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GunTrayVibhagYog ~ Bhagwat Geeta Chapter 14 | गुणत्रयविभागयोग ~ अध्याय चौदह
अथ चतुर्दशोऽध्यायः- गुणत्रयविभागयोग
05 – 18 सत्, रज, तम- तीनों गुणों का विषय
सर्वद्वारेषु देहेऽस्मिन्प्रकाश उपजायते।
ज्ञानं यदा तदा विद्याद्विवृद्धं सत्त्वमित्युत।।14.11।।
सर्व-सभी में; द्वारेषु-द्वारो द्वारा; देह-शरीर अस्मिन्-इसमें; प्रकाश:-प्रकाश; उपजायते-प्रकट होता है; ज्ञानम्-ज्ञान; यदा-जब; तदा-उस सम; विद्यात्-जानो; विदृद्धम्-प्रधानता; सत्त्वम्-सत्वगुणः इति इस प्रकार से; उत-निश्चित रूप से;
जब इस मनुष्य शरीर में सब द्वारों ( इन्द्रियों और अन्तःकरण ) में प्रकाश (स्वच्छता) और ज्ञान (विवेक) प्रकट हो जाता है, तब जानना चाहिये कि सत्त्वगुण बढ़ा हुआ है अर्थात जिस समय इस के शरीर सभी नौ द्वारों (दो आँखे, दो कान, दो नथुने, मुख, गुदा और उपस्थ) अर्थात् समस्त इन्द्रियों में ज्ञान रूप प्रकाश उत्पन्न होता है, उस समय सतोगुण विशेष बृद्धि को प्राप्त होता है। कहने का तात्पर्य है कि जब शरीर के सभी द्वार ज्ञान से आलोकित हो जाते हैं तब सत्त्वगुण को बढ़ा हुआ जानो।।14.11।।
सर्वद्वारेषु देहेऽस्मिन् ৷৷. ज्ञानं यदा – जिस समय रजोगुणी और तमोगुणी वृत्तियों को दबाकर सत्त्वगुण बढ़ता है उस समय सम्पूर्ण इन्द्रियों में तथा अन्तःकरण में स्वच्छता , निर्मलता प्रकट हो जाती है। जैसे सूर्य के प्रकाश में सब वस्तुएँ साफ-साफ दिखती हैं । ऐसे ही स्वच्छ बहिःकरण और अन्तःकरण से शब्दादि पाँचों विषयों का यथार्थरूप से ज्ञान होता है। मन से किसी भी विषय का ठीक-ठीक मनन-चिन्तन होता है। इन्द्रियों और अन्तःकरण में स्वच्छता , निर्मलता होने से सत् क्या है और असत् क्या है , कर्तव्य क्या है और अकर्तव्य क्या है ? लाभ किसमें है और हानि किसमें है , हित किसमें है और अहित किसमें है ? आदि बातों का स्पष्टतया ज्ञान (विवेक) हो जाता है। यहाँ ‘देहेऽस्मिन्’ कहने का तात्पर्य है कि सत्त्वगुण के बढ़ने का अर्थात् बहिःकरण और अन्तःकरण में स्वच्छता , निर्मलता और विवेकशक्ति प्रकट होने का अवसर इस मनुष्यशरीर में ही है , अन्य शरीरों में नहीं। भगवान ने तमोगुण से बँधने वालों के लिये ‘सर्वदेहिनाम्’ (14। 8) पद का प्रयोग किया है । जिसका तात्पर्य है कि रजोगुण-तमोगुण तो अन्य शरीरों में भी बढ़ते हैं? पर सत्त्वगुण मनुष्यशरीर में ही बढ़ सकता है। अतः मनुष्य को चाहिये कि वह रजोगुण और तमोगुणपर विजय प्राप्त करके सत्त्वगुण से भी ऊँचा उठे। इसी में मनुष्यजीवन की सफलता है। भगवान ने कृपापूर्वक मनुष्यशरीर देकर इन तीनों गुणों पर विजय प्राप्त करने का पूरा अवसर , अधिकार , योग्यता , सामर्थ्य , स्वतन्त्रता दी है। ‘तदा विद्याद् विवृद्धं सत्त्वमित्युत’ – इन्द्रियों और अन्तःकरण में स्वच्छता और विवेकशक्ति आने पर साधक को यह जानना चाहिये कि अभी सत्त्वगुण की वृत्तियाँ बढ़ी हुई हैं और रजोगुण-तमोगुण की वृत्तियाँ दबी हुई हैं। अतः साधक कभी भी अपने में यह अभिमान न करे कि मैं जानकार हो गया हूँ , ज्ञानी हो गया हूँ अर्थात् वह सत्त्वगुण के कार्य प्रकाश और ज्ञान को अपना गुण न माने बल्कि सत्त्वगुण का ही कार्य , लक्षण माने। यहाँ ‘इति विद्यात्’ पदों का तात्पर्य है कि तीनों गुणों की वृत्तियों का पैदा होना , बढ़ना और एक गुण की प्रधानता होने पर दूसरे दो गुणोंका दबना आदि-आदि परिवर्तन गुणों में ही होते हैं , स्वरूप में नहीं – इस बात को मनुष्यशरीर में ही ठीक तरह से समझा जा सकता है। परन्तु मनुष्य भगवान के दिये विवेक को महत्त्व न देकर गुणों के साथ सम्बन्ध जोड़ लेता है और अपने को सात्त्विक , राजस या तामस मानने लगता है। मनुष्य को चाहिये कि अपने को ऐसा न मानकर सर्वथा निर्विकार , अपरिवर्तनशील जाने। तीनों गुणों की वृत्तियाँ अलग-अलग बनती-बिगड़ती हैं – इसका सबको अनुभव है। स्वयं परिवर्तनरहित और इन सब वृत्तियों को देखने वाला है। यदि स्वयं भी बदलने वाला होता तो इन वृत्तियों के बनने-बिगड़ने को कौन देखता ? परिवर्तन को परिवर्तनरहित ही जान सकता है।जब सात्त्विक वृत्तियों के बढ़ने से इन्द्रियों और अन्तःकरण में स्वच्छता , निर्मलता आ जाती है और विवेक जाग्रत् हो जाता है तब संसार से राग हट जाता है और वैराग्य हो जाता है। अशान्ति मिट जाती है और शान्ति आ जाती है। लोभ मिट जाता है और उदारता आ जाती है। प्रवृत्ति निष्कामभावपूर्वक होने लगती है (गीता 18। 9)। भोग और संग्रह के लिये नये-नये कर्मों का आरम्भ नहीं होता। मन में पदार्थों , भोगों की आवश्यकता पैदा नहीं होती बल्कि निर्वाहमात्र की दृष्टि रहती है। हरेक विषय को समझने के लिये बुद्धि का विकास होता है। हरेक कार्य सावधानीपूर्वक और सुचारुरूप से होता है। कार्यों में भूल कम होती है। कभी भूल हो भी जाती है तो उसका सुधार होता है , लापरवाही नहीं होती। सत्असत् , कर्तव्य-अकर्तव्य का विवेक स्पष्टतया जाग्रत् रहता है। अतः जिस समय सात्त्विक वृत्तियाँ बढ़ी हों उस समय साधक को विशेषरूप से भजन-ध्यान आदि में लग जाना चाहिये। ऐसे समय में किये गये थोड़े से साधन से भी शीघ्र ही बहुत लाभ हो सकता है। बढ़े हुए रजोगुण के क्या लक्षण होते हैं ? इसको आगे के श्लोक में बताते हैं – स्वामी रामसुखदास जी