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GunTrayVibhagYog ~ Bhagwat Geeta Chapter 14 | गुणत्रयविभागयोग ~ अध्याय चौदह
अथ चतुर्दशोऽध्यायः- गुणत्रयविभागयोग
05 – 18 सत्, रज, तम- तीनों गुणों का विषय
तमस्त्वज्ञानजं विद्धि मोहनं सर्वदेहिनाम्।
प्रमादालस्यनिद्राभिस्तन्निबध्नाति भारत।।14.8।।
तमः-तमोगुण; तु–लेकिन; अज्ञानजम्-अज्ञान से उत्पन्न; विद्धि-जानो; मोहनम्-मोह; सर्वदेहिनाम्-सभी जीवों में प्रमाद असावधानी; आलस्य-आलस्य; निद्राभिः-नींद; तत्-वह; निबध्नाति–बाँधता है; भारत-भरतपुत्र, अर्जुन।
हे भरतवंशी अर्जुन ! सम्पूर्ण देहधारियों को मोहित करने वाले तमोगुण को तुम शरीर के प्रति मोह के कारण अज्ञान से उत्पन्न होने वाला समझो। जो समस्त देहधारियों (जीवों) को मोहित करने वाला है। वह प्रमाद (पागलपन में व्यर्थ के कार्य करने की प्रवृत्ति) , आलस्य (आज के कार्य को कल पर टालने की प्रवृत्ति) और निद्रा (अचेत अवस्था में न करने योग्य कार्य करने की प्रवृत्ति) के द्वारा देहधारियों या जीवों को बाँधता है।।14.8।।
तमस्त्वज्ञानजं विद्धि मोहनं सर्वदेहिनाम् – सत्त्वगुण और रजोगुण – इन दोनों से तमोगुण को अत्यन्त निकृष्ट बताने के लिये यहाँ ‘तु ‘ पद का प्रयोग हुआ है। यह तमोगुण अज्ञान से अर्थात् बेसमझी से , मूर्खता से पैदा होता है और सम्पूर्ण देहधारियों को मोहित कर देता है अर्थात् सत्असत् , कर्तव्य-अकर्तव्य का ज्ञान (विवेक) नहीं होने देता। इतना ही नहीं यह सांसारिक सुखभोग और संग्रह में भी नहीं लगने देता अर्थात् राजस सुख में भी नहीं जाने देता फिर सात्त्विक सुख की तो बात ही क्या है वास्तव में तमोगुण के द्वारा मोहित होने की बात केवल मनुष्यों के लिये ही है क्योंकि दूसरे प्राणी तो स्वाभाविक ही तमोगुण से मोहित हैं। फिर भी यहाँ ‘सर्वदेहिनाम्’ पद देने का तात्पर्य है कि जिन मनुष्यों में सत्असत् , कर्तव्य-अकर्तव्य का ज्ञान (विवेक) नहीं है । वे मनुष्य होते हुए भी चौरासी लाख योनियों वाले प्राणियों के समान ही हैं अर्थात् जैसे पशु-पक्षी आदि प्राणी खा-पी लेते हैं और सो जाते हैं । ऐसे ही वे मनुष्य भी हैं। प्रमादालस्यनिद्राभिस्तन्निबध्नाति भारत – यह तमोगुण प्रमाद , आलस्य और निद्रा के द्वारा सम्पूर्ण देहधारियों को बाँध देता है। प्रमाद दो तरह का होता है – (1) करने लायक काम को न करना अर्थात् जिस काम से अपना और दुनिया का अभी और परिणाम में हित होता है । ऐसे कर्तव्यकर्मों को प्रमाद के कारण न करना और (2) न करने लायक काम को करना अर्थात् जिस काम से अपना और दुनिया का अभी और परिणाम में अहित होता है ऐसे कर्मों को करना। न करने लायक काम भी दो तरह के होते हैं । 