The Bhagavad Gita chapter 14

 

 

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GunTrayVibhagYog ~ Bhagwat Geeta Chapter 14 | गुणत्रयविभागयोग ~ अध्याय चौदह

अथ चतुर्दशोऽध्यायः- गुणत्रयविभागयोग

 

05 – 18 सत्‌, रज, तम- तीनों गुणों का विषय

 

 

The Bhagavad Gita chapter 14ऊर्ध्वं गच्छन्ति सत्त्वस्था मध्ये तिष्ठन्ति राजसाः।

जघन्यगुणवृत्तिस्था अधो गच्छन्ति तामसाः।।14.18।।

 

ऊर्ध्वम्-ऊपर की ओर; गच्छन्ति-जाते हैं; सत्त्वस्था:-जो सत्वगुण में स्थित हैं; मध्ये – मध्य में; तिष्ठन्ति – निवास करते हैं; राजसाः-रजोगुणी; जघन्य – घृणित; गुण-गुण; वृत्तिस्था:-कर्मों में रत; अधः-निम्न; गच्छन्ति-जाते हैं; तामसाः-तमोगुणी।

 

सतोगुण में स्थित जीव ऊर्ध्व लोकों में अर्थात स्वर्ग के उच्च लोकों को जाता हैं, रजोगुण में स्थित जीव मध्य में पृथ्वी लोक ( मृत्यु लोक ) या मनुष्य लोक में ही रह जाते हैं और निंदनीय तमोगुण में स्थित जीव अधोगति या पशु आदि नीच योनियों में नरक को जाते हैं। 14.18

 

