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GunTrayVibhagYog ~ Bhagwat Geeta Chapter 14 | गुणत्रयविभागयोग ~ अध्याय चौदह
अथ चतुर्दशोऽध्यायः- गुणत्रयविभागयोग
05 – 18 सत्, रज, तम- तीनों गुणों का विषय
सत्त्वात्सञ्जायते ज्ञानं रजसो लोभ एव च।
प्रमादमोहौ तमसो भवतोऽज्ञानमेव च।।14.17।।
सत्त्वात् – सत्वगुणी; सञ्जायते-उत्पन्न होता है; ज्ञानम्-ज्ञान; रजसः-रजोगुण से; लोभः-लालच; एव-निश्चय ही; च – और ; प्रमाद – असावधानी; मोहौ-तथा मोह; तमसः-तमोगुण से; भवतः – होता है; अज्ञानम्-अज्ञान; एव-निसंदेह ; च-और।
सतोगुण से वास्तविक ज्ञान उत्पन्न होता है, रजोगुण से निश्चित रूप से लोभ ही उत्पन्न होता है और तमोगुण से निश्चित रूप से प्रमाद, मोह, अज्ञान ही उत्पन्न होता हैं। 14.17
सत्त्वात्संजायते ज्ञानम् – सत्त्वगुण से ज्ञान होता है अर्थात् सुकृत-दुष्कृत कर्मों का विवेक जाग्रत् होता है। उस विवेक से मनुष्य सुकृत सत्कर्म ही करता है। उन सुकृत कर्मों का फल सात्त्विक , निर्मल होता है। ‘रजसो लोभ एव च ‘ – रजोगुण से लोभ आदि पैदा होते हैं। लोभ को लेकर मनुष्य जो कर्म करता है उन कर्मों का फल दुःख होता है। जितना मिला है उसकी वृद्धि चाहने का नाम लोभ है। लोभ के दो रूप हैं – उचित खर्च न करना और अनुचित रीति से संग्रह करना। उचित कामों में धन खर्च न करने से , उससे जी चुराने से मनुष्य के मन में अशान्ति , हलचल रहती है और अनुचित रीति से अर्थात् झूठ , कपट आदि से धन का संग्रह करने से पाप बनते हैं जिससे नरकों में तथा चौरासी लाख योनियों में दुःख भोगना पड़ता है। इस दृष्टि से राजस कर्मों का फल दुःख होता है। ‘प्रमादमोहौ तमसो भवतोऽज्ञानमेव च’ – तमोगुण से प्रमाद , मोह और अज्ञान पैदा होता है। इन तीनों के बुद्धि में आने से विवेक-विरुद्ध काम होते हैं (गीता 18। 32) जिससे अज्ञान ही बढ़ता है , दृढ़ होता है। यहाँ तो तमोगुण से अज्ञान का पैदा होना बताया है और इसी अध्याय के आठवें श्लोक में अज्ञान से तमोगुण का पैदा होना बताया है। इसका तात्पर्य यह है कि जैसे वृक्ष से बीज पैदा होते हैं और उन बीजों से आगे बहुत से वृक्ष पैदा होते हैं । ऐसे ही तमोगुण से अज्ञान पैदा होता है और अज्ञान से तमोगुण बढ़ता है , पुष्ट होता है। पहले आठवें श्लोक में भगवान ने प्रमाद , आलस्य और निद्रा – ये तीन बताये परन्तु 13वें श्लोक में और यहाँ प्रमाद तो बताया पर निद्रा नहीं बतायी। इससे यह सिद्ध होता है कि आवश्यक निद्रा तमोगुणी नहीं है और निषिद्ध भी नहीं है तथा बाँधने वाली भी नहीं है। कारण कि शरीर के लिये आवश्यक निद्रा तो सात्त्विक पुरुष को भी आती है और गुणातीत पुरुष को भी वास्तव में अधिक निद्रा ही बाँधने वाली , निषिद्ध और तमोगुणी है क्योंकि अधिक निद्रा से शरीर में आलस्य बढ़ता है , पड़े रहने का ही मन करता है , बहुत समय बरबाद हो जाता है। विशेष बात- यह जीव साक्षात् परमात्मा का अंश होते हुए भी जब प्रकृति के साथ सम्बन्ध जोड़ लेता है तब इसका प्रकृतिजन्य गुणों के साथ सम्बन्ध जुड़ जाता है। फिर गुणों के अनुसार उसके अन्तःकरण में वृत्तियाँ पैदा होती हैं। उन वृत्तियों के अनुसार कर्म होते हैं और इन्हीं कर्मों का फल ऊँच-नीच गतियाँ होती हैं। तात्पर्य है कि जीवितअवस्था में अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियाँ आती हैं और मरने के बाद ऊँच-नीच गतियाँ होती हैं। वास्तव में उन कर्मों के मूल में भी गुणों की वृत्तियाँ ही होती हैं जो कि पुनर्जन्म के होने में खास कारण हैं (गीता 13। 21)। तात्पर्य है कि गुणों का सङ्ग कर्मों से कमजोर नहीं है। जैसे कर्म शुभ-अशुभ फल देते हैं । ऐसे ही गुणों का सङ्ग भी शुभ-अशुभ फल देता है (गीता 8। 6)। इसीलिये पाँचवें से 18वें श्लोक तक के इस प्रकरणमें पहले 14वें – 15वें श्लोकों में गुणों की तात्कालिक वृत्तियों के बढ़ने का फल बताया और जीवित अवस्था में जो परिस्थितियाँ आती हैं उनको 16वें श्लोक में बताया तथा आगे 18वें श्लोक में गुणों की स्थायी वृत्तियों का फल बतायेंगे। अतः वृत्तियों और कर्मों के होने में गुण ही मुख्य हैं। इस पूरे प्रकरण में गुणों की मुख्य बात इसी (17वें) श्लोक में कही गयी है। जिसका उद्देश्य संसार नहीं है बल्कि परमात्मा है , वह साधारण मनुष्यों की तरह प्रकृति में स्थित नहीं है। अतः उसमें प्रकृतिजन्य गुणों की परवशता नहीं रहती और साधन करते-करते आगे चलकर जब अहंता परिवर्तित होकर लक्ष्य की दृढ़ता हो जाती है , तब उसको अपने स्वतःसिद्ध गुणातीत स्वरूप का अनुभव हो जाता है। इसी का नाम बोध है। इस बोध के विषय में भगवान ने इस अध्याय का पहला-दूसरा श्लोक कहा और गुणातीत के विषय में 22वें से 26वें तक के पाँच श्लोक कहे। इस तरह यह पूरा अध्याय गुणों से अतीत स्वतःसिद्ध स्वरूप का अनुभव करनेके लिये ही कहा गया है। तात्कालिक गुणों के बढ़ने पर मरने वालों की गति का वर्णन तो 14वें-15वें श्लोकों में कर दिया परन्तु जिनके जीवन में सत्त्वगुण , रजोगुण अथवा तमोगुण की प्रधानता रहती है उनकी (मरने पर) क्या गति होती है ? इसका वर्णन आगे के श्लोक में करते हैं – स्वामी रामसुखदास जी