The Bhagavad Gita chapter 14

 

 

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GunTrayVibhagYog ~ Bhagwat Geeta Chapter 14 | गुणत्रयविभागयोग ~ अध्याय चौदह

अथ चतुर्दशोऽध्यायः- गुणत्रयविभागयोग

 

19-27 भगवत्प्राप्ति का उपाय और गुणातीत पुरुष के लक्षण

 

 

The Bhagavad Gita chapter 14समदुःखसुखः स्वस्थः समलोष्टाश्मकाञ्चनः।

तुल्यप्रियाप्रियो धीरस्तुल्यनिन्दात्मसंस्तुतिः।।14.24।।

 

सम-समान; दुःख-दुख; सुखः-तथा सुख में; स्व स्थ:-आत्मा में स्थित; सम-एक समान; लोष्ट-मिट्टी; अश्म-पत्थर; काञ्चनः-सोना; तुल्य-समान; प्रिय-सुखद; अप्रियः-दुखद; धीरः-दृढ़तुल्य-समान; निन्दा-बुराई; आत्म-संस्तुतिः-तथा अपनी प्रशंसा में;

 

 जो धीर मनुष्य सुख और दुख में समान भाव में तथा अपने आत्म-भाव या आत्म स्वरूप में स्थित रहता है; जो मिट्टी, पत्थर और स्वर्ण को एक समान समझता है; जिसके लिये न तो कोई प्रिय होता है और न ही कोई अप्रिय होता है तथा जो निन्दा और स्तुति में अपना धीरज नहीं खोता है अर्थात जो धीर मनुष्य सुख-दुःख में सम तथा अपने स्वरूप में स्थित रहता है; जो मिट्टी के ढेले, पत्थर और सोने में एक समान दृष्टि रखता है जो प्रिय-अप्रिय में तथा अपनी निन्दा-स्तुति में सम रहता है; वह मनुष्य गुणातीत कहा जाता है।।14.24।।

 

