐसे श्रेष्ठ कर्तव्यकर्म श्रद्धापूर्वक और भगवान की प्रसन्नता के लिये करते रहना चाहिये।
ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्नीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुन दैवासुरसम्पद्विभागयोगो नाम सप्तदशोऽध्यायः ॥17॥
इस प्रकार ॐ तत् सत् – इन भगवन्नामों के उच्चारणपूर्वक ब्रह्मविद्या और योगशास्त्रमय श्रीमद्भगवद्गीतोपनिषद्रूप श्रीकृष्णार्जुनसंवाद में श्रद्धात्रयविभागयोग नामक सत्रहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ।।17।।
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