अध्याय सात: ज्ञान विज्ञान योग
दिव्य ज्ञान की अनुभूति द्वारा प्राप्त योग
13-19 आसुरी स्वभाव वालों की निंदा और भगवद्भक्तों की प्रशंसा
न मां दुष्कृतिनो मूढाः प्रपद्यन्ते नराधमाः ।
माययापहृतज्ञाना आसुरं भावमाश्रिताः ॥7.15॥
न–नहीं; माम् – मेरी; दुष्कृतिन:-बुरा करने वाले; मूढाः-अज्ञानी; प्रपद्यन्ते–शरण ग्रहण करते हैं; नर अधमाः-अपनी निकृष्ट प्रवृति के अधीन आलसी लोग; मायया- भगवान की प्राकृत शक्ति द्वारा; अपहृत ज्ञानाः-भ्रमित बुद्धि वाले; आसुरम्-आसुरी; भावम्-प्रकृति वाले; आश्रिताः-शरणागति।
चार प्रकार के लोग मेरी शरण ग्रहण नहीं करते-
* वे जो निपट मूढ़ और अज्ञानी हैं
*वे जो अपनी निकृष्ट , नीच और पाप पूर्ण प्रवृति के कारण मुझे जानने में समर्थ होकर भी आलस्य के अधीन होकर मुझे जानने का प्रयास नहीं करते, अर्थात दुष्कृत्य करने वाले नराधम लोग
*जिनकी बुद्धि भ्रमित है अर्थात माया द्वारा जिनका ज्ञान हरा जा चुका है,
* जो आसुरी प्रवृति के हैं॥7.15॥
(‘न मां दुष्कृतिनो मूढाः प्रपद्यन्ते नराधमाः ‘ जो दुष्कृती और मूढ़ होते हैं , वे भगवान के शरण नहीं होते। दुष्कृती वे ही होते हैं जो नाशवान , परिवर्तनशील प्राप्त पदार्थों में ममता रखते हैं और अप्राप्त पदार्थों की कामना रखते हैं। कामना पूरी होने पर लोभ और कामना की पूर्ति में बाधा लगने पर क्रोध पैदा होता है। इस तरह जो कामना में फँसकर व्यभिचार आदि शास्त्रनिषिद्ध विषयों का सेवन करते हैं , लोभ में फँसकर झूठ , कपट , विश्वासघात , बेईमानी आदि पाप करते हैं और क्रोध के वशीभूत होकर द्वेष , वैर आदि दुर्भावपूर्वक हिंसा आदि पाप करते हैं , वे दुष्कृती हैं। जब मनुष्य भगवान के सिवाय दूसरी सत्ता मानकर उसको महत्त्व देते हैं तभी कामना पैदा होती है। कामना पैदा होने से मनुष्य माया से मोहित हो जाते हैं और हम जीते रहें तथा भोग भोगते रहें , यह बात उनको जँच जाती है। इसलिये वे भगवान के शरण नहीं होते बल्कि विनाशी वस्तु , पदार्थ आदि के शरण हो जाते हैं। तमोगुण की अधिकता होने से सार-असार , नित्य-अनित्य , सत् – असत , ग्राह्य-त्याज्य , कर्तव्य-अकर्तव्य आदि की तरफ ध्यान न देने वाले भगवद्-विमुख मनुष्य मूढ़ हैं। दुष्कृती और मूढ़ पुरुष परमात्मा की तरफ चलनेका निश्चय ही नहीं कर सकते , फिर वे परमात्मा की शरण तो हो ही कैसे सकते हैं ? ‘नराधमाः’ कहने का मतलब है कि वे दुष्कृती और मूढ़ मनुष्य पशुओं से भी नीचे हैं। पशु तो फिर भी अपनी मर्यादा में रहते हैं पर ये मनुष्य होकर भी अपनी मर्यादा में नहीं रहते हैं। पशु तो अपनी योनि भोगकर मनुष्ययोनि की तरफ आ रहे हैं और ये मनुष्य होकर (जिनको कि परमात्मा की प्राप्ति करने के लिये मनुष्यशरीर दिया) पाप , अन्याय आदि करके नरकों और पशुयोनियों की तरफ जा रहे हैं। ऐसे मूढ़तापूर्वक पाप करने वाले प्राणी नरकों के अधिकारी होते हैं। ऐसे प्राणियों के लिये भगवान ने (गीता 16। 19 20 में) कहा है कि द्वेष रखने वाले मूढ़ , क्रूर और संसार में नराधम पुरुषों को मैं बार-बार आसुरी योनियों में गिराता हूँ। वे आसुरी योनियों को प्राप्त होकर फिर घोर नरकों में जाते हैं। ‘माययापहृतज्ञाना आसुरं भावमाश्रिताः’ भगवान की जो तीनों गुणों वाली माया है (गीता 7। 