GunTrayVibhagYog ~ Bhagwat Geeta Chapter 14 | गुणत्रयविभागयोग ~ अध्याय चौदह

अथ चतुर्दशोऽध्यायः- गुणत्रयविभागयोग

 

05 – 18 सत्‌, रज, तम- तीनों गुणों का विषय

 

 

The Bhagavad Gita chapter 14अप्रकाशोऽप्रवृत्तिश्च प्रमादो मोह एव च।

तमस्येतानि जायन्ते विवृद्धे कुरुनन्दन।।14.13।।

 

अप्रकाश:-अँधेरा; अप्रवृत्तिः-जड़ताएँ; च-तथा; प्रमादः-असावधानी, लापरवाही , पागलपन , मस्तिष्क का वह रोग जिसमें मन और बुद्धि का संतुलन बिगड़ जाता है ;मोह:-मोह; एव-निस्संदेह; च-भी; तमसि-तमोगुण का; एतानि ये; जायन्ते प्रकट होते हैं; विवृद्ध-प्रधानता होने पर; कुरूनन्दन-कुरूपुत्र, अर्जुन।

 

हे कुरुवंशी अर्जुन! जब तमोगुण प्रबल होता है तब अज्ञान रूपी अन्धकार, कर्तव्य-कर्मों को न करने की प्रवृत्ति, पागलपन की अवस्था और मोह के कारण न करने योग्य कार्य करने की प्रवृत्ति बढने लगती हैं अर्थात तमोगुणके बढ़नेपर अज्ञान का अंधकार , कार्यों को न करने की प्रवृत्ति , लापरवाही , भ्रम और मोह ये वृत्तियाँ पैदा होती हैं।। 14.13

 

