Bhagwat Gita Chapter 17

 

 

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श्रद्धात्रयविभागयोग-  सत्रहवाँ अध्याय

Chapter 17: Śhraddhā Traya Vibhāg Yog

 

श्रद्धा और शास्त्रविपरीत घोर तप करने वालों का विषय

 

 

Bhagavad Gita Chapter 17यजन्ते सात्त्विका देवान्यक्षरक्षांसि राजसाः।

प्रेतान्भूतगणांश्चान्ये यजन्ते तामसा जनाः।।17.4।।

 

यजन्ते-पूजा करते हैं; सात्त्विका-सत्वगुण से युक्त लोग; देवान् – स्वर्ग के देवता; यक्ष-देवताओं के समकक्ष धन और शक्ति से सम्पन्न; रक्षांसि-शक्तिशाली असुरगण; राजसाः-रजोगुण में स्थित लोग; प्रेतान्भूतगणान्-भूत और प्रेतात्माएँ; च-तथा; अन्ये-अन्य; यजन्ते-पूजते हैं; तामसा:-अज्ञानता के गुण में स्थित; जना:-लोग।

 

सत्वगुण वाले स्वर्ग के देवताओं की पूजा करते हैं, रजोगुण वाले यक्षों तथा राक्षसों की पूजा करते हैं, तमोगुण वाले भूतों और प्रेतात्माओं की पूजा करते हैं अर्थात सात्त्विक मनुष्य देवों को पूजते हैं, राजसी मनुष्य यक्ष और राक्षसों को तथा अन्य जो तामसी मनुष्य हैं, वे प्रेत और भूतगणों को पूजते हैं ৷৷17.4॥

 

