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GunTrayVibhagYog ~ Bhagwat Geeta Chapter 14 | गुणत्रयविभागयोग ~ अध्याय चौदह
अथ चतुर्दशोऽध्यायः- गुणत्रयविभागयोग
05 – 18 सत्, रज, तम- तीनों गुणों का विषय
सत्त्वं रजस्तम इति गुणाः प्रकृतिसंभवाः।
निबध्नन्ति महाबाहो देहे देहिनमव्ययम्।।14.5।।
सत्त्वम्-अच्छाई का गुण, सत्वगुण; रजः-आसक्ति का गुण, रजोगुण; तमः-अज्ञानता का गुण, तमोगुण; इति–इस प्रकार; गुणा:-गुण; प्रकृति-भौतिक शक्ति; सम्भवाः-उत्पन्न; निबध नन्ति–बाँधते हैं; महाबाहो-बलिष्ठ भुजाओं वाला; देहे-इस शरीर में; देहिनम्-जीव को, जीवात्मा को , आत्मा को ; अव्ययम्-अविनाशी।
हे महाबाहो ! प्रकृति से उत्पन्न होने वाले सत्त्व, रज और तम – ये तीनों गुण अविनाशी आत्मा को इस नश्वर शरीर के बंधन में बाँध देते हैं अर्थात प्रकृति से निर्मित इन तीन गुणों सतोगुण , रजोगुण और तमोगुण के कारण ही कभी नष्ट न होने वाला अविनाशी जीव / जीवात्मा इस कुछ ही समय बाद नष्ट हो जाने वाली नश्वर देह के बंधन में सदा के लिए बंध जाता है।।14.5।।
सत्त्वं रजस्तम इति गुणाः प्रकृतिसम्भवाः – तीसरे और चौथे श्लोक में जिस मूल प्रकृति को ‘महद् ब्रह्म’ नाम से कहा है उसी मूल प्रकृति से सत्त्व , रज और तम – ये तीनों गुण पैदा होते हैं। यहाँ ‘इति’ पद का तात्पर्य है कि इन तीनों गुणों से अनन्त सृष्टियाँ पैदा होती हैं तथा तीनों गुणों के तारतम्य से प्राणियों के अनेक भेद हो जाते हैं पर गुण न दो होते हैं , न चार होते हैं बल्कि तीन ही होते हैं। ‘निबध्नन्ति महाबाहो देहे देहिनमव्ययम्’ – ये तीनों गुण अविनाशी देही को देह में बाँध देते हैं। वास्तव में देखा जाय तो ये तीनों गुण अपनी तरफ से किसी को भी नहीं बाँधते बल्कि यह पुरुष ही इन गुणों के साथ सम्बन्ध जोड़कर बँध जाता है। तात्पर्य है कि गुणों के कार्य , पदार्थ , धन , परिवार , शरीर , स्वभाव , वृत्तियाँ , परिस्थितियाँ , क्रियाएँ आदि को अपना मान लेने से यह जीव स्वयं अविनाशी होता हुआ भी बँध जाता है , विनाशी पदार्थ , धन आदि के वश में हो जाता है , सर्वथा स्वतन्त्र होता हुआ भी पराधीन हो जाता है। जैसे मनुष्य जिस धन को अपना मानता है उस धन के घटने-बढ़ने से स्वयं पर असर पड़ता है , जिन व्यक्तियों को अपना मानता है उनके जन्मने-मरने से स्वयं पर असर पड़ता है , जिस शरीर को अपना मानता है उसके घटने-बढ़ने से स्वयं पर असर पड़ता है। यही गुणों का अविनाशी देही को बाँधना है। यह बड़े आश्चर्य की बात है कि यह देही स्वयं अविनाशी रूप से ज्यों का त्यों रहता हुआ भी गुणों के , गुणों की वृत्तियों के अधीन होकर स्वयं सात्त्विक , राजस और तामस बन जाता है। गोस्वामी तुलसीदासजी कहते हैं – ‘ईस्वर अंस जीव अबिनासी। चेतन अमल सहज सुखरासी।।’ (मानस 7। 117। 