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GunTrayVibhagYog ~ Bhagwat Geeta Chapter 14 | गुणत्रयविभागयोग ~ अध्याय चौदह
अथ चतुर्दशोऽध्यायः- गुणत्रयविभागयोग
05 – 18 सत्, रज, तम- तीनों गुणों का विषय
रजो रागात्मकं विद्धि तृष्णासङ्गसमुद्भवम्।
तन्निबध्नाति कौन्तेय कर्मसङ्गेन देहिनम्।।14.7।।
रजो-रजोगुण, आसक्ति का गुण; रागआत्मकम्-रजोगुण की प्रकृति; विद्धि-जानो; तृष्णा-इच्छा; संग -संगति से; समुद्भवम्-उत्पन्नतत्-वह; निबन्धनाति–बाँधता है; कौन्तेय-कुन्तीपुत्र, अर्जुन; कर्मसङ्गेन-सकाम कर्म की आसक्ति से; देहिनम्-देहधारी आत्मा को ।।
हे कुन्तीनन्दन ! तृष्णा और आसक्ति को पैदा करने वाले रजोगुण को तुम राग स्वरूप समझो। रजोगुण की प्रकृति मोह है। तू रजोगुण को कामनाओं और लोभ के कारण उत्पन्न हुआ समझ । यह सांसारिक आकांक्षाओं और आकर्षणों से उत्पन्न होता है। वह कर्मों की आसक्ति से शरीरधारी आत्मा को बाँधता है और आसक्ति के माध्यम से आत्मा को कर्म के प्रतिफलों में बांधता है। जिसके कारण शरीरधारी जीव सकाम-कर्मों (फल की आसक्ति) में बँध जाता है।।14.7।।
रजो रागात्म्कं विद्धि – यह रजोगुण रागस्वरूप है अर्थात् किसी वस्तु , व्यक्ति , परिस्थिति , घटना , क्रिया आदि में जो प्रियता पैदा होती है वह प्रियता रजोगुण का स्वरूप है। ‘रागात्मकम्’ कहने का तात्पर्य है कि जैसे स्वर्ण के आभूषण स्वर्णमय होते हैं । ऐसे ही रजोगुण रागमय है। पातञ्जलयोगदर्शन में क्रिया को रजोगुण का स्वरूप कहा गया है (टिप्पणी प0 717.1) परन्तु श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान (क्रियामात्र को गौणरूप से रजोगुण मानते हुए भी ) मुख्यतः राग को ही रजोगुण का स्वरूप मानते हैं (टिप्पणी प0 717.2)। इसीलिये ‘योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्ग त्यक्त्वा’ ( 2। 48) पदों में आसक्ति का त्याग करके कर्तव्यकर्मों को करने की आज्ञा दी गयी है। निष्कामभाव से किये गये कर्म मुक्त करने वाले होते हैं (3। 19)। इसी अध्याय के 22वें श्लोक में भगवान कहते हैं कि प्रवृत्ति अर्थात् क्रिया करने का भाव उत्पन्न होने पर भी गुणातीत पुरुष का उसमें राग नहीं होता। तात्पर्य यह हुआ कि गुणातीत पुरुष में भी रजोगुण के प्रभाव से प्रवृत्ति तो होती है पर वह रागपूर्वक नहीं होती। गुणातीत होने में सहायक होने पर भी सत्त्वगुण को सुख और ज्ञान की आसक्ति से बाँधने वाला कहा गया है। इससे सिद्ध होता है कि आसक्ति ही बन्धनकारक है , सत्त्वगुण स्वयं नहीं। अतः भगवान यहाँ राग को ही रजोगुण का मुख्य स्वरूप जानने के लिये कह रहे हैं। महासर्ग के आदि में परमात्मा का ‘बहु स्यां प्रजायेय’ – यह संकल्प होता है। यह संकल्प रजोगुणी है। इसको गीता ने कर्म नाम से कहा है (8। 3)। जिस प्रकार दही को बिलोने से मक्खन और छाछ अलग-अलग हो जाते हैं । ऐसे ही सृष्टिरचना के इस रजोगुणी संकल्प से प्रकृति में क्षोभ पैदा होता है जिससे सत्त्वगुणरूपी मक्खन और तमोगुणरूपी छाछ अलग-अलग हो जाती है। सत्त्वगुण से अन्तःकरण और ज्ञानेन्द्रियाँ , रजोगुण से प्राण और कर्मेन्द्रियाँ तथा तमोगुण से स्थूल पदार्थ , शरीर आदि का निर्माण होता है। तीनों गुणों से संसार के अन्य पदार्थों की उत्पत्ति होती है। इस प्रकार महासर्ग के आदि में भगवान का सृष्टिरचनारूप कर्म भी सर्वथा रागरहित होता है (गीता 4। 