The Bhagavad Gita chapter 14

 

 

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GunTrayVibhagYog ~ Bhagwat Geeta Chapter 14 | गुणत्रयविभागयोग ~ अध्याय चौदह

अथ चतुर्दशोऽध्यायः- गुणत्रयविभागयोग

 

19-27 भगवत्प्राप्ति का उपाय और गुणातीत पुरुष के लक्षण

 

 

The Bhagavad Gita chapter 14गुणानेतानतीत्य त्रीन्देही देहसमुद्भवान्।

जन्ममृत्युजरादुःखैर्विमुक्तोऽमृतमश्नुते।।14.20।।

 

गुणान्–प्रकृति के तीन गुण; एतान्–इन; अतीत्य-गुणातीत होना; त्रीन्–तीन; देही-देहधारी; देह-शरीर; समुद्धवान् – से उत्पन्न; जन्म-जन्म; मृत्यु-मृत्युः जरा-बुढ़ापे का; दुःखैः-दुखों से; विमुक्तः-से मुक्त; अमृतम्-दुराचार; अश्नुते–प्राप्त है।

 

 जब कोई देहधारी जीव इस शरीर की उत्पत्ति के कारण या इस देह को उत्पन्न करने वाले प्रकृति के इन तीनों गुणों को पार कर जाता है तब वह जन्म, मृत्यु, वृद्धावस्था तथा सभी प्रकार के दुखों और कष्टों से मुक्त होकर इसी जीवन में परम आनन्द स्वरूप अमृत का भोग करता है अर्थात जब कोई देहधारी इस शरीर से संबद्ध प्राकृतिक शक्ति के तीन गुणों से गुणातीत होकर या इनका अतिक्रमण कर के जन्म, मृत्यु, रोग, वृद्धावस्था और दुखों से मुक्त हो जाता है तथा अमरता प्राप्त कर लेता है।।14.20।।

 

