अध्याय सात: ज्ञान विज्ञान योग
दिव्य ज्ञान की अनुभूति द्वारा प्राप्त योग
08-12 संपूर्ण पदार्थों में कारण रूप से भगवान की व्यापकता का कथन
पुण्यो गन्धः पृथिव्यां च तेजश्चास्मि विभावसौ ।
जीवनं सर्वभूतेषु तपश्चास्मि तपस्विषु ॥7.9॥
पुण्यः-पवित्र, गन्धः-सुगंध; पृथिव्याम्-पृथ्वी में; च-और; तेज:-प्रकाश; च-भी; अस्मि-मैं हूँ; विभावसौ-अग्नि में; जीवनम्-जीवन शक्ति; सर्व-समस्त; भूतेषु-जीव; तपः-तपस्या; च-भी; अस्मि-हूँ; तपस्विषु-तपस्वियों में।
पृथ्वी में मैं पवित्र गंध और अग्नि में तेज मैं हूँ तथा सम्पूर्ण भूतों में उनका जीवन अर्थात प्राणियों में जीवन शक्ति मैं हूँ और तपस्वियों में तप भी मैं हूँ॥7.9॥
‘पुण्यो गन्धः पृथिव्याम्’ पृथ्वी गन्धतन्मात्रा से उत्पन्न होती है , गन्धतन्मात्रारूप से रहती है और गन्धतन्मात्रा में ही लीन होती है। तात्पर्य है कि गन्ध के बिना पृथ्वी कुछ नहीं है। भगवान् कहते हैं कि पृथ्वी में वह पवित्र गन्ध मैं हूँ। यहाँ गन्ध के साथ ‘पुण्यः’ विशेषण देने का तात्पर्य है कि गन्धमात्र पृथ्वी में रहती है। उसमें पुण्य अर्थात् पवित्र गन्ध तो पृथ्वी में स्वाभाविक रहती है पर दुर्गन्ध किसी विकृति से प्रकट होती है। ‘तेजश्चास्मि विभावसौ’ तेज रूपतन्मात्रा से प्रकट होता है , उसी में रहता है और अन्त में उसी में लीन हो जाता है। अग्नि में तेज ही तत्त्व है। तेज के बिना अग्नि निस्तत्त्व है , कुछ नहीं है। वह तेज मैं ही हूँ। ‘जीवनं सर्वभूतेषु ‘ सम्पूर्ण प्राणियों में एक जीवनीशक्ति है , प्राणशक्ति है जिससे सब जी रहे हैं। उस प्राणशक्ति से वे प्राणी कहलाते हैं। प्राणशक्ति के बिना उनमें प्राणीपना कुछ नहीं है। प्राणशक्ति के कारण गाढ़ नींद में सोता हुआ आदमी भी मुर्दे से विलक्षण दिखता है। वह प्राणशक्ति मैं ही हूँ । ‘तपश्चास्मि तपस्विषु’ द्वन्द्वसहिष्णुता को तप कहते हैं परन्तु वास्तव में परमात्मतत्त्व की प्राप्ति के लिये कितने ही कष्ट आयें , उनमें निर्विकार रहना ही असली तप है। यही तपस्वियों में तप है । इसी से वे तपस्वी कहलाते हैं और इसी तप को भगवान् अपना स्वरूप बताते हैं। अगर तपस्वियों में से ऐसा तप निकाल दिया जाय तो वे तपस्वी नहीं रहेंगे – स्वामी रामसुखदास जी )