धीरः समदुःखसुखः’ – नित्य-अनित्य , सार-असार आदि के तत्त्व को जानकर स्वतःसिद्ध स्वरूप में स्थित होने से गुणातीत मनुष्य धैर्यवान कहलाता है। पूर्वकर्मों के अनुसार आने वाली अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति का नाम सुख-दुःख है अर्थात् प्रारब्ध के अनुसार शरीर , इन्द्रियों आदि के अनुकूल परिस्थिति को सुख कहते हैं और शरीर , इन्द्रियों आदि के प्रतिकूल परिस्थिति को दुःख कहते हैं। गुणातीत मनुष्य इन दोनों में सम रहता है। तात्पर्य है कि सुख दुःख रूप बाह्य परिस्थितियाँ उसके कहे जाने वाले अन्तःकरण में विकार पैदा नहीं कर सकतीं उसको सुखी-दुःखी नहीं कर सकतीं। स्वस्थः – स्वरूप में सुख-दुःख है ही नहीं। स्वरूप से तो सुख-दुःख प्रकाशित होते हैं। अतः गुणातीत मनुष्य आने जाने वाले सुख दुःख का भोक्ता नहीं बनता प्रत्युत अपने नित्य निरन्तर रहने वाले स्वरूप में स्थिर रहता है।समलोष्टाश्मकाञ्चनः – उसका मिट्टी के ढेले , पत्थर और स्वर्ण में न तो आकर्षण (राग) होता है और न विकर्षण (द्वेष) होता है परन्तु व्यवहार में वह ढेले को ढेले की जगह रखता है , पत्थर को पत्थर की जगह रखता है और स्वर्ण को स्वर्ण की जगह (तिजोरी आदि में) रखता है। तात्पर्य है कि यद्यपि उनकी प्राप्तिअप्राप्तिमें उसको हर्षशोक नहीं होते? वह सम रहता है? तथापि उनसे व्यवहार तो यथायोग्य ही करता है। ढेले, पत्थर और स्वर्ण का ज्ञान न होना समता नहीं कहलाती। समता वही है कि इन तीनों का ज्ञान होते हुए भी इनमें राग-द्वेष न हों। ज्ञान कभी दोषी नहीं होता , विकार ही दोषी होते हैं। तुल्यप्रियाप्रियः – क्रियमाण कर्मों की सिद्धि-असिद्धि में अर्थात् उनके तात्कालिक फल की प्राप्ति-अप्राप्ति में भी वह सम रहता है। तुल्यनिन्दात्मसंस्तुतिः – निन्दा और स्तुति में नाम की मुख्यता होती है। गुणातीत मनुष्य का नाम के साथ कोई सम्बन्ध नहीं रहता । अतः कोई निन्दा करे तो उसके चित्त में खिन्नता नहीं होती और कोई स्तुति करे तो उसके चित्त में प्रसन्नता नहीं होती। इसी प्रकार निन्दा करने वालों के प्रति उसका द्वेष नहीं होता और स्तुति करने वालों के प्रति उसका राग नहीं होता। साधारण मनुष्यों की यह एक आदत बन जाती है कि उनको अपनी निन्दा बुरी लगती है और स्तुति अच्छी लगती है परन्तु जो गुणों से ऊँचे उठ जाते हैं उनको निन्दा-स्तुति का ज्ञान तो होता है और वे बर्ताव भी सबके साथ यथोचित ही करते हैं पर उनमें निन्दा-स्तुति को लेकर खिन्नता-प्रसन्नता नहीं होती। कारण कि वे जिस तत्त्व में स्थित हैं वहाँ गुणों वाली परकृत निन्दा-स्तुति पहुँचती ही नहीं। निन्दा और स्तुति – ये दोनों ही परकृत क्रियाएँ हैं। उन क्रियाओं से राजी-नाराज होना गलती है। कारण कि जिसका जैसा स्वभाव है , जैसी धारणा है वह उसके अनुसार ही बोलता है। वह हमारे अनुकूल ही बोले , हमारी निन्दा न करे – यह न्याय नहीं है अर्थात् उसको बोलने में बाध्य करने का भाव न्याय नहीं है अन्याय है। दूसरों पर हमारा क्या अधिकार है कि तुम हमारी निन्दा मत करो , हमारी स्तुति ही करो । दूसरी बात – कोई निन्दा करता है तो उसमें साधक को प्रसन्न होना चाहिये कि इससे मेरे पाप कट रहे हैं , मैं शुद्ध हो रहा हूँ। अगर कोई हमारी प्रशंसा करता है तो उससे हमारे पुण्य नष्ट होते हैं। अतः प्रशंसा में राजी नहीं होना चाहिये क्योंकि राजी होने में खतरा है । मानापमानयोस्तुल्यः – मान और अपमान होने में शरीर की मुख्यता होती है। गुणातीत मनुष्य का शरीर के साथ तादात्म्य नहीं रहता। अतः कोई उसका आदर करे या निरादर करे, मान करे या अपमान करे । इन परकृत क्रियाओं का उस पर कोई असर नहीं पड़ता।निन्दा-स्तुति और मान-अपमान – इन दोनों ही परकृत क्रियाओं में गुणातीत मनुष्य सम रहता है। इन दोनों परकृत क्रियाओं का ज्ञान होना दोषी नहीं है प्रत्युत निन्दा और अपमान में दुःखी होना तथा स्तुति और मान में हर्षित होना दोषी है क्योंकि ये दोनों ही प्रकृति के विकार हैं। गुणातीत पुरुष को निन्दा-स्तुति और मान-अपमान का ज्ञान तो होता है पर गुणों से सम्बन्ध-विच्छेद होने से नाम और शरीर के साथ तादात्म्य न रहने से वह सुखी-दुःखी नहीं होता। कारण कि वह जिस तत्त्व में स्थित है । वहाँ ये विकार नहीं हैं। वह तत्त्व गुणरहित है , निर्विकार है। तुल्यो मित्रारिपक्षयोः – वह मित्र और शत्रु के पक्ष में सम रहता है। यद्यपि गुणातीत मनुष्य की दृष्टि