गुणानेतानतीत्य त्रीन्देही देहसमुद्भवान् – यद्यपि विचारकुशल मनुष्य का देह के साथ सम्बन्ध नहीं होता तथापि लोगों की दृष्टि में देह वाला होने से उसको यहाँ ‘देही’ कहा गया है। देह को उत्पन्न करने वाले गुण ही हैं। जिस गुण के साथ मनुष्य अपना सम्बन्ध मान लेता है उसके अनुसार उसको ऊँच-नीच योनियों में जन्म लेना ही पड़ता है (गीता 13। 21)। अभी इसी अध्याय के पाँचवें श्लोक से 18वें श्लोक तक जिनका वर्णन हुआ है उन्हीं तीनों गुणों के लिये यहाँ ‘एतान् त्रीन् गुणान्’ पद आये हैं। विचारकुशल मनुष्य इन तीनों गुणों का अतिक्रमण कर जाता है अर्थात् इनके साथ अपना सम्बन्ध नहीं मानता । इनके साथ माने हुए सम्बन्ध का त्याग कर देता है। कारण कि उसको यह स्पष्ट विवेक हो जाता है कि सभी गुण परिवर्तनशील हैं , उत्पन्न और नष्ट होने वाले हैं और अपना स्वरूप गुणों से कभी लिप्त हुआ नहीं , हो सकता भी नहीं। ध्यान देने की बात है कि जिस प्रकृति से ये गुण उत्पन्न होते हैं उस प्रकृति के साथ भी स्वयं का किञ्चिन्मात्र भी सम्बन्ध नहीं है फिर गुणों के साथ तो उसका सम्बन्ध हो ही कैसे सकता है ? ‘जन्ममृत्युजरादुःखैर्विमुक्तोऽमृतमश्नुते’ – जब इन तीनों गुणों का अतिक्रमण कर जाता है तो फिर उसको जन्म , मृत्यु और वृद्धावस्था का दुःख नहीं होता। वह जन्म-मृत्यु आदि के दुःखों से छूट जाता है क्योंकि जन्म आदि के होने में गुणों का सङ्ग ही कारण है। ये गुण आते-जाते रहते हैं , इनमें परिवर्तन होता रहता है। गुणों की वृत्तियाँ कभी सात्त्विकी , कभी राजसी और कभी तामसी हो जाती हैं परन्तु स्वयं में कभी सात्त्विकपना , राजसपना और तामसपना आता ही नहीं। स्वयं (स्वरूप) तो स्वतः असङ्ग रहता है। इस असङ्ग स्वरूप का कभी जन्म नहीं होता। जब जन्म नहीं होता तो मृत्यु भी नहीं होती। कारण कि जिसका जन्म होता है उसी की मृत्यु होती है तथा उसी की वृद्धावस्था भी होती है। गुणों का सङ्ग रहने से ही जन्म , मृत्यु और वृद्धावस्था के दुःखों का अनुभव होता है। जो गुणों से सर्वथा निर्लिप्तता का अनुभव कर लेता है उसको स्वतःसिद्ध अमरता का अनुभव हो जाता है। देह से तादात्म्य (एकता) मानने से ही मनुष्य अपने को मरने वाला समझता है। देह के सम्बन्ध से होने वाले सम्पूर्ण दुःखों में सबसे बड़ा दुःख मृत्यु ही माना गया है। मनुष्य स्वरूप से है तो अमर ही किन्तु भोग और संग्रह में आसक्त होने से और प्रतिक्षण नष्ट होने वाले शरीर को अमर रखने की इच्छा से ही इसको अमरता का अनुभव नहीं होता। विवेकी मनुष्य देह से तादात्म्य नष्ट होने पर अमरता का अनुभव करता है। पूर्वश्लोक में ‘मद्भावं सोऽधिगच्छति’ पदों से भगवद्भाव की प्राप्ति कही गयी एवं यहाँ ‘अमृतमश्नुते’ पदों से अमरता का अनुभव करने को कहा गया – वस्तुतः दोनों एक ही बात है। गीता में जरामरणमोक्षाय (7। 29) जन्ममृत्युजराव्याधिदुःखदोषानुदर्शनम् (13। 8) और यहाँ जन्ममृत्युजरादुःखैर्विमुक्तः (14। 20) – इन तीनों जगह बाल्य और युवाअवस्था का नाम न लेकर जरा (वृद्धावस्था) का ही नाम लिया गया है जबकि शरीर में बाल्य , युवा और वृद्ध – ये तीनों ही अवस्थाएँ होती हैं। इसका कारण यह है कि बाल्य और युवाअवस्था में मनुष्य अधिक दुःख का अनुभव नहीं करता क्योंकि इन दोनों ही अवस्थाओं में शरीर में बल रहता है परन्तु वृद्धावस्था में शरीर में बल न रहने से मनुष्य अधिक दुःख का अनुभव करता है। ऐसे ही जब मनुष्य के प्राण छूटते हैं तब वह भयंकर दुःख का अनुभव करता है परन्तु जो तीनों गुणों का अतिक्रमण कर जाता है वह सदा के लिये जन्म , मृत्यु और वृद्धावस्था के दुःखों से मुक्त हो जाता है। इस मनुष्यशरीर में रहते हुए जिसको बोध हो जाता है उसका फिर जन्म होने का तो प्रश्न ही पैदा नहीं होता। हाँ , उसके अपने कहलाने वाले शरीर के रहते हुए वृद्धावस्था और मृत्यु तो आयेगी ही पर उसको वृद्धावस्था और मृत्यु का दुःख नहीं होगा। वर्तमान में शरीर के साथ स्वयं की एकता मानने से ही पुनर्जन्म होता है और शरीर में होने वाले जरा , व्याधि आदि के दुःखों को जीव अपने में मान लेता है। शरीर गुणों के सङ्ग से उत्पन्न होता है। देह के उत्पादक गुणों से रहित होने के कारण गुणातीत महापुरुष देह के सम्बन्ध से होने वाले सभी दुःखों से मुक्त हो जाता है। अतः प्रत्येक मनुष्य को मृत्यु से पहले-पहले अपने गुणातीत स्वरूप का अनुभव कर लेना चाहिये। गुणातीत होने से जरा , व्याधि , मृत्यु आदि सब प्रकार के दुःखों से मुक्ति हो जाती है और मनुष्य अमरता का अनुभव कर लेता है। फिर उसका पुनर्जन्म होता ही नहीं। गुणातीत पुरुष दुःखों से मुक्त होकर अमरता को प्राप्त कर लेता है – ऐसा सुनकर अर्जुन के मन में गुणातीत मनुष्य के लक्षण जानने की जिज्ञासा हुई। अतः वे आगे के श्लोक में भगवान से प्रश्न करते हैं – स्वामी रामसुखदास जी 

 

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