14) उस माया से विवेक ढक जाने के कारण जो आसुर भाव को प्राप्त हो गये हैं अर्थात् शरीर , इन्द्रियाँ , अन्तःकरण और प्राणों का पोषण करने में लगे हुए हैं वे मेरे से सर्वथा विमुख ही रहते हैं। इसलिये वे मेरे शरण नहीं होते। दूसरा भाव यह है कि जिनका ज्ञान माया से अपहृत है , उनकी वृत्ति पदार्थों के आदि और अन्त की तरफ जाती ही नहीं। उत्पत्तिविनाशशील पदार्थों को प्रत्यक्ष नश्वर देखते हुए भी वे रुपये-पैसे-सम्पत्ति आदि के संग्रह में और मान- योग्यता-प्रतिष्ठा-कीर्ति आदि में ही आसक्त रहते हैं और उनकी प्राप्ति करने में ही अपनी बहादुरी और उद्योग की सफलता इतिश्री मानते हैं। इस कारण वे यह समझ ही नहीं सकते कि जो अभी नहीं है उसकी प्राप्ति होने पर भी अन्त में वह नहीं ही रहेगा और उसके साथ हमारा सम्बन्ध नहीं रहेगा। ‘असु’ नाम प्राणों का है। प्राणों को प्रत्यक्ष ही आने-जाने वाले अर्थात् क्रियाशील और नाशवान् देखते हुए भी वे उन प्राणों का पोषण करने में ही लगे रहते हैं। जीवननिर्वाह में काम आने वाली सांसारिक वस्तुओं को ही वे महत्त्व देते हैं। उन वस्तुओं से भी बढ़कर वे रुपये-पैसों को महत्त्व देते हैं , जो कि स्वयं काम में नहीं आते बल्कि वस्तुओं के द्वारा काम में आते हैं। वे केवल रुपयों को ही आदर नहीं देते बल्कि उनकी संख्या को बहुत आदर देते हैं। रुपयों की संख्या अभिमान बढ़ाने में काम आती है। अभिमान सम्पूर्ण आसुरी सम्पत्ति का आधार और सम्पूर्ण दुःखों एवं पापों का कारण है (टिप्पणी प0 413)। ऐसे अभिमान को लेकर ही जो अपने को मुख्य मानते हैं वे आसुर भाव को प्राप्त हैं। विशेष बात – यहाँ भगवान ने कहा है कि दुष्कृती मनुष्य मेरे शरण नहीं हो सकते और नवें अध्याय के 30वें श्लोक में कहा है कि सुदुराचारी मनुष्य भी अगर अनन्यभाव से मेरा भजन करता है तो वह बहुत जल्दी धर्मात्मा हो जाता है तथा निरन्तर रहने वाली शान्ति को प्राप्त होता है । यह कैसे इसका समाधान यह है कि वहाँ (9। 30) में ‘अपि चेत् ‘ पद आये हैं जिनका अर्थ होता है दुराचारी की प्रवृत्ति परमात्मा की तरफ स्वाभाविक नहीं होती परन्तु अगर वह भगवान के शरण हो जाय तो उसके लिये भगवान की तरफ से मना नहीं है। भगवान की तरफ से किसी भी जीव के लिये किञ्चिन्मात्र भी बाधा नहीं है क्योंकि भगवान प्राणिमात्र के लिये सम हैं। उनका किसी भी प्राणी में राग-द्वेष नहीं होता (गीता 9। 29)। दुराचारी से दुराचारी मनुष्य भी भगवान की द्वेष का विषय नहीं है। सब प्राणियों पर भगवान का प्यार और कृपा समान ही है। वास्तव में दुराचारी अधिक दया का पात्र है। कारण कि वह अपना ही महान् अहित कर रहा है , भगवान का कुछ भी नहीं बिगाड़ रहा है। इसलिये किसी कारणवशात् कोई आफत आ जाय , बड़ा भारी संकट आ जाय और उसका कोई सहारा न रहे तो वह भगवान को पुकार उठेगा। ऐसे ही किसी सन्त को उसने दुःख दिया और संत के हृदय में कृपा आ जाय तो उस सन्त की कृपा से वह भगवान में लग जाय अथवा किसी ऐसे स्थान में चला जाय जहाँ अच्छे-अच्छे बड़े विलक्षण , दयालु , महात्मा रह चुके हैं और उनके प्रभाव से उसका भाव-भाव बदल जाय अथवा किसी कारणवशात् उसका कोई पुराना विलक्षण पुण्य