The Bhagavad Gita chapter 14

 

 

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GunTrayVibhagYog ~ Bhagwat Geeta Chapter 14 | गुणत्रयविभागयोग ~ अध्याय चौदह

अथ चतुर्दशोऽध्यायः- गुणत्रयविभागयोग

 

19-27 भगवत्प्राप्ति का उपाय और गुणातीत पुरुष के लक्षण

 

 

The Bhagavad Gita chapter 14नान्यं गुणेभ्यः कर्तारं यदा द्रष्टानुपश्यति।

गुणेभ्यश्च परं वेत्ति मद्भावं सोऽधिगच्छति।।14.19।।

 

न-नहीं; अन्यम्-अन्य; गुणेभ्यः-गुणों के ; कर्तारम्-कर्म के कर्त्ता; यदा-जब; द्रष्टा – देखने वाला; अनुपश्यति-ठीक से देखता है; गुणेभ्यः-प्रकृति के गुणों से; च-तथा; परम्-दिव्य; वेत्ति-जानता है; मत्भावम् – मेरी दिव्य प्रकृति को; सः-वह; अधिगच्छति–प्राप्त करता है।

 

जब विवेकी (विचारकुशल) मनुष्य प्रकृति के तीनों गुणों के अतिरिक्त किसी अन्य को कर्ता नहीं देखता या नहीं समझता और स्वयं को गुणों से परे अनुभव करता है और स्वयं को केवल दृष्टा रूप से देखता है , तब वह मेरे स्वरूप को प्राप्त हो जाता है अर्थात जब बुद्धिमान व्यक्ति को यह ज्ञात हो जाता है कि सभी कार्यों में प्रकृति के तीनों गुणों के अलावा कोई कर्ता नहीं है और जो प्रकृति के तीनों गुणों से परे स्थित होकर मेरे तत्व को जानता है और मुझ परमात्मा को देखते हैं, वे मेरी दिव्य प्रकृति और मेरे दिव्य स्वभाव को प्राप्त करते हैं।।14.19।।

 

नान्यं गुणेभ्यः ৷৷. मद्भावं सोऽधिगच्छति – गुणों के सिवाय अन्य कोई कर्ता है ही नहीं अर्थात् सम्पूर्ण क्रियाएँ गुणों से ही हो रही हैं । सम्पूर्ण परिवर्तन गुणों में ही हो रहा है। तात्पर्य है कि सम्पूर्ण क्रियाओं और परिवर्तनों में गुण ही कारण हैं और कोई कारण नहीं है। वे गुण जिससे प्रकाशित होते हैं वह तत्त्व गुणों से पर है। गुणों से पर होने से वह कभी गुणों से लिप्त नहीं होता अर्थात् गुणों और क्रियाओं का उस पर कोई असर नहीं पड़ता। ऐसे उस तत्त्व को जो विचारकुशल साधक जान लेता है अर्थात् विवेक के द्वारा अपने आपको गुणों से पर ,असम्बद्ध , निर्लिप्त अनुभव कर लेता है कि गुणों के साथ अपना सम्बन्ध न कभी हुआ है , न है , न होगा और न हो ही सकता है। कारण कि गुण परिवर्तनशील हैं और स्वयं में कभी परिवर्तन होता ही नहीं। वह फिर मेरे भाव को , मेरे स्वरूप को प्राप्त हो जाता है। तात्पर्य है कि वह जो भूल से गुणों के साथ अपना सम्बन्ध मानता था वह मान्यता मिट जाती है और मेरे साथ उसका जो स्वतःसिद्ध सम्बन्ध है वह ज्यों का त्यों रह जाता है – स्वामी रामसुखदास जी 

 

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