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GunTrayVibhagYog ~ Bhagwat Geeta Chapter 14 | गुणत्रयविभागयोग ~ अध्याय चौदह
अथ चतुर्दशोऽध्यायः- गुणत्रयविभागयोग
05 – 18 सत्, रज, तम- तीनों गुणों का विषय
रजस्तमश्चाभिभूय सत्त्वं भवति भारत।
रजः सत्त्वं तमश्चैव तमः सत्त्वं रजस्तथा।।14.10।।
रजः-रजोगुण; तमः-अज्ञानता का गुण; च-भी; अभिभूय-पार करके; सत्त्वम् – सत्वगुण; भवति- बनता है; भारत-भरतपुत्र, अर्जुन; रजः-आसक्ति का गुण; सत्त्वम्-सत्वगुण; तमः-तमोगुण; च-भी; एव-उसी प्रकार से; तमः-तमोगुण; सत्त्वम्-सत्वगुण को; रजः-रजोगुण; तथा- इस प्रकार
हे भरतवंशी अर्जुन! रजोगुण और तमोगुण को दबा कर या उन के घटने पर सतोगुण की वृद्धि होती है, सतोगुण और रजोगुण के घटने पर तमोगुण बढ़ता है, इसी प्रकार तमोगुण और सतोगुण के घटने पर रजोगुण बढ़ता है अर्थात कभी-कभी सत्वगुण और रजोगुण तमोगुण को परास्त करते हैं और कभी-कभी रजोगुण और सत्व गुण तमोगुण पर हावी हो जाते हैं और कभी-कभी तमोगुण , सत्व गुण और रजोगुण पर हावी हो जाता है।।14.10।।
रजस्तमश्चाभिभूय सत्त्वं भवति भारत – रजोगुण की और तमोगुण की वृत्तियों को दबाकर सत्त्वगुण बढ़ता है अर्थात् रजोगुण की लोभ , प्रवृत्ति , नये-नये कर्मों का आरम्भ ,अशान्ति , स्पृहा , सांसारिक भोग और संग्रह में प्रियता आदि वृत्तियाँ और तमोगुण की प्रमाद , आलस्य , अनावश्यक निद्रा , मूढ़ता आदि वृत्तियाँ – इन सबको सत्त्वगुण दबा देता है और अन्तःकरण में स्वच्छता , निर्मलता , वैराग्य , निःस्पृहता , उदारता , निवृत्ति आदि वृत्तियों को उत्पन्न कर देता है। ‘रजः सत्त्वं तमश्चैव ‘ – सत्त्वगुण की और तमोगुण की वृत्तियों को दबाकर रजोगुण बढ़ता है अर्थात् सत्त्वगुण की ज्ञान , प्रकाश , वैराग्य , उदारता आदि वृत्तियाँ और तमोगुण की प्रमाद , आलस्य , अनावश्यक , निद्रा , मूढ़ता आदि वृत्तियाँ – इन सबको रजोगुण दबा देता है और अन्तःकरण में लोभ , प्रवृत्ति , आरम्भ , अशान्ति , स्पृहा आदि वृत्तियों को उत्पन्न कर देता है। ‘तमः सत्त्वं रजस्तथा ‘ – वैसे ही सत्त्वगुण और रजोगुण को दबाकर तमोगुण बढ़ता है अर्थात् सत्त्वगुण की स्वच्छता , निर्मलता , प्रकाश , उदारता आदि वृत्तियाँ और रजोगुण की चञ्चलता , अशान्ति , लोभ आदि वृत्तियाँ – इन सबको तमोगुण दबा देता है और अन्तःकरण में प्रमाद , आलस्य , अतिनिद्रा , मूढ़ता आदि वृत्तियों को उत्पन्न कर देता है। दो गुणों को दबाकर एक गुण बढ़ता है , बढ़ा हुआ गुण मनुष्य पर विजय करता है और विजय करके मनुष्य को बाँध देता है परन्तु भगवान ने यहाँ (छठे से दसवें श्लोक तक ) उलटा क्रम दिया है अर्थात् पहले बाँधने की बात कही फिर विजय करना कहा और फिर दो गुणों को दबा कर एक का बढ़ना कहा। ऐसे क्रम देने का तात्पर्य है – पहले भगवान ने दूसरे श्लोक में बताया कि जिन महापुरुषों का प्रकृतिसे सम्बन्ध-विच्छेद हो चुका है । वे महासर्ग में भी उत्पन्न नहीं होते और महाप्रलय में भी व्यथित नहीं होते। कारण कि महासर्ग और महाप्रलय दोनों प्रकृति के सम्बन्ध से ही होते हैं परन्तु जो मनुष्य प्रकृति के साथ सम्बन्ध जो़ड़ लेते हैं उनको प्रकृतिजन्य गुण बाँध देते हैं (14। 5)। इस पर स्वाभाविक ही यह प्रश्न होता है कि उन गुणों का स्वरूप क्या है ? और वे मनुष्य को किस प्रकार बाँध देते हैं इसके उत्तर में भगवान ने छठे से आठवें श्लोक तक क्रमशः सत्त्व , रज और तम – तीनों गुणों का स्वरूप और उनके द्वारा जीव को बाँधे जाने का प्रकार बताया। इस पर प्रश्न होता है कि बाँधने से पहले तीनों गुण क्या करते हैं ? इसके उत्तर में भगवान ने बताया कि बाँधने से पहले बढ़ा हुआ गुण मनुष्य पर विजय करता है , तब उसको बाँधता है (14। 9)। अब प्रश्न होता है कि गुण मनुष्य पर विजय कैसे करता है ? इसके उत्तर में भगवान ने कहा कि दो गुणों को दबाकर एक गुण मनुष्य पर विजय करता है (14। 10)। इस प्रकार विचार करने से मालूम होता है कि भगवान ने छठे से दसवें श्लोक तक जो क्रम रखा है वह ठीक ही है। जब दो गुणों को दबाकर एक गुण बढ़ता है तब उस बढ़े हुए गुण के क्या लक्षण होते हैं ? इसको बताने के लिये पहले बढ़े हुए सत्त्वगुण के लक्षणों का वर्णन करते हैं – स्वामी रामसुखदास जी