GunTrayVibhagYog ~ Bhagwat Geeta Chapter 14 | गुणत्रयविभागयोग ~ अध्याय चौदह

अथ चतुर्दशोऽध्यायः- गुणत्रयविभागयोग

 

05 – 18 सत्‌, रज, तम- तीनों गुणों का विषय

 

 

The Bhagavad Gita chapter 14रजसि प्रलयं गत्वा कर्मसङ्गिषु जायते।

तथा प्रलीनस्तमसि मूढयोनिषु जायते।।14.15।।

 

रजसि-रजोगुण में; प्रलयम्-मृत्यु को; गत्वा प्राप्त करके; कर्मसंगिषु  -सकाम कर्मियों के पास; जायते-जन्म लेता है तथा उसी प्रकार; प्रलीन:-मरकर; तमसि-तमोगुण में; मूढ-योनिषु-पशुयोनि में; जायते-जन्म लेता है

 

रजोगुण के बढ़ने पर मृत्यु को प्राप्त होने वाला प्राणी कर्मों में आसक्ति वाले मनुष्य योनि या मनुष्य लोक में जन्म लेता है तथा तमोगुण के बढ़ने पर मरने वाला मूढ़ योनियों में जन्म लेता है अर्थात रजोगुण की प्रबलता वाले या रजोगुण की बृद्धि होने पर मृत्यु को प्राप्त होने वाले मनुष्य सकाम कर्म करने वाले मनुष्यों या लोगों के बीच जन्म लेते हैं और तमोगुण की बुद्धि होने पर मृत्यु को प्राप्त मनुष्य पशु-पक्षियों आदि की निम्न योनियों या प्रजातियों में जन्म लेते है।।14.15।।

 

रजसि प्रलयं गत्वा कर्मसङ्गिषु जायते – अन्त समय में जिस किसी भी मनुष्य में जिस किसी कारण से रजोगुण की लोभ प्रवृत्ति , अशान्ति , स्पृहा आदि वृत्तियाँ बढ़ जाती हैं और उसी वृत्ति के चिन्तन में उसका शरीर छूट जाता है तो वह मृतात्मा प्राणी कर्मों में आसक्ति रखने वाले मनुष्यों में जन्म लेता है। जिसने उम्र भर अच्छे काम और आचरण किये हैं , जिसके अच्छे भाव रहे हैं वह यदि अन्तकाल में रजोगुण के बढ़ने पर मर जाता है तो मरने के बाद मनुष्ययोनि में जन्म लेने पर भी उसके आचरण और भाव अच्छे ही रहेंगे । वह शुभकर्म करने वाला ही होगा। जिसका साधारण जीवन रहा है वह यदि अन्त समय में रजोगुण की लोभ आदि वृत्तियों के बढ़ने पर मर जाता है तो वह मनुष्ययोनि में आकर पदार्थ , व्यक्ति , क्रिया आदि में आसक्ति वाला ही होगा। जिसके जीवन में काम , क्रोध आदिकी ही मुख्यता रही है वह यदि रजोगुण के बढ़ने पर मर जाता है तो वह मनुष्ययोनि में जन्म लेने पर भी विशेषरूप से आसुरी सम्पत्तिवाला ही होगा। तात्पर्य यह हुआ कि मनुष्यलोक में जन्म लेने पर भी गुणों के तारतम्य से मनुष्यों के तीन प्रकार हो जाते हैं अर्थात् तीन प्रकार के स्वभाव वाले मनुष्य हो जाते हैं परन्तु इसमें एक विशेष ध्यान देने की बात है कि रजोगुण की वृद्धि पर मरकर मनुष्य बनने वाले प्राणी कैसे ही आचरणों वाले क्यों न हों? उन सबमें भगवत्प्रदत्त विवेक रहता ही है। अतः प्रत्येक मनुष्य इस विवेक को महत्त्व देकर सत्सङ्ग , स्वाध्याय आदि से इस विवेक को स्वच्छ करके ऊँचे उठ सकते हैं , परमात्मा को प्राप्त कर सकते हैं। इस भगवत्प्रदत्त विवेक के कारण सब के सब मनुष्य भगवत्प्राप्ति के अधिकारी हो जाते हैं। ‘तथा प्रलीनस्तमसि मूढयोनिषु जायते’ – अन्तकाल में जिस किसी भी मनुष्य में , जिस किसी कारण से तात्कालिक तमोगुण बढ़ जाता है अर्थात् तमोगुण की प्रमाद , मोह , अप्रकाश आदि वृत्तियाँ बढ़ जाती हैं और उन वृत्तियों का चिन्तन करते हुए ही वह मरता है तो वह मनुष्य पशु , पक्षी , कीट , पतंग , वृक्ष , लता आदि मूढ़योनियों में जन्म लेता है। इन मूढ़योनियों में मूढ़ता तो सब में रहती है पर वह न्यूनाधिक रूप से रहती है जैसे – वृक्ष , लता आदि योनियों में जितनी अधिक मूढ़ता होती है , उतनी मूढ़ता पशु , पक्षी आदि योनियों में नहीं होती। अच्छे काम करने वाला मनुष्य यदि अन्त समय में तमोगुण की तात्कालिक वृत्ति के बढ़ने पर मर कर मूढ़योनियों में भी चला जाय तो वहाँ भी उसके गुण , आचरण अच्छे ही होंगे । उसका स्वभाव अच्छे काम करने का ही होगा। जैसे – भरत मुनि का अन्तसमय में तमोगुण की वृत्ति में अर्थात् हरिण के चिन्तन में शरीर छूटा तो वे मूढ़योनि वाले हरिण बन गये परन्तु उनका मनुष्यजन्म में किया हुआ त्याग , तप हरिण के जन्म में भी वैसा ही बना रहा। वे हरिणयोनि में भी अपनी माता के साथ नहीं रहे , हरे पत्ते न खाकर सूखे पत्ते ही खाते रहे आदि। ऐसी सावधानी मनुष्यों में भी बहुत कम होती है जो कि भरत मुनि की हरिणजन्म में थी। अन्तकाल में गुणों के तात्कालिक बढ़ने पर मरने वाले मनुष्यों की ऐसी गतियाँ क्यों होती हैं ? इसे आगे के श्लोक में बताते हैं – स्वामी रामसुखदास जी 

 

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