ऊर्ध्वं गच्छन्ति सत्त्वस्थाः – जिनके जीवन में सत्त्वगुण की प्रधानता रही है और उसके कारण जिन्होंने भोगों से संयम किया है , तीर्थ , व्रत , दान आदि शुभकर्म किये हैं , दूसरों के सुख- आरामके लिये प्याऊ , अन्न-क्षेत्र आदि चलाये हैं , सड़कें बनवायी हैं , पशु-पक्षियों की सुख-सुविधा के लिये पेड़-पौधे लगाये हैं , गौशालाएँ बनवायी हैं उन मनुष्यों को यहाँ ‘सत्त्वस्थाः’ कहा गया है। जब सत्त्वगुण की प्रधानता में ही ऐसे मनुष्यों का शरीर छूट जाता है तब वे सत्त्वगुण का सङ्ग होने से , सत्त्वगुण में आसक्ति होने से स्वर्गादि ऊँचे लोकों में चले जाते हैं। उन लोकों का वर्णन इसी अध्याय के 14वें श्लोक में ‘उत्तमविदां अमलान् लोकान्’ पदों से किया गया है। ऊर्ध्वलोकों में जाने वाले मनुष्यों को तेजस तत्व प्रधान  प्रधान शरीर की प्राप्ति होती है। ‘मध्ये तिष्ठन्ति राजसाः’ – जिन मनुष्यों के जीवन में रजोगुण की प्रधानता होती है और उसके कारण जो शास्त्र की मर्यादा में रहते हुए भी संग्रह करना और भोग भोगना , ऐश-आराम करना , पदार्थों में ममता – आसक्ति रखना आदि में लगे रहते हैं उनको यहाँ ‘राजसाः’ कहा गया है। जब रजोगुण की प्रधानता में ही अर्थात् रजोगुण के कार्यों के चिन्तन में ही ऐसे मनुष्यों का शरीर छूट जाता है तब वे पुनः इस मृत्युलोक में ही जन्म लेते हैं। यहाँ उनको पृथ्वी तत्त्व प्रधान मनुष्य शरीर की प्राप्ति होती है। यहाँ ‘तिष्ठन्ति’ पद देने का तात्पर्य है कि वे राजस मनुष्य अभी जैसे इस मृत्युलोक में हैं मरने के बाद वे पुनः मृत्युलोक में आकर ऐसे ही बन जाते हैं अर्थात् जैसे पहले थे वैसे ही बन जाते हैं। वे अशुद्ध आचरण नहीं करते , शास्त्र की मर्यादा भङ्ग नहीं करते बल्कि शास्त्र की मर्यादामें ही रहते हैं और शुद्ध आचरण करते हैं परन्तु पदार्थों , व्यक्तियों आदि में राग ,आसक्ति , ममता रहने के कारण वे पुनः मृत्युलोक में ही जन्म लेते हैं। ‘जघन्यगुणवृत्तिस्था अधो गच्छन्ति तामसाः’ – जिन मनुष्यों के जीवन में तमोगुण की प्रधानता रहती है और उसके कारण जिन्होंने प्रमाद आदि के वश में होकर निरर्थक पैसा और समय बरबाद किया है , जो आलस्य तथा नींद में ही पड़े रहे हैं , आवश्यक कार्यों को भी जिन्होंने समय पर नहीं किया है , जो दूसरों का अहित ही सोचते आये हैं , जिन्होंने दूसरों का अहित किया है , दूसरों को दुःख दिया है , जिन्होंने झूठ , कपट , चोरी , डकैती आदि निन्दनीय कर्म किये हैं – ऐसे मनुष्यों को यहाँ ‘जघन्यगुणवृत्तिस्थाः’ कहा गया है। जब तमोगुण की प्रधानता में ही अर्थात् तमोगुण के कार्यों के चिन्तन में ही ऐसे मनुष्य मर जाते हैं तब वे अधोगति में चले जाते हैं।अधोगति के दो भेद हैं – ‘योनिविशेष’ और ”स्थानविशेष। पशु , पक्षी , कीट , पतङ्ग , साँप , बिच्छू , भूत-प्रेत आदि योनि-विशेष अधोगति हैं और वैतरिणी , असिपत्र , लालाभक्ष , कुम्भीपाक , रौरव , महारौरव आदि नरक के कुण्ड स्थानविशेष अधोगति है। जिनके जीवन में सत्त्वगुण अथवा रजोगुण रहते हुए भी अन्त समय में तात्कालिक तमोगुण बढ़ जाता है वे मनुष्य मरने के बाद योनिविशेष अधोगति में अर्थात् मूढ़योनियों में चले जाते हैं (गीता 14। 15)। जिनके जीवन में तमोगुण की प्रधानता रही है और उसी तमोगुण की प्रधानता में जिनका शरीर छूट जाता है वे मनुष्य मरने के बाद स्थानविशेष अधोगति में अर्थात् नरकों में चले जाते हैं (गीता 16। 16)। तात्पर्य यह हुआ कि सात्त्विक , राजस अथवा तामस मनुष्य का अन्तिम चिन्तन और हो जाने से उनकी गति तो अन्तिम चिन्तन के अनुसार ही होगी पर सुख- दुःख का भोग उनके कर्मों के अनुसार ही होगा। जैसे – कर्म तो अच्छे हैं पर अन्तिम चिन्तन कुत्ते का हो गया तो अन्तिम चिन्तन के अनुसार वह कुत्ता बन जायगा परन्तु उस योनि में भी उसको कर्मों के अनुसार बहुत सुख-आराम मिलेगा। कर्म तो बुरे हैं पर अन्तिम चिन्तन मनुष्य आदि का हो गया तो अन्तिम चिन्तन के अनुसार वह मनुष्य बन जायगा परन्तु उसको कर्मों के फलरूप में भयंकर परिस्थिति मिलेगी। उसके शरीर में रोग ही रोग रहेंगे। खाने के लिये अन्न , पीने के लिये जल और पहनने के लिये कपड़ा भी कठिनाई से मिलेगा। सात्त्विक गुण को बढ़ाने के लिये साधक सत्शास्त्रों के पढ़ने में लगा रहे। खाना-पीना भी सात्त्विक करे , राजस-तामस खान-पान न करे। सात्त्विक श्रेष्ठ मनुष्यों का ही सङ्ग करे , उन्हीं के सान्निध्य में रहे   उनके कहे अनुसार साधन करे। शुद्ध , पवित्र तीर्थ आदि स्थानों का सेवन करे , जहाँ कोलाहल होता हो – ऐसे राजस