GunTrayVibhagYog ~ Bhagwat Geeta Chapter 14 | गुणत्रयविभागयोग ~ अध्याय चौदह

अथ चतुर्दशोऽध्यायः- गुणत्रयविभागयोग

 

05 – 18 सत्‌, रज, तम- तीनों गुणों का विषय

 

 

The Bhagavad Gita chapter 14लोभः प्रवृत्तिरारम्भः कर्मणामशमः स्पृहा।

रजस्येतानि जायन्ते विवृद्धे भरतर्षभ।।14.12।।

 

लोभ:-लोभ; प्रवृत्तिः-गतिविधि; आरम्भः-परिश्रम; कर्मणाम् – साकाम कर्म; अशम:- अशांति ; स्पृहा-इच्छा; रजसि-रजोगुण में; एतानि – ये सब; जायन्ते – विकसित; विवृद्धे–जब प्रधानता होती है; भरतर्षभ -भरतवंशियों में प्रमुख, अर्जुन;

 

 हे भरतवंशियों में श्रेष्ठ! जब रजोगुण प्रबल होता है तब लोभ, सांसारिक सुखों के लिए परिश्रम, अशांति , प्रवृत्ति (सामान्य चेष्टा) कर्मों का आरम्भ और उत्कंठा के लक्षण विकसित होते हैं अर्थात लोभ के उत्पन्न होने के कारण कार्यों को फल की इच्छा से करने की प्रवृत्ति और मन की चंचलता के कारण विषय-भोगों को भोगने की अनियन्त्रित इच्छा बढ़ने लगती है। 14.12

 

लोभः – निर्वाह की चीजें पास में होने पर भी उनको अधिक बढ़ाने की इच्छा का नाम लोभ है परन्तु उन चीजों के स्वाभाविक बढ़ने का नाम लोभ नहीं है। जैसे कोई खेती करता है और अनाज ज्यादा पैदा हो गया , व्यापार करता है और मुनाफा ज्यादा हो गया तो इस तरह पदार्थ , धन आदि के स्वाभाविक बढ़ने का नाम लोभ नहीं है और यह बढ़ना दोषी भी नहीं है। प्रवृत्तिः – कार्यमात्र में लग जाने का नाम प्रवृत्ति है परन्तु रागद्वेषरहित होकर कार्य में लग जाना दोषी नहीं है क्योंकि ऐसी प्रवृत्ति तो गुणातीत महापुरुष में भी होती है (गीता 14। 22)। रागपूर्वक अर्थात् सुख , आराम , धन आदि की इच्छा को लेकर क्रिया में प्रवृत्त हो जाना ही दोषी है। ‘आरम्भः कर्मणाम्’ – संसार में धनी और बड़ा कहलाने के लिये मान , आदर , प्रशंसा आदि पाने के लिये नये-नये कर्म करना , नये-नये व्यापार शुरू करना , नयी-नयी फैक्टरियाँ खोलना , नयी-नयी दूकानें खोलना आदि कर्मों का आरम्भ है। प्रवृत्ति और आरम्भ – इन दोनों में अन्तर है। परिस्थिति के आने पर किसी कार्य में प्रवृत्ति होती है और किसी कार्य से निवृत्ति होती है परन्तु भोग और संग्रह के उद्देश्य से नये-नये कर्मों को शुरू करना आरम्भ है। मनुष्यजन्म प्राप्त होने पर केवल परमात्मतत्त्व की प्राप्ति का ही उद्देश्य रहे , भोग और संग्रह का उद्देश्य बिलकुल न रहे – इसी दृष्टि से भक्तियोग और ज्ञानयोग में सर्वारम्भ परित्यागी (12। 16 14। 25) पद से सम्पूर्ण आरम्भों का त्याग करने के लिये कहा गया है। कर्मयोग में कर्मों के आरम्भ तो होते हैं पर वे सभी आरम्भ कामना और संकल्प से रहित होते हैं (गीता 4। 19)। कर्मयोग में ऐसे आरम्भ दोषी भी नहीं हैं क्योंकि कर्मयोग में कर्म करने का विधान है और बिना कर्म किये कर्मयोगी योग (समता) पर आरूढ़ नहीं हो सकता (6। 3)। अतः आसक्तिरहित होकर प्राप्त परिस्थिति के अनुसार कर्मों के आरम्भ किये जायँ तो वे आरम्भ आरम्भ नहीं हैं बल्कि प्रवृत्तिमात्र ही हैं क्योंकि उनसे कर्म करने का राग मिटता है। वे आरम्भ निवृत्ति देने वाले होने से दोषी नहीं हैं। अशमः – अन्तःकरण में अशान्ति , हलचल रहने का नाम अशम है। जैसी इच्छा करते हैं , वैसी चीजें (धन , सम्पत्ति , यश , प्रतिष्ठा आदि) जब नहीं मिलतीं तब अन्तःकरण में अशान्ति , हलचल होती है। कामना का त्याग करने पर यह अशान्ति नहीं रहती। स्पृहा – स्पृहा नाम परवाह का है जैसे – भूख लगने पर अन्न की , प्यास करने पर जल की , जाड़ा लगने पर कपड़े की परवाह , आवश्यकता होती है। वास्तव में भूख, प्यास और जाड़ा – इनका ज्ञान होना दोषी नहीं है बल्कि अन्न , जल आदि मिल जाय – ऐसी इच्छा करना ही दोषी है। साधक को इस इच्छा का त्याग करना चाहिये क्योंकि कोई भी वस्तु इच्छा के अधीन नहीं है। ‘रजस्येतानि जायन्ते विवृद्धे भरतर्षभ’ – जब भीतर में रजोगुण बढ़ता है तब उपर्युक्त लोभ , प्रवृत्ति आदि वृत्तियाँ बढ़ती हैं। ऐसे समय में साधक को यह विचार करना चाहिये कि अपना जीवननिर्वाह तो हो ही रहा है फिर अपने लिये और क्या चाहिये ? ऐसा विचार करके रजोगुण की वृत्तियों को मिटा दे । उनसे उदासीन हो जाय। बढ़े हुए तमोगुण के क्या लक्षण होते हैं ? इसको आगे के श्लोक में बताते हैं – स्वामी रामसुखदास जी 

 

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