The Bhagavad Gita chapter 14

 

 

Contents

Previous       Menu       Next 

GunTrayVibhagYog ~ Bhagwat Geeta Chapter 14 | गुणत्रयविभागयोग ~ अध्याय चौदह

अथ चतुर्दशोऽध्यायः- गुणत्रयविभागयोग

 

19-27 भगवत्प्राप्ति का उपाय और गुणातीत पुरुष के लक्षण

 

 

The Bhagavad Gita chapter 14श्री भगवानुवाच

प्रकाशं च प्रवृत्तिं च मोहमेव च पाण्डव।

न द्वेष्टि सम्प्रवृत्तानि न निवृत्तानि काङ्क्षति।।14.22।।

 

श्रीभगवान् उवाच-परम प्रभु ने कहा; प्रकाशम् – प्रकाश; च- तथा ; प्रवृत्तिम्-कार्य रूप; च-तथा; मोहम्-मोह; एव-भी; च-और; पाण्डव-पाण्डुपुत्र, अर्जुनः नद्वेष्टि-घृणा नहीं करता; सम्प्रवृत्तानि-जब प्रकट होते हैं; ननिवृत्तानि-न रुकने पर जब अप्रकट होते हैं; काङ्क्षति- आकांक्षा करना;

 

श्री भगवान ने कहा – जो मनुष्य ईश्वरीय ज्ञान रूपी प्रकाश (सतोगुण) तथा कर्म करने में आसक्ति (रजोगुण) और मोह रूपी अज्ञान (तमोगुण) के बढ़ने पर कभी भी उनसे घृणा नहीं करता है तथा इनका अभाव होने पर न ही उनकी इच्छा ही करता है अर्थात प्रकृति के इन तीनों गुणों से गुणातीत हुआ या इन तीनों गुणों को पार किया हुआ मनुष्य न तो प्रकाश ( सत्वगुण से उत्पन्न ) , न ही कर्म ( रजोगुण से उत्पन्न ) और न ही मोह ( तमोगुण से उत्पन्न ) की अधिकता होने पर इनसे घृणा करते हैं और न ही इनके अभाव में इनकी लालसा करते हैं।।14.22।।

 