स्थानों का और जहाँ अण्डा , माँस , मदिरा बिकती हो – ऐसे तामस स्थानों का सेवन न करे। प्रातःकाल और सायंकाल का समय सात्त्विक माना जाता है । अतः इस सात्त्विक समय का विशेषता से सदुपयोग करे अर्थात् इसे भजन , ध्यान आदि में लगाये। शास्त्रविहित शुभकर्म ही करे , निषिद्ध कर्म कभी न करे , राजस-तामस कर्म कभी न करे। जो जिस वर्ण , आश्रम में स्थित है उसी में अपने-अपने कर्तव्य का ठीक तरह से पालन करे। ध्यान भगवान का ही करे। मन्त्र भी सात्त्विक ही जपे। इस प्रकार सब कुछ सात्त्विक करने से पुराने संस्कार मिट जाते हैं और सात्त्विक संसार (सत्त्वगुण) बढ़ जाते हैं। श्रीमद्भागवत में गुणों को बढ़ाने वाले दस कारण बताये गये हैं – ‘आगमोऽपः प्रजा देशः कालः कर्म च जन्म च।ध्यानं मन्त्रोऽथ संस्कारो दशैते गुणहेतवः।।’ (11। 13। 4) शास्त्र , जल (खान-पान) , प्रजा (सङ्ग) , स्थान , समय , कर्म , जन्म , ध्यान , मन्त्र और संस्कार – ये दस वस्तुएँ यदि सात्त्विक हों तो सत्त्वगुण की , राजसी हों तो रजोगुण की और तामसी हों तो तमोगुण की वृद्धि करती हैं। विशेष बात- अन्त समय में रजोगुण की तात्कालिक वृत्ति के बढ़ने पर मरने वाला मनुष्य मनुष्यलोक में जन्म लेता है (14। 15) और रजोगुण की प्रधानता वाला मनुष्य मर कर फिर इस मनुष्यलोक में ही आता है । (14। 18) इन दोनों बातों से यही सिद्ध होता है कि इस मनुष्यलोक के सभी मनुष्य रजोगुणवाले ही होते हैं । सत्त्वगुण और तमोगुण इनमें नहीं होता। अगर वास्तव में ऐसी बात है तो फिर सत्त्वगुण की तात्कालिक वृत्ति के बढ़ने पर मरने वाला (14। 14) और सत्त्वगुण में स्थित रहने वाला मनुष्य ऊँचे लोकों में जाता है (14। 18) तथा तमोगुण की तात्कालिक वृत्ति के बढ़ने पर मरने वाला (14। 15) और तमोगुण में स्थित रहने वाला मनुष्य अधोगति में जाता है (14। 18) सत्त्व , रज और तम – ये तीनों गुण अविनाशी देही को देह में बाँध देते हैं (14। 5) यह सारा संसार तीनों गुणों से मोहित है (7। 13) सात्त्विक , राजस और तामस – ये तीन प्रकार के कर्ता कहे जाते हैं (18। 26 — 28) यह सम्पूर्ण त्रिलोकी त्रिगुणात्मक है (18। 40)आदि बातें भगवान ने कैसी कही हैं ? इस शङ्का का समाधान यह है कि ऊर्ध्वगति में सत्त्वगुण की प्रधनाता तो है पर साथ में रजोगुण-तमोगुण भी रहते हैं। इसलिये देवताओं के भी सात्त्विक , राजस और तामस स्वभाव होते हैं। अतः सत्त्वगुण की प्रधानता होने पर भी उसमें अवान्तर भेद रहते हैं। ऐसे ही मध्यगति में रजोगुण की प्रधानता होने पर भी साथ में सत्त्वगुण-तमोगुण रहते हैं। इसलिये मनुष्यों के भी सात्त्विक , राजस और तामस स्वभाव होते हैं। अधोगति में तमोगुण की प्रधानता है पर साथ में सत्त्वगुण-रजोगुण भी रहते हैं। इसलिये पशु , पक्षी आदि में तथा भूत , प्रेत , गुह्यक आदि में और नरकों के प्राणियों में भी भिन्न-भिन्न स्वभाव होता है। कई सौम्य स्वभाव के होते हैं , कई मध्यम स्वभाव के होते हैं और कई क्रूर स्वभाव के होते हैं। तात्पर्य है कि जहाँ किसी भी गुण के साथ सम्बन्ध है वहाँ तीनों गुण रहेंगे ही। इसलिये भगवान ने (18। 40 में) कहा है कि त्रिलोकी में ऐसा कोई भी प्राणी नहीं है जो तीनों गुणों से रहित हो। ऊर्ध्वगति में सत्त्वगुण की प्रधानता , रजोगुण की गौणता और तमोगुण की अत्यन्त गौणता रहती है। मध्यगति में रजोगुण की प्रधानता , सत्त्वगुण की गौणता और तमोगुण की अत्यन्त गौणता रहती है। अधोगति में तमोगुण की प्रधानता , रजोगुण की गौणता और सत्त्वगुण की अत्यन्त गौणती रहती है। तात्पर्य है कि सत्त्व , रज और तम – तीनों गुणों की प्रधानता वालों में भी अधिक , मध्यम और कनिष्ठ मात्रा में प्रत्येक गुण रहता है। इस तरह गुणों के सैकड़ों , हजारों सूक्ष्म भेद हो जाते हैं। अतः गुणों के तारतम्य से प्रत्येक प्राणी का अलग-अलग स्वभाव होता है। जैसे भगवान के द्वारा सात्त्विक , राजस और तामस कार्य होते हुए भी वे गुणातीत ही रहते हैं । (7। 13) ऐसे ही गुणातीत महापुरुष के अपने कहलाने वाले अन्तःकरण में सात्त्विक , राजस और तामस वृत्तियों के आने पर भी वह गुणातीत ही रहता है (14। 22)। अतः भगवान की उपासना करना और गुणातीत महापुरुष का सङ्ग करना – ये दोनों ही निर्गुण होने से साधक को गुणातीत करने वाले हैं। 5वें से 18वें श्लोक तक प्रकृति के कार्य गुणों का परिचय देकर अब आगे के दो श्लोकों में स्वयं को तीनों गुणों से अतीत अनुभव करने का वर्णन करते हैं – स्वामी रामसुखदास जी 

 

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