अप्रकाशः – सत्त्वगुण की प्रकाश (स्वच्छता) वृत्ति को दबाकर जब तमोगुण बढ़ जाता है तब इन्द्रियाँ और अन्तःकरण में स्वच्छता नहीं रहती। इन्द्रियाँ और अन्तःकरण में जो समझने की शक्ति है वह तमोगुण के बढ़ने पर लुप्त हो जाती है अर्थात् पहली बात तो याद रहती नहीं और नया विवेक पैदा होता नहीं। इस वृत्ति को यहाँ अप्रकाश कहकर इसका सत्त्वगुण की वृत्ति प्रकाश के साथ विरोध बताया गया है। अप्रवृत्तिः – रजोगुण की वृत्ति – प्रवृत्ति को दबाकर जब तमोगुण बढ़ जाता है तब कार्य करने का मन नहीं करता। निरर्थक बैठे रहने अथवा पड़े रहने का मन करता है। आवश्यक कार्य को करने की भी रुचि नहीं होती। यह सब अप्रवृत्ति वृत्ति का काम है। प्रमादः – न करने लायक काम में लग जाना और करने लायक काम को न करना तथा जिन कामों को करने से न पारमार्थिक उन्नति होती है , न सांसारिक उन्नति होती है , न समाज का कोई काम होता है और जो शरीर के लिये भी आवश्यक नहीं है – ऐसे बीड़ी-सिगरेट , ताश-चौपड़ , खेल-तमाशे आदि कार्यों में लग जाना प्रमाद वृत्ति का काम है। मोहः – तमोगुण के बढ़ने पर जब मोह वृत्ति आ जाती है तब भीतर में विवेकविरोधी भाव पैदा होने लगते हैं। क्रिया के करने और न करने में विवेक काम नहीं करता बल्कि मूढ़ता छायी रहती है जिससे पारमार्थिक और व्यावहारिक काम करने की सामर्थ्य नहीं रहती। ‘एव च’ – इन पदों से अधिक निद्रा लेना , अपने जीवन का समय निरर्थक नष्ट करना , धन निरर्थक नष्ट करना आदि जितने भी निरर्थक कार्य हैं , उन सबको ले लेना चाहिये। ‘तमस्येतानि जायन्ते विवृद्धे कुरुनन्दन’ – ये सब बढ़े हुए तमोगुण के लक्षण हैं अर्थात् जब ये अप्रकाश , अप्रवृत्ति आदि दिखायी दें तब समझना चाहिये कि सत्त्वगुण और रजोगुण को दबाकर तमोगुण बढ़ा है। सत्त्व , रज और तम – ये तीनों ही गुण सूक्ष्म होने से अतीन्द्रिय हैं अर्थात् इन्द्रियाँ और अन्तःकरण के विषय नहीं हैं। इसलिये ये तीनों गुण साक्षात दिखने में नहीं आते । इनके स्वरूप का साक्षात् ज्ञान नहीं होता। इन गुणों का ज्ञान , इनकी पहचान तो वृत्तियों से ही होती है क्योंकि वृत्तियाँ स्थूल होने से वे इन्द्रियाँ और अन्तःकरण का विषय हो जाती हैं। इसलिये भगवान ने 11वें , 12वें और 13वें श्लोक में क्रमशः तीनों गुणों की वृत्तियों का ही वर्णन किया है जिससे अतीन्द्रिय गुणों की पहचान हो जाय और साधक सावधानीपूर्वक रजोगुण-तमोगुण का त्याग करके सत्त्वगुण की वृद्धि कर सके। मार्मिक बात- सत्त्व , रज और तम – तीनों गुणों की वृत्तियाँ स्वाभाविक ही उत्पन्न , नष्ट तथा कम-अधिक होती रहती हैं। ये सभी परिवर्तनशील हैं। साधक अपने जीवनमें  इन वृत्तियों के परिवर्तन का अनुभव भी करता है। इससे सिद्ध होता है कि तीनों गुणों की वृत्तियाँ बदलने वाली हैं और इनके परिवर्तन को जानने वाले पुरुष में कभी कोई परिवर्तन नहीं होता। तीनों गुणों की वृत्तियाँ दृश्य हैं और पुरुष इनको देखने वाला होने से द्रष्टा है। द्रष्टा दृश्यसे सर्वथा भिन्न होता है – यह नियम है। दृश्य की तरफ दृष्टि होने से ही द्रष्टा संज्ञा होती है। दृश्य पर दृष्टि न रहने पर द्रष्टा संज्ञारहित रहता है। भूल यह होती है कि दृश्यको अपने में आरोपित करके वह मैं कामी हूँ , मैं क्रोधी हूँ आदि मान लेता है। कामक्रोधादि विकारों से सम्बन्ध जोड़कर उन्हें अपने में मान लेना उन विकारों को निमन्त्रण देना है और उन्हें स्थायी बनाना है। मनुष्य भूल से क्रोध आने के समय क्रोध को उचित समझता है और कहता है कि यह तो सभी को आता है और अन्य समय मेरा क्रोधी स्वभाव है – ऐसा भाव रखता है। इस प्रकार मैं क्रोधी हूँ ऐसा मान लेने से वह क्रोध अहंता में बैठ जाता है। फिर क्रोधरूप विकार से छूटना कठिन हो जाता है। यही कारण है कि साधक प्रयत्न करने पर भी क्रोधादि विकारों को दूर नहीं कर पाता और उनसे अपनी हार मान लेता है। कामक्रोधादि विकारों को दूर करने का मुख्य और सुगम उपाय यह है कि साधक इनको अपने में कभी माने ही नहीं। वास्तव में विकार निरन्तर नहीं रहते बल्कि  विकाररहित अवस्था निरन्तर रहती है। कारण कि विकार तो आते और चले जाते हैं पर स्वयं निरन्तर निर्विकार रहता है। क्रोधादि विकार भी अपने में नहीं बल्कि मन-बुद्धि में आते हैं परन्तु साधक मन-बुद्धि से मिलकर उन विकारों को भूल से अपने में मान लेता है। अगर वह विकारों को अपने में न माने तो उनसे माना हुआ सम्बन्ध मिट जाता है। फिर विकारों को दूर करना नहीं पड़ता बल्कि वे अपने आप दूर हो जाते हैं। जैसे क्रोध के आने पर साधक ऐसा विचार करे कि मैं तो वही हूँ । मैं आने-जाने वाले क्रोध से कभी मिल सकता ही नहीं। ऐसा विचार दृढ़ होने पर क्रोध का वेग कम हो जायगा और वह पहले की अपेक्षा कम बार आयेगा। फिर अन्त में वह सर्वथा दूर हो जायगा। भगवान पूर्वोक्त तीन श्लोकों में क्रमशः सत्त्वगुण , रजोगुण और तमोगुण की वृद्धि के लक्षणों का वर्णन करके साधक को सावधान करते हैं कि गुणों के साथ अपना सम्बन्ध मानने से ही गुणों में होने वाली वृत्तियाँ उसको अपने में प्रतीत होती हैं । वास्तव में साधक का इनके साथ किञ्चिन्मात्र भी सम्बन्ध नहीं है। गुण एवं गुणों की वृत्तियाँ प्रकृति का कार्य होने से परिवर्तनशील हैं और स्वयं पुरुष परमात्मा का अंश होने से अपरिवर्तनशील है। प्रकृति और पुरुष – दोनों विजातीय हैं। बदलने वाले के साथ न बदलने वाले का एकात्मभाव हो ही कैसे सकता है ? इस वास्तविकता की तरफ दृष्टि रखने से तमोगुण और रजोगुण दब जाते हैं तथा साधक में सत्त्वगुण की वृद्धि स्वतः हो जाती है। सत्त्वगुण में भोगबुद्धि होने से अर्थात् उससे होने वाले सुख में राग होने से यह सत्त्वगुण भी गुणातीत होने में बाधा उत्पन्न कर देता है। अतः साधक को सत्त्वगुण से उत्पन्न सुख का भी उपभोग नहीं करना चाहिये। सात्त्विक सुख का उपभोग करना रजोगुण अंश है। रजोगुण में राग बढ़ने पर राग में बाधा देने वाले के प्रति क्रोध पैदा होकर सम्मोह हो जाता है और राग के अनुसार पदार्थ मिलने पर लोभ पैदा होकर सम्मोह हो जाता है। इस प्रकार सम्मोह पैदा होने से वह रजोगुण से तमोगुण में चला जाता है और उसका पतन हो जाता है (गीता 2। 62 63)। तात्कालिक बढ़े हुए गुणों की वृत्तियों का फल क्या होता है ? इसे आगे के दो श्लोकों में बताते हैं – स्वामी रामसुखदास जी 

 

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