श्रद्धात्रयविभागयोग- सत्रहवाँ अध्याय
Chapter 17: Śhraddhā Traya Vibhāg Yog
श्रद्धा और शास्त्रविपरीत घोर तप करने वालों का विषय
श्री भगवानुवाच
त्रिविधा भवति श्रद्धा देहिनां सा स्वभावजा।
सात्त्विकी राजसी चैव तामसी चेति तां श्रृणु।।17.2।।
श्री भगवान् उवाच-भगवान ने कहा; त्रिविद्या–तीन प्रकार की विद्या; भवति-होना; श्रद्धा-विश्वास; देहिनाम्-देहधारियों की; सा-किसमें; स्वभावजा-जन्म की प्रकृति के अनुसार; सात्त्विकी-सत्वगुण; राजसी-रजोगुण; च-भी; एव-निश्चय ही; तामसी-तमोगुण; च-तथा; इति-इस प्रकार; ताम्-उसको; शृणु-सुनो।
श्रीभगवान् बोले – प्रत्येक प्राणी स्वाभाविक रूप से श्रद्धा के साथ जन्म लेता है अर्थात उसके जन्म के स्वभाव के अनुसार उसकी श्रद्धा होती है। मनुष्यों की वह स्वाभाविक या स्वभाव से उत्पन्न हुई श्रद्धा अर्थात मनुष्यों की वह शास्त्रीय संस्कारों और ज्ञान से रहित तथा अनन्त जन्मों में किए हुए कर्मों के सञ्चित संस्कार से उत्पन्न हुई श्रद्धा सात्विक, राजसिक ( राजसी ) अथवा तामसिक ( तामसी ) तीन प्रकार की ही होती है , उसको तुम मुझ से सुनो ৷৷17.2॥
(अनन्त जन्मों में किए हुए कर्मों के सञ्चित संस्कार से उत्पन्न हुई श्रद्धा ”स्वभावजा” श्रद्धा कही जाती है।)
[अर्जुन ने निष्ठा को जानने के लिये प्रश्न किया था पर भगवान उसका उत्तर श्रद्धा को लेकर देते हैं क्योंकि श्रद्धा के अनुसार ही निष्ठा होती है।] त्रिविधा भवति श्रद्धा देहिनां सा स्वभावजा – श्रद्धा तीन तरह की होती है। वह श्रद्धा कौन सी है सङ्गजा है ? शास्त्रजा है या स्वभावजा है तो कहते हैं कि वह स्वभावजा है – सा स्वभावजा अर्थात् स्वभाव से पैदा हुई स्वतःसिद्ध श्रद्धा है। वह न तो सङ्ग से पैदा हुई है और न शास्त्रों से पैदा हुई है। वे स्वाभाविक इस प्रवाह में बह रहे हैं और देवता आदि का पूजन करते जा रहे हैं। सात्त्विकी राजसी चैव तामसी चेति तां श्रृणु – वह स्वभावजा श्रद्धा तीन प्रकार की होती है – सात्त्विकी , राजसी और तामसी। उन तीनों को अलग-अलग सुनो।पीछे के श्लोक में ‘सत्त्वमाहो रजस्तमः’ पदों में ‘आहो अव्यय’ देने का तात्पर्य यह था कि अर्जुन की दृष्टि में ‘सत्त्वम्’ से दैवीसम्पत्ति और ‘रजस्तमः’ से आसुरीसम्पत्ति – ये दो ही विभाग हैं और भगवान भी बन्धन की दृष्टि से राजसी-तामसी दोनों को आसुरीसम्पत्ति ही मानते हैं – निबन्धायासुरीमता (16। 5) परंतु बन्धन की दृष्टि से राजसी और तामसी एक होते हुए भी दोनों के बन्धन में भेद है। राजस मनुष्य सकामभाव से शास्त्रविहित कर्म भी करते हैं । अतः वे स्वर्गादि ऊँचे लोकों में जाकर और वहाँ के भोगों को भोगकर पुण्य क्षीण होने पर फिर मृत्युलोक में लौट आते हैं – क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति (गीता 9। 21) परन्तु तामस मनुष्य शास्त्रविहित कर्म नहीं करते । अतः वे कामना और मूढ़ता के कारण अधम गति में जाते हैं – अधो गच्छन्ति तामसाः (गीता 14। 18)। इस प्रकार राजस और तामस – दोनों ही मनुष्यों का बन्धन बना रहता है। दोनों के बन्धन में भेद की दृष्टि से ही भगवान आसुरीसम्पदा वालों की श्रद्धा के राजसी और तामसी – दो भेद करते हैं और सात्त्विकी , राजसी और तामसी – तीनों श्रद्धाओं को अलग-अलग सुनने के लिये कहते हैं। पूर्वश्लोक में वर्णित स्वभावजा श्रद्धा के तीन भेद क्यों होते हैं ? इसे भगवान आगे के श्लोक में बताते हैं।