यजन्ते सात्त्विका देवान् – सात्त्विक अर्थात् दैवीसम्पत्ति वाले मनुष्य देवों का पूजन करते हैं। यहाँ ‘देवान्’ शब्द से विष्णु , शंकर , गणेश , शक्ति और सूर्य – ये पाँच ईश्वरकोटि के देवता लेने चाहिये क्योंकि दैवीसम्पत्ति में देव शब्द ईश्वर का वाचक है और उसकी सम्पत्ति अर्थात् दैवीसम्पत्ति मुक्ति देने वाली है – दैवी सम्पद्विमोक्षाय (16। 5)। वह दैवीसम्पत्ति जिनमें प्रकट होती है उन (दैवीसम्पत्तिवाले) साधकों की स्वाभाविक श्रद्धा की पहचान बताने के लिये यहाँ ‘यजन्ते सात्त्विका देवान् ‘ पद आये हैं। ईश्वरकोटि के देवताओं में भी साधकों की श्रद्धा अलग-अलग होती है। किसी की श्रद्धा भगवान विष्णु (राम , कृष्ण , आदि) में होती है , किसी की भगवान शंकर में होती है , किसी की भगवान गणेश में होती है , किसी की भगवती शक्ति में होती है और किसी की भगवान सूर्य में होती है। ईश्वर के जिस रूप में उनकी स्वाभाविक श्रद्धा होती है उसी का वे विशेषता से यजन-पूजन करते हैं। बारह आदित्य , आठ वसु , ग्यारह रुद्र और दो अश्विनीकुमार – इन तैंतीस (33) प्रकार के शास्त्रोक्त देवताओं का निष्कामभाव से पूजन करना भी ‘यजन्ते सात्त्विका देवान्’ के अन्तर्गत मानना चाहिये। यक्षरक्षांसि राजसाः – राजस मनुष्य यक्षों और राक्षसों का पूजन करते हैं। यक्ष-राक्षस भी देवयोनि में हैं। यक्षों में धन के संग्रह की मुख्यता होती है और राक्षसों में दूसरों का नाश करने की मुख्यता होती है। अपनी कामनापूर्ति के लिये और दूसरों का विनाश करने के लिये राजस मनुष्यों में यक्षों और राक्षसों का पूजन करने की प्रवृत्ति होती है। प्रेतान्भूतगणांश्चान्ये यजन्ते तामसा जनाः – तामस मनुष्य प्रेतों तथा भूतों का पूजन करते हैं। जो मर गये हैं उन्हें प्रेत कहते हैं और जो भूतयोनि में चले गये हैं उन्हें भूत कहते हैं। यहाँ प्रेत शब्द के अन्तर्गत जो अपने पितर हैं उनको नहीं लेना चाहिये क्योंकि जो अपना कर्तव्य समझकर निष्कामभाव से अपने-अपने पितरों का पूजन करते हैं वे तामस नहीं कहलायेंगे प्रत्युत सात्त्विक ही कहलायेंगे। अपने-अपने पितरों के पूजन का भगवान ने निषेध नहीं किया है – पितृ़न्यान्ति पितृव्रताः (गीता 9। 25)। तात्पर्य है कि जो पितरों का सकामभाव से पूजन करते हैं कि पितर हमारी रक्षा करेंगे अथवा हम जैसे पिता-पितामह आदि के लिये श्राद्ध-तर्पण आदि करते हैं ऐसे ही हमारी कुल-परम्परा वाले भी हमारे लिये श्राद्ध-तर्पण आदि करेंगे – ऐसे भाव से पूजन करने वाले पितरों को प्राप्त होते हैं परन्तु अपने माता-पिता , दादा-दादी आदि पितरों का पूजन करने से पितरों को प्राप्त हो जायेंगे – यह बात नहीं है। जो पितृऋण से उऋण होना अपना कर्तव्य समझते हैं और इसीलिये (अपना कर्तव्य समझकर) निष्कामभाव से पितरों का पूजन करते हैं वे पुरुष सात्त्विक हैं , राजस नहीं। पितृलोक को वे ही जाते हैं जो ‘पितृव्रताः’ हैं अर्थात् जो पितरों को सर्वोपरि और अपना इष्ट मानते हैं तथा पितरों पर ही निष्ठा रखते हैं। ऐसे लोग पितृलोक को तो जा सकते हैं पर उससे आगे नहीं जा सकते। कुत्ते , कौए आदि को भी जो निष्कामभाव से रोटी देते हैं (शास्त्र में ऐसा विधान है) उससे उनकी योनि प्राप्त नहीं होती क्योंकि वह उनका इष्ट नहीं है। वे तो शास्त्र की आज्ञा के अनुसार चलते हैं। इसी प्रकार पितरों का श्राद्ध-तर्पण आदि भी शास्त्र की आज्ञा के अनुसार निष्कामभावपूर्वक करने से पितृयोनि प्राप्त नहीं हो जाती। शास्त्र या भगवान की आज्ञा मानकर करने से उनका उद्धार होगा। इसलिये निष्कामभाव से किये गये शास्त्रविहित नारायणबलि , गया-श्राद्ध आदि प्रेतकर्मों को तामस नहीं मानना चाहिये क्योंकि ये तो मृत प्राणी की सद्गति के लिये किये जाने वाले आवश्यक कर्म हैं जिन्हें मरे हुए प्राणी के लिये शास्त्र के आज्ञानुसार हरेक को करना चाहिये। हम शास्त्रविहित यज्ञ आदि शुभ कर्म करते हैं तो उनमें पहले गणेशजी , नवग्रह , षोडशमातृका आदि का पूजन शास्त्र की आज्ञा के अनुसार निष्कामभाव से करते हैं। यह वास्तव में नवग्रह आदि का पूजन न होकर शास्त्र का ही पूजन , आदर हुआ। जैसे स्त्री पति की सेवा करती है तो उसका कल्याण हो जाता है। विवाह तो हरेक पुरुष का हो सकता है , राक्षस का भी और असुर का भी। वे भी पति बन सकते हैं। परन्तु वास्तव में कल्याण पति की सेवा से नहीं होता प्रत्युत पति की सेवा करना – पातिव्रतधर्म का पालन करना ऋषि , शास्त्र , भगवान की आज्ञा है इसलिये इनकी आज्ञा के पालन से ही कल्याण होता है। देवता आदि के पूजन से पूजक (पूजा करने वाले) की गति वैसी ही होगी – यह बताने के लिये यहाँ ‘यजन्ते’ पद नहीं आया है। अर्जुन ने शास्त्रविधि का त्याग करके श्रद्धापूर्वक यजन-पूजन करने वालों की निष्ठा पूछी थी । अतः अपने-अपने इष्ट (पूज्य) के अनुसार पूजकों की निष्ठा – श्रद्धा होती है। इसकी पहचान बताने के लिये ही ‘यजन्ते’ पद आया है। अब तक उन मनुष्यों की बात बतायी जो शास्त्रविधि को न जानने के कारण उसका (अज्ञतापूर्वक) त्याग करते हैं परन्तु अपने इष्ट तथा उसके यजन-पूजनमें  श्रद्धा रखते हैं। अब विरोधपूर्वक शास्त्रविधि का त्याग करने वाले श्रद्धारहित मनुष्यों की क्रियाओं का वर्णन आगे के दो श्लोकों में करते हैं।

 

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