में कोई मित्र और शत्रु नहीं होता तथापि दूसरे लोग अपनी भावना के अनुसार उसे अपना मित्र अथवा शत्रु भी मान सकते हैं। साधारण मनुष्य को भी दूसरे लोग अपनी भावना के अनुसार मित्र या शत्रु मान सकते हैं किन्तु इस बात का पता लगने पर उस मनुष्य पर इसका असर पड़ता है जिससे उसमें राग-द्वेष उत्पन्न हो सकते हैं परन्तु गुणातीत मनुष्य पर इस बात का पता लगने पर भी कोई असर नहीं पड़ता। वस्तुतः मित्र और शत्रु की भावना के कारण ही व्यवहार में पक्षपात होता है। गुणातीत मनुष्य के कहलाने वाले अन्तःकरण में मित्र-शत्रु की भावना ही नहीं होती। अतः उसके व्यवहार में पक्षपात नहीं होता। एक व्यक्ति उस महापुरुष के साथ मित्रता रखता है और दूसरा व्यक्ति अपने स्वभाववश उस महापुरुष के साथ शत्रुता रखता है। जब उन दोनों व्यक्तियों की किसी बात को लेकर न्याय करने का अवसर आ जाय तब (व्यवहार में) वह मित्रता रखने वाले की अपेक्षा शत्रुता रखने वाले का कुछ अधिक पक्ष लेता है। जैसे – पदार्थादि का बँटवारा करते समय वह मित्रता रखने वाले को कम (उतना ही जितना वह प्रसन्नतापूर्वक सहन कर सकता हो) और शत्रुता रखने वालों को कुछ ज्यादा पदार्थ देता है। यह भी समता ही कहलाती है क्योंकि अपने पक्षवालों के साथ न्याय और विपक्षवालों के साथ उदारता होनी चाहिये। सर्वारम्भपरित्यागी – वह महापुरुष सम्पूर्ण कर्मोंके आरम्भका त्यागी होता है। तात्पर्य है कि धनसम्पत्तिके संग्रह और भोगोंके लिये वह किसी तरहका कोई नया कर्म आरम्भ नहीं करता। स्वतः प्राप्त परिस्थिति के अनुसार ही उसकी प्रवृत्ति और निवृत्ति होती है अर्थात क्रियाओं में उसकी प्रवृत्ति , कामना , वासना , ममता से रहित होती है और निवृत्ति भी मान-बड़ाई आदि की इच्छा से रहित होती है। गुणातीतः स उच्यते – यहाँ ‘उच्यते’ पद से यही ध्वनि निकलती है कि उस महापुरुष की गुणातीत संज्ञा नहीं है किन्तु उसके कहे जाने वाले शरीर , अन्तःकरण के लक्षणों को लेकर ही उसको गुणातीत कहा जाता है। वास्तव में देखा जाय तो जो गुणातीत है उसके लक्षण नहीं हो सकते। लक्षण तो गुणों से ही होते हैं । अतः जिसके लक्षण होते हैं वह गुणातीत कैसे हो सकता है ? परन्तु अर्जुन ने भी गुणातीत के ही लक्षण पूछे हैं और भगवान ने भी गुणातीत के ही लक्षण कहे हैं। इसका तात्पर्य यह है कि लोग पहले उस गुणातीत की जिस शरीर और अन्तःकरण में स्थिति मानते थे उसी शरीर और अन्तःकरण के लक्षणों को लेकर वे उसमें आरोप करते हैं कि यह गुणातीत मनुष्य है। अतः ये लक्षण गुणातीत मनुष्य को पहचानने के संकेतमात्र हैं। प्रकृति के कार्य गुण हैं और गुणों के कार्य शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धि हैं। अतः मन-बुद्धि आदि के द्वारा अपने कारण गुणों का भी पूरा वर्णन नहीं हो सकता फिर गुणों के भी कारण प्रकृति का वर्णन हो ही कैसे सकता है ? जो प्रकृति से भी सर्वथा अतीत (गुणातीत) है उसका वर्णन करना तो उन मन-बुद्धि आदि के द्वारा सम्भव ही नहीं है। वास्तव में गुणातीत के ये लक्षण स्वरूप में तो होते ही नहीं किन्तु अन्तःकरण में मानी हुई अहंता-ममता के नष्ट हो जाने पर उसके कहे जाने वाले अन्तःकरण के माध्यम से ही ये लक्षण – गुणातीत के लक्षण कहे जाते हैं। यहाँ भगवान ने सुख-दुःख , प्रिय-अप्रिय , निन्दा-स्तुति और मान-अपमान – ये आठ परस्पर विरुद्ध नाम लिये हैं जिनमें साधारण आदमियों की तो विषमता हो ही जाती है , साधकों की भी कभी-कभी विषमता हो जाती है। ऐसे इन आठ कठिन स्थलों में जिसकी समता हो जाती है उसके लिये अन्य सभी अवस्थाओं में समता रखना सुगम हो जाता है। अतः यहाँ उन्हीं आठ कठिन स्थलों का नाम लेकर भगवान यह बताते हैं कि गुणातीत महापुरुष की इन आठों स्थलों में स्वतःस्वाभाविक समता होती है। गुणातीत मनुष्य की जो स्वतःसिद्ध निर्विकारता है , उसकी जो स्वाभाविक स्थिति है , उसमें अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियों के आने-जाने का कुछ भी फरक नहीं पड़ता। उसकी निर्विकारता , समता ज्यों की त्यों अटल रहती है। उसकी शान्ति कभी भङ्ग नहीं होती। [24वें और 25वें – इन दो श्लोकों में भगवान ने गुणातीत महापुरुष की समता का वर्णन किया है।] अर्जुन ने तीसरे प्रश्न के रूप में गुणातीत होने का उपाय पूछा था। उसका उत्तर भगवान आगे के श्लोक में देते हैं – स्वामी रामसुखदास जी 

 

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