1 – व्यर्थ खर्च करना अर्थात् बीड़ी-सिगरेट , भाँग-गाँजा आदि पीने में और नाटक-सिनेमा , खेल आदि देखने में धन खर्च करना और 2 – व्यर्थ क्रिया करना अर्थात् ताश-चौपड़ खेलना , खेल-कूद करना , बिना किसी कारण के पशु-पक्षी आदि को कष्ट देना , तंग करना , बिना किसी स्वार्थ के छोटे-छोटे पेड़-पौधों को नष्ट कर देना आदि व्यर्थ क्रियाएँ करना। आलस्य भी दो प्रकार का होता है — (1) सोते रहना , निकम्मे बैठे रहना , आवश्यक काम न करना और ऐसा विचार रखना कि फिर कर लेंगे । अभी तो बैठे हैं – इस तरह का आलस्य मनुष्य को बाँधता है और (2) निद्रा के पहले शरीर भारी हो जाना , वृत्तियों का भारी हो जाना , समझने की शक्ति न रहना – इस तरह का आलस्य दोषी नहीं है क्योंकि यह आलस्य आता है , मनुष्य करता नहीं। निद्रा भी दो तरह की होती है — (1) आवश्यक निद्रा – जो निद्रा शरीर के स्वास्थ्य के लिये नियमित रूप से ली जाती है और जिससे शरीर में हलकापन आता है , वृत्तियाँ स्वच्छ होती हैं , बुद्धि को विश्राम मिलता है । ऐसी आवश्यक निद्रा त्याज्य और दोषी नहीं है। भगवान ने भी ऐसी नियमित निद्रा को दोषी नहीं माना है बल्कि योगसाधन में सहायक माना है – युक्तस्वप्नावबोधस्य (6। 17) और (2) अनावश्यक निद्रा – जो निद्रा निद्रा के लिये ली जाती है , जिससे बेहोशी ज्यादा आती है , नींद से उठने पर भी शरीर भारी रहता है , वृत्तियाँ भारी रहती हैं , पुरानी स्मृति नहीं होती । ऐसी अनावश्यक निद्रा त्याज्य और दोषी है। इस अनावश्यक निद्रा को भगवान ने भी त्याज्य बताया है – ‘न चाति स्वप्नशीलस्य’ (6। 16)। इस तरह तमोगुण प्रमाद , आलस्य और निद्रा के द्वारा मनुष्य को बाँध देता है अर्थात् उसकी सांसारिक और पारमार्थिक उन्नति नहीं होने देता। विशेष बात- सत्त्व , रज और तम – ये तीनों गुण मनुष्य को बाँधते हैं पर इन तीनों के बाँधने के प्रकार में फरक है। सत्त्वगुण और रजोगुण सङ्ग से बाँधते हैं अर्थात् सत्त्वगुण सुख और ज्ञान की आसक्ति से तथा रजोगुण कर्मों की आसक्ति से बाँधता है। अतः सत्त्वगुण में सुखसङ्ग और ज्ञानसङ्ग बताया तथा रजोगुण में कर्मसङ्ग बताया परन्तु तमोगुण में सङ्ग नहीं बताया क्योंकि तमोगुण मोहनात्मक है। इसमें किसी का सङ्ग करने की जरूरत नहीं पड़ती। यह तो स्वरूप से ही बाँधने वाला है। तात्पर्य यह हुआ कि सत्त्वगुण और रजोगुण तो सङ्ग (सुखासक्ति) से बाँधते हैं पर तमोगुण स्वरूप से ही बाँधने वाला है। अगर सुख की आसक्ति न हो और ज्ञान का अभिमान न हो तो सुख और ज्ञान बाँधने वाले नहीं होते बल्कि गुणातीत करने वाले होते हैं। ऐसे ही कर्म और कर्मफल में आसक्ति न हो तो वह कर्म परमात्मतत्त्व की प्राप्ति कराने वाला होता है (गीता 3। 19)। उपर्युक्त तीनों गुण प्रकृतिके कार्य हैं और जीव स्वयं प्रकृति और उसके कार्य गुणों से सर्वथा रहित है। गुणों के साथ सम्बन्ध जोड़ने के कारण ही वह स्वयं निर्लिप्त , गुणातीत होता हुआ भी गुणों के द्वारा बँध जाता है। अतः अपने वास्तविक स्वरूप का लक्ष्य रखने से ही साधक गुणोंके बन्धन से छूट सकता है। बाँधने से पहले तीनों गुण क्या करते हैं ? इसको आगे के श्लोक में बताते हैं – स्वामी रामसुखदास जी
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