प्रकाशं च – इन्द्रियों और अन्तःकरण की स्वच्छता , निर्मलता का नाम प्रकाश है। तात्पर्य है कि जिससे इन्द्रियों के द्वारा शब्दादि पाँचों विषयों का स्पष्टतया ज्ञान होता है , मन से मनन होता है और बुद्धि से निर्णय होता है ।  उसका नाम प्रकाश है। भगवान ने पहले (14। 11 में ) सत्त्वगुण की दो वृत्तियाँ बतायी थीं – प्रकाश और ज्ञान। उनमें से यहाँ केवल प्रकाशवृत्ति लेने का तात्पर्य है कि सत्त्वगुण में प्रकाशवृत्ति ही मुख्य है क्योंकि जब तक इन्द्रियाँ और अन्तःकरण में प्रकाश नहीं आता , स्वच्छता-निर्मलता नहीं आती तब तक ज्ञान (विवेक) जाग्रत् नहीं होता। प्रकाश के आने पर ही ज्ञान जाग्रत् होता है। अतः यहाँ ज्ञानवृत्ति को प्रकाश के ही अन्तर्गत ले लेना चाहिये।प्रवृत्तिं च – जब तक गुणों के साथ सम्बन्ध रहता है तब तक रजोगुण की लोभ , प्रवृत्ति , रागपूर्वक कर्मों का आरम्भ , अशान्ति और स्पृहा — ये वृत्तियाँ पैदा होती रहती हैं परन्तु जब मनुष्य गुणातीत हो जाता है तब रजोगुण के साथ तादात्म्य रखने वाली वृत्तियाँ तो पैदा हो ही नहीं सकतीं पर आसक्ति , कामना से रहित प्रवृत्ति (क्रियाशीलता) रहती है। यह प्रवृत्ति दोषी नहीं है। गुणातीत मनुष्य के द्वारा भी क्रियाएँ होती हैं। इसलिये भगवान ने यहाँ केवल प्रवृत्ति को ही लिया है। रजोगुण के दो रूप हैं – राग और क्रिया। इनमें से राग तो दुःखों का कारण है। यह राग गुणातीत में नहीं रहता परन्तु जब तक गुणातीत मनुष्य का दिखने वाला शरीर रहता है तब तक उसके द्वारा निष्कामभावपूर्वक स्वतः क्रियाएँ होती रहती हैं। इसी क्रियाशीलता को भगवान ने यहाँ प्रवृत्ति नाम से कहा है। मोहमेव च पाण्डव – मोह दो प्रकार का है – (1) नित्य-अनित्य , सत्असत्, कर्तव्य-अकर्तव्य का विवेक न होना और (2) व्यवहार में भूल होना। गुणातीत महापुरुष में पहले प्रकार का मोह (सत्असत् आदि का विवेक न होना) तो होता ही नहीं (गीता 4। 35)। परन्तु व्यवहार में भूल होना अर्थात् किसी के कहने से किसी निर्दोष व्यक्ति को दोषी मान लेना और दोषी व्यक्ति को निर्दोष मान लेना आदि तथा रस्सी में साँप दिख जाना , मृगतृष्णा में जल दिख जाना , सीपी और अभ्रक में चाँदी का भ्रम हो जाना आदि मोह तो गुणातीत मनुष्य में भी होता है। न द्वेष्टि संप्रवृत्तानि न निवृत्तानि काङ्क्षति – सत्त्वगुण का कार्य प्रकाश , रजोगुण का कार्य प्रवृत्ति और तमोगुण का कार्य मोह – इन तीनों के अच्छी तरह प्रवृत्त होने पर भी गुणातीत महापुरुष इनसे द्वेष नहीं करता और इनके निवृत्त होनेपर भी इनकी इच्छा नहीं करता। तात्पर्य है कि ऐसी वृत्तियाँ क्यों उत्पन्न हो रही हैं। इनमें से कोई सी भी वृत्ति न रहे – ऐसा द्वेष नहीं करता और ये वृत्तियाँ पुनः आ जायँ ये वृत्तियाँ बनी रहें – ऐसा राग नहीं करता। गुणातीत होने के कारण गुणों की वृत्तियों के आने-जाने से उसमें कुछ भी फरक नहीं पड़ता। वह इन वृत्तियों से स्वाभाविक ही निर्लिप्त रहता है। विशेष बात- एक तो वृत्तियों का होना होता है और एक वृत्तियों को करना (उनमें सम्बन्ध जोड़ना अर्थात् राग- द्वेष करना) होता है। होने और करने में बड़ा अन्तर है। होना समष्टिगत होता है और करना व्यक्तिगत होता है। संसार में जो होता है उसकी जिम्मेवारी हमारे पर नहीं होती। जो हम करते हैं उसी की जिम्मेवारी हमारे पर होती है। जिस समष्टि शक्ति से संसारमात्र का संचालन होता है उसी शक्ति से हमारे शरीर , इन्द्रियाँ , मन , बुद्धि (जो कि संसार के ही अंश हैं ) का भी संचालन होता है। जब संसार में होने वाली क्रियाओं के गुण-दोष हमें नहीं लगते तब शरीरादि में होने वाली क्रियाओं के गुण-दोष हमें लग ही कैसे सकते हैं ? परन्तु जब स्वतः होने वाली क्रियाओं मेंसे कुछ क्रियाओँ के साथ मनुष्य रागद्वेषपूर्वक अपना सम्बन्ध जोड़ लेता है अर्थात् उनका कर्ता बन जाता है तब उनका फल उसको ही भोगना पड़ता है। इसलिये अन्तःकरण में सत्त्व , रज और तम – इन तीनों गुणों से होने वाली अच्छी-बुरी वृत्तियों से साधक को राग-द्वेष नहीं करना चाहिये अर्थात् उनसे अपना सम्बन्ध नहीं जोड़ना चाहिये। वृत्तियाँ एक समान किसी की भी नहीं रहतीं। तीनों गुणों की वृत्तियाँ तो गुणातीत महापुरुष के अन्तःकरण में भी होती हैं पर उसका उन वृत्तियों से राग-द्वेष नहीं होता। वृत्तियाँ आपसे आप आती और चली जाती हैं। गुणातीत महापुरुष की दृष्टि उधर जाती ही नहीं क्योंकि उसकी दृष्टि में एक परमात्मतत्त्व के सिवाय और कुछ रहता ही नहीं।देखना और दिखना – दोनों में बड़ा फरक है। देखना करने के अन्तर्गत होता है और दिखना होने के अन्तर्गत होता है। दोष देखने में होता है , दिखने में नहीं। अतः साधक को यदि अन्तःकरण में खराब से खराब वृत्ति भी दिख जाय तो भी उसको घबराना नहीं चाहिये। अपने आप दिखने वाली (होने वाली) वृत्तियों से राग-द्वेष करना अर्थात् उनके अनुसार अपनी स्थिति मानना ही उनको देखना है। साधक से भूल यही होती है कि वह दिखने वाली वस्तु को देखने लग जाता है और फँस जाता है। भगवान् राम कहते हैं – सुनहु तात माया कृत गुन अरु दोष अनेक। गुन यह उभय न देखिअहिं देखिअ सो अबिबेक।। (मानस 7। 41) साधक को गहराई से विचार करना चाहिये कि वृत्तियाँ तो उत्पन्न और नष्ट होती रहती हैं पर स्वयं (अपना स्वरूप) सदा ज्यों का त्यों रहता है। वृत्तियों में होने वाले परिवर्तन को देखने वाला स्वरूप परिवर्तन रहित है। कारण कि परिवर्तनशील को परिवर्तनशील नहीं देख सकता प्रत्युत परिवर्तनरहित ही परिवर्तनशील को देख सकता है। इससे सिद्ध होता है कि स्वरूप वृत्तियोंसे अलग है। परिवर्तनशील गुणोंके साथ अपना सम्बन्ध मान लेनेसे ही गुणोंमें होने वाली वृत्तियाँ अपने में प्रतीत होती हैं। अतः साधक को आने-जाने वाली वृत्तियों के साथ मिलकर अपने वास्तविक स्वरूप से विचलित नहीं होना चाहिये। चाहे जैसे वृत्तियाँ आयें उनसे राजी-नाराज नहीं होना चाहिये उनके साथ अपनी एकता नहीं माननी चाहिये। सदा एकरस रहने वाले गुणों से सर्वथा निर्लिप्त , निर्विकार एवं अविनाशी अपने स्वरूप को न देखकर परिवर्तनशील , विकारी एवं विनाशी वृत्तियों को देखना साधक के लिये महान बाधक है – स्वामी रामसुखदास जी 

 

       Next 

 

 

By spiritual talks

Welcome to the spiritual platform to find your true self, to recognize your soul purpose, to discover your life path, to acquire your inner wisdom, to obtain your mental tranquility.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

error: Content is protected !!