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GunTrayVibhagYog ~ Bhagwat Geeta Chapter 14 | गुणत्रयविभागयोग ~ अध्याय चौदह
अथ चतुर्दशोऽध्यायः- गुणत्रयविभागयोग
19-27 भगवत्प्राप्ति का उपाय और गुणातीत पुरुष के लक्षण
उदासीनवदासीनो गुणैर्यो न विचाल्यते।
गुणा वर्तन्त इत्येव योऽवतिष्ठति नेङ्गते।।14.23।।
उदासीनवत्-तटस्थ; आसीनः-स्थित; गुणैः-प्राकृत शक्ति के गुणों द्वारा; य:-जो; न – कभी नहीं; विचाल्यते – विक्षुब्ध होना; गुणा:-प्राकृतिक गुण; वर्तन्ते-कर्म करना ; इत्येव -इस प्रकार जानते हुए; यः-जो; अवतिष्ठति-आत्म स्थित है; न – कभी नहीं; इङ्गते–विचलित;
जो उदासीन भाव में स्थित रहकर किसी भी गुण के आने-जाने से या गुणों के द्वारा विचलित नहीं होता है और गुणों को ही कार्य करते हुए जानकर एक ही भाव में स्थिर रहता है अर्थात केवल ” गुण ही क्रियाशील हैं ” या “गुण ही व्यवहार करते हैं” इस भाव से जो अपने स्वरूप में ही आत्म स्थित रहता है और स्वयं कोई भी चेष्टा नहीं करता या उस स्थिति से विचलित नहीं होता।।14.23।।
उदासीनवदासीनः – दो व्यक्ति परस्पर विवाद करते हों तो उन दोनों में से किसी एक का पक्ष लेने वाला पक्षपाती कहलाता है और दोनों का न्याय करने वाला मध्यस्थ कहलाता है परन्तु जो उन दोनों को देखता तो है पर न तो किसी का पक्ष लेता है और न किसी से कुछ कहता ही है वह उदासीन कहलाता है। ऐसे ही संसार और परमात्मा – दोनों को देखने से गुणातीत मनुष्य उदासीन की तरह दिखता है।वास्तव में देखा जाय तो संसार की स्वतन्त्र सत्ता है ही नहीं। सत्स्वरूप परमात्मा की सत्ता से ही संसार सत्ता वाला दिख रहा है। अतः जब गुणातीत मनुष्य की दृष्टि में संसार की सत्ता है ही नहीं केवल एक परमात्मा की सत्ता ही है तो फिर वह उदासीन किस से हो परन्तु जिनकी दृष्टि में संसार और परमात्मा की सत्ता है। ऐसे लोगों की दृष्टि में वह गुणातीत मनुष्य उदासीन की तरह दिखता है। गुणैर्यो न विचाल्यते – उसके कहलाने वाले अन्तःकरण में सत्त्व , रज और तम – इन गुणों की वृत्तियाँ तो आती हैं पर वह इनसे विचलित नहीं होता। तात्पर्य है कि जैसे अपने सिवाय दूसरों के अन्तःकरण में गुणों की वृत्तियाँ आने पर अपने में कुछ भी फरक नहीं पड़ता । ऐसे ही उसके कहलाने वाले अन्तःकरण में गुणों की वृत्तियाँ आने पर उसमें कुछ भी फरक नहीं पड़ता अर्थात् वह उन वृत्तियों के द्वारा विचलित नहीं किया जा सकता। कारण कि उसके कहे जाने वाले अन्तःकरण में अन्तःकरण सहित सम्पूर्ण संसार का अत्यन्त अभाव एवं परमात्मतत्त्व का भाव निरन्तर स्वतः स्वाभाविक जाग्रत् रहता है। गुणा वर्तन्त इत्येव योऽवतिष्ठति – गुण ही गुणों में बरत रहे हैं (गीता 3। 28) अर्थात् गुणों में ही सम्पूर्ण क्रियाएँ हो रही हैं – ऐसा समझकर वह अपने स्वरूप में निर्विकार रूप से स्थित रहता है। न इङ्गते – पहले ‘गुणा वर्तन्त इत्येव’ पदों से उसका गुणों के साथ सम्बन्ध का निषेध किया । अब ‘न ईङ्गते’ पदों से उसमें क्रियाओं का अभाव बताते हैं। तात्पर्य है कि गुणातीत पुरुष खुद कुछ भी चेष्टा नहीं करता। कारण कि अविनाशी शुद्ध स्वरूप में कभी कोई क्रिया होती ही नहीं। [22वें और 23वें – इन दो श्लोकों में भगवान ने गुणातीत महापुरुष की तटस्थता , निर्लिप्तता का वर्णन किया है।] सम्बन्ध – 21वें श्लोक में अर्जुन ने दूसरे प्रश्न के रूप में गुणातीत मनुष्य के आचरण पूछे थे। उसका उत्तर अब आगे के दो श्लोकों में देते हैं – स्वामी रामसुखदास जी