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GunTrayVibhagYog ~ Bhagwat Geeta Chapter 14 | गुणत्रयविभागयोग ~ अध्याय चौदह
अथ चतुर्दशोऽध्यायः- गुणत्रयविभागयोग
05 – 18 सत्, रज, तम- तीनों गुणों का विषय
सत्त्वं सुखे सञ्जयति रजः कर्मणि भारत।
ज्ञानमावृत्य तु तमः प्रमादे सञ्जयत्युत।।14.9।।
सत्त्वम्-सत्वगुण; सुखे-सुख में; सञ्जयति –बाँधता है; रजः- रजोगुण; कर्माणि-कर्म के प्रति; भारत-भरतपुत्र, अर्जुन; ज्ञानम्-ज्ञान को; आवृत्य-ढकना; तु–लेकिन; तम:-अज्ञानता का गुण; प्रमादे-मोह; सञ्जयति-बाँधता है; उत–वास्तव में।
हे भारत ! सत्त्वगुण जीव को सुख में आसक्त कर के बाँध देता है और रजोगुण जीव या मनुष्य को कर्म में बांधता है , किन्तु तमोगुण ज्ञान को ढक कर के जीव को प्रमाद से युक्त कर देता है अर्थात सत्वगुण सांसारिक सुखों में बांधता है, रजोगुण आत्मा को सकाम कर्मों की ओर प्रवृत्त करता है और तमोगुण ज्ञान को आच्छादित कर आत्मा को भ्रम में रखता है।।14.9।।
सत्त्वं सुखे सञ्जयति – सत्त्वगुण साधक को सुख में लगाकर अपनी विजय करता है साधक को अपने वशमें करता है। तात्पर्य है कि जब सात्त्विक सुख आता है तब साधक की उस सुख में आसक्ति हो जाती है। सुख में आसक्ति होने से वह सुख साधक को बाँध देता है अर्थात् उसके साधन को आगे नहीं बढ़ने देता जिससे साधक सत्त्वगुण से ऊँचा नहीं उठ सकता , गुणातीत नहीं हो सकता।यद्यपि भगवान ने पहले छठे श्लोक में सत्त्वगुण के द्वारा सुख और ज्ञान के सङ्ग से बाँधने की बात बतायी है तथापि यहाँ सत्त्वगुण की विजय केवल सुख में ही बतायी है , ज्ञान में नहीं। इसका तात्पर्य यह है कि वास्तव में साधक सुख की आसक्ति से ही बँधता है। ज्ञान होने पर साधक में एक अभिमान आ जाता है कि मैं कितना जानकार हूँ । इस अभिमान में भी एक सुख मिलता है जिससे साधक बँध जाता है। इसलिये यहाँ सत्त्वगुण की केवल सुख में ही विजय बतायी है। ‘रजः कर्मणि भारत’ – रजोगुण मनुष्य को कर्म में लगाकर अपनी विजय करता है। तात्पर्य है कि मनुष्य को क्रिया करना अच्छा लगता है , प्रिय लगता है। जैसे छोटा बालक पड़े-पड़े हाथ-पैर हिलाता है तो उसको अच्छा लगता है और उसका हाथ-पैर हिलाना बंद कर दिया जाय तो वह रोने लगता है। ऐसे ही मनुष्य कोई क्रिया करता है तो उसको अच्छा लगता है और उसकी उस क्रिया को बीच में कोई छुड़ा दे तो उसको बुरा लगता है। यही क्रिया के प्रति आसक्ति है , प्रियता है जिससे रजोगुण मनुष्य पर विजय करता है। कर्मों के फल में तेरा अधिकार नहीं है (गीता 2। 47) आदि वचनों से फल में आसक्ति न रखने की तरफ तो साधक का खयाल जाता है पर कर्मों में आसक्ति न रखने की तरफ साधक का खयाल नहीं जाता। तेरा कर्म करने में ही अधिकार है , कर्म न करने में तेरी आसक्ति न हो (गीता 2। 47) जो योगारूढ़ होना चाहता है उसके लिये निष्कामभाव से कर्म करना कारण है (गीता 6। 3) आदि वचनों से यही समझ लेता है कि कर्म तो करने ही चाहिये। अतः वह कर्म करता है तो कर्मों को करते-करते उसकी उन कर्मों में आसक्ति , प्रियता हो जाती है , उनका आग्रह हो जाता है। इसकी तरफ खयाल कराने के लिये , सजग कराने के लिये भगवान यहाँ कहते हैं कि रजोगुण कर्म में लगाकर विजय करता है अर्थात् कर्मों में आसक्ति पैदा करके बाँध देता है। अतः साधक की कर्तव्यकर्म करने में तत्परता तो होनी चाहिये पर कर्मों में आसक्ति , प्रियता , आग्रह कभी नहीं होना चाहिये – ‘न कर्मस्वनुषज्जते (गीता 6। 4)। ज्ञानमावृत्य तु तमः प्रमादे सञ्जयत्युत ‘ – जब तमोगुण आता है तब वह सत्असत् , कर्तव्य-अकर्तव्य , हित-अहित के ज्ञान (विवेक) को ढक देता है , आच्छादित कर देता है अर्थात् उस ज्ञान को जाग्रत् नहीं होने देता। ज्ञान को ढककर वह मनुष्य को प्रमाद में लगा देता है अर्थात् कर्तव्यकर्मों को करने नहीं देता और न, करने योग्य कर्मों में लगा देता है। यही उसका विजयी होना है। सत्त्वगुण से ज्ञान (विवेक) और प्रकाश (स्वच्छता) – ये दो वृत्तियाँ पैदा होती हैं। तमोगुण इन दोनों ही वृत्तियों का विरोधी है । इसलिये वह ज्ञान (विवेक) को ढककर मनुष्य को प्रमाद में लगाता है और प्रकाश (इन्द्रियों और अन्तःकरण की निर्मलता) को ढककर मनुष्य को आलस्य एवं निद्रा में लगाता है जिससे ज्ञान की बातें कहने-सुनने ,पढ़ने पर भी समझमें नहीं आतीं। एक-एक गुण मनुष्य पर कैसे विजय करता है ? इसको आगे के श्लोक में बताते हैं – स्वामी रामसुखदास जी