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अथ चतुर्दशोऽध्यायः- गुणत्रयविभागयोग
01 – 04 ज्ञान की महिमा और प्रकृति-पुरुष से जगत् की उत्पत्ति
मम योनिर्महद्ब्रह्म तस्मिन् गर्भं दधाम्यहम्।
संभवः सर्वभूतानां ततो भवति भारत।।14.3।।
मम–मेरा; योनि:-गर्भ ; महत् ब्रह्म-पूर्ण भौतिक सार ; तस्मिन्-उसमें; गर्भम्-गर्भ; दधामि-उत्पक करता हूँ; अहम्–मैं; सम्भवः-जन्म; सर्वभूतानाम्-समस्त जीवों का; ततः-तत्पश्चात; भवति–होना; भारत–भरतपुत्र, अर्जुन
हे भरतवंशी ! मेरी यह आठ तत्वों वाली महद ब्रह्म रूप जड़ प्रकृति (जल, अग्नि, वायु, पृथ्वी, आकाश, मन, बुद्धि और अहंकार) ही समस्त वस्तुओं को उत्पन्न करने वाली योनि ( गर्भ ) है और मैं ही ब्रह्म अर्थात आत्मा रूप में चेतन-रूपी बीज या गर्भ को स्थापित करता हूँ । इस जड़-चेतन के संयोग से ही सभी चर-अचर प्राणियों का जन्म होता है।। 14.3 ।।
(यह प्रकृति ही गर्भ या जीवों की उत्पत्ति का स्थान है । इसमें परमेश्वर जीव रूप गर्भ का स्थापन करते है अर्थात इसे जीवात्मा के साथ गर्भस्थ करते हैं और इस प्रकार समस्त जीवों का जन्म होता है ।)
मम योनिर्महद्ब्रह्म – यहाँ मूल प्रकृति को ‘महद्ब्रह्म’ नाम से कहा गया है । इसके कई कारण हो सकते हैं जैसे – (1) परमात्मा छोटेपन और बड़ेपन से रहित हैं । अतः वे सूक्ष्म से सूक्ष्म भी हैं और महान से महान भी हैं – अणोरणीयान्महतो महीयान् (श्वेताश्वतरोपनिषद् 3। 20) परन्तु संसार की दृष्टि से सबसे बड़ी चीज मूल प्रकृति ही है अर्थात् संसार में सबसे बड़ा व्यापक तत्त्व मूल प्रकृति ही है। परमात्मा के सिवाय संसार में इससे बढ़कर कोई व्यापक तत्त्व नहीं है। इसलिये इस मूल प्रकृति को यहाँ ‘महद्ब्रह्म’ कहा गया है। (2) ‘महत्’ (महत्तत्त्व अर्थात् समष्टि बुद्धि) और ‘ब्रह्म’ (परमात्मा) के बीच में होने से मूल प्रकृति को ‘महद्ब्रह्म’ कहा गया है।(3) पीछे के (दूसरे) श्लोक में ‘सर्गेऽपि नोपजायन्ते प्रलये न व्यथन्ति च’ पदों में आये ‘सर्ग’ और ‘प्रलय’ शब्दों का अर्थ क्रमशः ब्रह्मा का दिन और ब्रह्मा की रात माना जा सकता है। अतः उनका अर्थ ‘महासर्ग’ (ब्रह्माका प्रकट होना) और ‘महाप्रलय’ (ब्रह्माका लीन होना) सिद्ध करने के लिये यहाँ ‘महद्ब्रह्म’ शब्द दिया है। तात्पर्य है कि जीवन्मुक्त महापुरुषों का इस मूल प्रकृति से ही सम्बन्धविच्छेद हो जाता है इसलिये वे महासर्ग में भी पैदा नहीं होते और महाप्रलय में भी व्यथित नहीं होते। सबका उत्पत्तिस्थान होने से इस मूल प्रकृति को योनि कहा गया है। इसी मूल प्रकृति से अनन्त ब्रह्माण्ड पैदा होते हैं और इसी में लीन होते हैं। इस मूल प्रकृति से ही सांसारिक अनन्त शक्तियाँ पैदा होती हैं। इस मूल प्रकृति के लिये ‘मम’ पद का प्रयोग करके भगवान कहते हैं कि यह प्रकृति मेरी है। अतः इस पर आधिपत्य भी मेरा ही है। मेरी इच्छा के बिना यह प्रकृति अपनी तरफ से कुछ भी नहीं कर सकती। यह जो कुछ भी करती है वह सब मेरी अध्यक्षता में ही करती है (गीता 9। 