13)। ‘तृष्णासङ्गसमुद्भवम्’ – प्राप्त वस्तु , व्यक्ति , पदार्थ , परिस्थिति , घटना आदि बने रहें तथा वे और भी मिलते रहें – ऐसी ‘जिमि प्रतिलाभ लोभ अधिकाई ‘ की तरह तृष्णा पैदा हो जाती है। इस तृष्णा से फिर वस्तु आदि में आसक्ति पैदा हो जाती है। व्याकरण के अनुसार इस ‘तृष्णासङ्गसमुद्भवम्’ पद के दो अर्थ होते हैं – (1) जिससे तृष्णा और आसक्ति पैदा होती है (टिप्पणी प0 718.1) अर्थात् तृष्णा और आसक्ति को पैदा करने वाला और (2) जो तृष्णा और आसक्ति से पैदा होता है (टिप्पणी प0 718.2) अर्थात् तृष्णा और आसक्ति से पैदा होने वाला। जैसे बीज और वृक्ष अन्योन्य कारण हैं अर्थात् बीज से वृक्ष पैदा होता है और वृक्ष से फिर बहुत से बीज पैदा होते हैं , ऐसे ही रागस्वरूप रजोगुण से तृष्णा और आसक्ति बढ़ती है तथा तृष्णा और आसक्ति से रजोगुण बहुत बढ़ जाता है। तात्पर्य है कि ये दोनों ही एक-दूसरे को पुष्ट करने वाले हैं। अतः उपर्युक्त दोनों ही अर्थ ठीक हैं। ‘तन्निबध्नाति कौन्तेय कर्मसङ्गेन देहिनम्’ – रजोगुण कर्मों की आसक्ति से शरीरधारी को बाँधता है अर्थात् रजोगुण के बढ़ने पर ज्यों-ज्यों तृष्णा और आसक्ति बढ़ती है त्यों ही त्यों मनुष्य की कर्म करने की प्रवृत्ति बढ़ती है। कर्म करने की प्रवृत्ति बढ़ने से मनुष्य नये-नये कर्म करना शुरू कर देता है। फिर वह रात-दिन इस प्रवृत्ति में फँसा रहता है अर्थात् मनुष्य की मनोवृत्तियाँ रात-दिन नये-नये कर्म आरम्भ करने के चिन्तन में लगी रहती हैं। ऐसी अवस्था में उसको अपना कल्याण , उद्धार करने का अवसर ही प्राप्त नहीं होता। इस तरह रजोगुण कर्मों की सुखासक्ति से शरीरधारी को बाँध देता है अर्थात् जन्म-मरण में ले जाता है। अतः साधक को प्राप्त परिस्थिति के अनुसार निष्कामभाव से कर्तव्य कर्म तो कर देना चाहिये पर संग्रह और सुखभोग के लिये नये-नये कर्मों का आरम्भ नहीं करना चाहिये। ‘देहिनम्’ पद का तात्पर्य है कि देह से अपना सम्बन्ध मानने वाले देही को ही यह रजोगुण कर्मों की आसक्ति से बाँधता है। सकामभाव से कर्मों को करने में भी एक सुख होता है और कर्मों का अमुक फल भोगेंगे । इस फलासक्ति में भी एक सुख होता है। इस कर्म और फल की सुखासक्ति से मनुष्य बँध जाता है। कर्मों की सुखासक्ति से छूटने के लिये साधक यह विचार करे कि ये पदार्थ , व्यक्ति , परिस्थिति , घटना आदि कितने दिन हमारे साथ रहेंगे। कारण कि सब दृश्य प्रतिक्षण अदृश्यता में जा रहा है , जीवन प्रतिक्षण मृत्यु में जा रहा है , सर्ग प्रतिक्षण प्रलय में जा रहा है , महासर्ग प्रतिक्षण महाप्रलय में जा रहा है। आज दिन तक जो बाल्य , युवा आदि अवस्थाएँ चली गयीं वे फिर नहीं मिल सकतीं। जो समय चला गया? वह फिर नहीं मिल सकता। बड़ेबड़े राजामहाराजाओं और धनियोंकी अन्तिम दशाको याद करने से तथा बड़े-बड़े राजमहलों और मकानों के खण्डहरों को देखने से साधक को यह विचार आना चाहिये कि उनकी जो दशा हुई है वही दशा इस शरीर , धन-सम्पत्ति , मकान आदि की भी होगी परन्तु मैंने इनके प्रलोभन में पड़कर अपनी शक्ति , बुद्धि , समय को बरबाद कर दिया है। यह तो बड़ी भारी हानि हो गयी । ऐसे विचारों से साधक के अन्तःकरण में सात्त्विक वृत्तियाँ आयेंगी और वह कर्मसङ्ग से ऊँचा उठ जायगा। अगर मैं रात-दिन नये-नये कर्मों के करने में ही लगा रहूँगा तो मेरा मनुष्यजन्म निरर्थक चला जायगा और उन कर्मों की आसक्ति से मेरे को न जाने किन-किन योनियों में जाना पड़ेगा और कितनी बार जन्मना-मरना पड़ेगा इसलिये मुझे संग्रह और सुखभोग के लिये नये-नये कर्मों का आरम्भ नहीं करना है बल्कि प्राप्त परिस्थिति के अनुसार अनासक्त भाव से कर्तव्यकर्म करना है । ऐसे विचारों से भी साधक कर्मों की आसक्ति से ऊँचा उठ जाता है। तमोगुण का स्वरूप और उसके बाँधने का प्रकार क्या है ? इसको आगे के श्लोक में बताते हैं – स्वामी रामसुखदास जी
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