1) जीवका यह अविनाशी स्वरूप वास्तव में कभी भी गुणों से नहीं बँधता परन्तु जब वह विनाशी देह को मैं , मेरा और मेरे लिये मान लेता है तब वह अपनी मान्यता के कारण गुणों से बँध जाता है और उसको परमात्मतत्त्व की प्राप्ति में कठिनता प्रतीत होती है (गीता 12। 5)। देहाभिमान के कारण गुणों के द्वारा देह में बँध जाने से वह तीनों गुणों से परे अपने अविनाशी स्वरूप को नहीं जान सकता। गुणों से देह में बँध जाने पर भी जीव का जो वास्तविक अविनाशी स्वरूप है वह ज्यों का त्यों ही रहता है जिसका लक्ष्य भगवान ने यहाँ ‘अव्ययम्’ पद से कराया है। यहाँ ‘देहिनम्’ पद का तात्पर्य है कि देह में तादात्म्य , ममता और कामना होने से ही तीनों गुण इस पुरुष को देह में बाँधते हैं। यदि देह में तादात्म्य , ममता और कामना न हो तो फिर यह परमात्मस्वरूप ही है। विशेष बात- शरीर के साथ जीव दो तरह से अपना सम्बन्ध जोड़ता है (1) अभेदभाव से – अपने को शरीर में बैठाना जिससे मैं शरीर हूँ ऐसा दिखने लगता है और (2) भेदभाव से – शरीर को अपने में बैठाना जिससे शरीर मेरा है ऐसा दिखने लगता है। अभेदभाव से सम्बन्ध जो़ड़ने से जीव अपने को शरीर मान लेता है जिसको अहंता कहते हैं और भेदभाव से सम्बन्ध जो़ड़ने से जीव शरीर को अपना मान लेता है जिसको ममता कहते हैं। इस प्रकार शरीर से अपना सम्बन्ध जोड़ने पर सत्त्व , रज और तम – तीनों गुण अपनी वृत्तियों के द्वारा शरीर में अहंता-ममता दृढ़ करके जीव को बाँध देते हैं। जैसे विवाह हो जाने पर पत्नी के पूरे परिवार (ससुराल) के साथ सम्बन्ध जुड़ जाता है , पत्नी के वस्त्राभूषण आदि की आवश्यकता अपनी आवश्यकता प्रतीत होने लगती है । ऐसे ही शरीर के साथ मैं-मेरे का सम्बन्ध हो जाने पर जीव का पूरे संसार के साथ सम्बन्ध जुड़ जाता है और शरीरनिर्वाह की वस्तुओं को वह अपनी आवश्यकता मानने लग जाता है। अनित्य शरीर से सम्बन्ध (एकात्मता) मानने के कारण वह अनित्य शरीर को नित्य रखने की इच्छा करने लगता है क्योंकि वह स्वयं नित्य है। शरीर के साथ सम्बन्ध मानने के कारण ही उसको मरने का भय लगने लगता है क्योंकि शरीर मरने वाला है। यदि शरीर से सम्बन्ध न रहे तो फिर न तो नित्य बने रहने की इच्छा होगी और न मरने का भय ही होगा। अतः जब तक नित्य बने रहने की इच्छा और मरने का भय है तब तक वह गुणों से बँधा हुआ है। जीव स्वयं अविनाशी है और शरीर विनाशी है। शरीर का प्रतिक्षण अपने आप वियोग हो रहा है। जिसका अपने आप वियोग हो रहा है उससे सम्बन्धविच्छेद करने में क्या कठिनता और क्या उद्योग ? उद्योग है तो केवल इतना ही है कि स्वतः वियुक्त होने वाली वस्तु को पकड़ना नहीं है। उसको न पकड़ने से अपने अविनाशी , गुणातीत स्वरूप का अपने आप अनुभव हो जायगा। पूर्वश्लोक में भगवान ने सत्त्व , रज और तम – इन तीनों गुणों के द्वारा देही के बाँधे जाने की बात कही। उन तीनों गुणों में से सत्त्वगुण का स्वरूप और उसके बाँधने का प्रकार आगे के श्लोक में बताते हैं – स्वामी रामसुखदास जी
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