10)। मैं मूल प्रकृति (महद्ब्रह्म) से भी श्रेष्ठ साक्षात् परब्रह्म परमात्मा हूँ – इसको बताने के लिये भगवान ने ‘मम महद्ब्रह्म’ पदों का प्रयोग किया है। महद् ब्रह्म से भी श्रेष्ठ परब्रह्म परमात्मा का अंश होते हुए भी जीव परमात्मा से विमुख होकर प्रकृति के साथ सम्बन्ध जोड़ लेता है। इतना ही नहीं वह प्रकृति के कार्य तीनों गुणों से सम्बन्ध जोड़ लेता है और उससे भी नीचे गिरकर गुणों के भी कार्य शरीर आदि से सम्बन्ध जोड़ लेता है और बँध जाता है। अतः भगवान ‘मम महद्ब्रह्म’ पदों से कहते हैं कि जीव का सम्बन्ध वास्तव में मूल प्रकृति से भी श्रेष्ठ मुझ परमात्मा के साथ है – ‘मम एव अंशः’ (गीता 15। 7) इसलिये प्रकृति के साथ सम्बन्ध मानकर उसको अपना पतन नहीं करना चाहिये। ‘तस्मिन्गर्भं दधाम्यहम्’ – यहाँ ‘गर्भम्’ पद कर्मसंस्कारों सहित जीवसमुदाय का वाचक है। भगवान कोई नया गर्भ स्थापन नहीं करते। अनादिकाल से जो जीव जन्म-मरण के प्रवाह में पड़े हुए हैं वे महाप्रलय के समय अपने-अपने कर्मसंस्कारों सहित प्रकृति में लीन हो जाते हैं (गीता 9। 7)। प्रकृति में लीन हुए जीवों के कर्म जब परिपक्व होकर फल देने के लिये उन्मुख हो जाते हैं तब महासर्ग के आदि में भगवान उन जीवों का प्रकृति के साथ पुनः विशेष सम्बन्ध (जो कि कारणशरीररूप से पहले से ही था) स्थापित करा देते हैं – यही भगवान के द्वारा जीवसमुदायरूप गर्भ को प्रकृतिरूप योनि में स्थापन करना है। ‘सम्भवः सर्वभूतानां ततो भवति भारत’ – भगवान के द्वारा प्रकृति में गर्भस्थापन करने के बाद सम्पूर्ण प्राणियों की उत्पत्ति होती है अर्थात् वे प्राणी सूक्ष्म और स्थूल शरीर धारण करके पुनर्जन्म प्राप्त करते हैं। महासर्गके आदि में प्राणियों का यह उत्पन्न होना ही भगवान का विसर्ग (त्याग) है , आदिकर्म है (गीता 8। 3)। [जीव जब तक मुक्त नहीं होता तब तक प्रकृति के अंश कारणशरीर से उसका सम्बन्ध बना रहता है और वह महाप्रलय में कारणशरीरसहित ही प्रकृति में लीन होता है।] पूर्वश्लोक में समष्टि संसार की उत्पत्ति की बात बतायी । अब आगे के श्लोक में व्यष्टि शरीरों की उत्पत्ति का वर्णन करते हैं – स्वामी रामसुखदास जी
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