उदय हो जाय तो वह अचानक चेत सकता है और भगवान के शरण हो सकता है। ऐसा पापी पुरुष अगर भगवान में लगता है तो बड़ी दृढ़ता से लगता है। कारण कि उसके भीतर कोई अच्छाई नहीं होती । इसलिये उसमें अच्छेपन का अभिमान नहीं होता। तात्पर्य यह हुआ कि सम्पूर्ण प्राणियों में भगवान की व्यापकता और कृपा समान है। सदाचार और दुराचार तो उन प्राणियों के किये हुए कार्य हैं। मूल में तो वे प्राणी सदा भगवान के शुद्ध अंश हैं। केवल दुराचार के कारण उनकी भगवान में रुचि नहीं होती। अगर किसी कारणवशात् रुचि हो जाय तो भगवान उनके किये हुए को न देखकर , उनको स्वीकार कर लेते हैं ‘रहति न प्रभु चित चूक किए की। करत सुरति सय बार हिए की।।’ (मानस 1। 29। 3) जैसे माँ का हृदय अपने सम्बन्ध से बालकों पर समान ही रहता है। उनके सदाचार-दुराचार से उनके प्रति माँ का व्यवहार तो विषम होता है पर हृदय विषम नहीं होता कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति। माँ तो एक जन्मको और एक शरीरको देने वाली होती है परन्तु प्रभु तो सदा रहने वाली माँ हैं। प्रभु का हृदय तो प्राणिमात्र पर सदैव द्रवित रहता ही है। प्राणी निमित्तमात्र भी शरण हो जाय तो प्रभु विशेष द्रवित हो जाते हैं। भगवान् कहते हैं ‘जौं नर होइ चराचर द्रोही। आवै सभय सरन तकि मोही।। तजि मद मोह कपट छल नाना। करउँ सद्य तेहि साधु समाना।।'(मानस 5। 48। 1 2) इसका तात्पर्य है कि जो चराचर प्राणियों के साथ द्वेष करने वाला है वह अगर कहीं भी आश्रय न मिलने से भयभीत होकर सर्वथा मेरा ही आश्रय लेकर मेरे शरण हो जाता है तो उसमें होने वाले मद , मोह , कपट , नाना , छल आदि दोषों की तरफ न देख कर केवल उसके भाव की तरफ देखकर मैं उसको बहुत जल्दी साधु बना लेता हूँ। धर्म का आश्रय रहने से धर्मात्मा पुरुष के भीतर अनन्यभाव होने में कठिनता रहती है परन्तु दुरात्मा पुरुष जब किसी कारण से भगवान के सम्मुख होता है , तब उसमें किसी प्रकार के शुभकर्म का आश्रय न होने से केवल भगवत्परायणता ही बल रहता है। यह बल बहुत शीघ्र पवित्र करता है। कारण कि यह बल खुद का होता है अर्थात् किसी तरह का आश्रय न रहने से उसकी खुद की पुकार होती है। इस पुकार से भगवान् बहुत शीघ्र पिघल जाते हैं। ऐसी पुकार होने में पुण्यात्मा-पापात्मा , विद्वान , मूर्ख , सुजाति-कुजाति आदि का होना कारण नहीं है बल्कि संसार की तरफ से सर्वथा निराश होना ही खास कारण है। यह निराशा हरेक मनुष्य को हो सकती है। दूसरी बात भगवान के कथन का तात्पर्य है कि दुष्कृती पुरुष मेरे शरण नहीं होते क्योंकि उनका स्वभाव मेरे विपरीत होता है। उनमें से अगर कोई मेरे शरण हो जाय तो मैं उससे प्यार करने के लिये हरदम तैयार हूँ। भगवान की कृपालुता इतनी विलक्षण है कि भगवान भी अपनी कृपा के परवश होकर जीव का शीघ्र कल्याण कर देते हैं। अतः यहाँ के और वहाँ के प्रसङ्ग में विरोध नहीं है बल्कि इसमें भगवान की कृपालुता ही प्रकट होती है। सुकृती और दुष्कृती (टिप्पणी प0 414) का होना उनकी क्रियाओं पर निर्भर नहीं है बल्कि भगवान के सम्मुख और विमुख होने पर निर्भर है। जो भगवान के सम्मुख है वह सुकृती है और जो भगवान से विमुख है , वह दुष्कृती है। भगवान के सम्मुख होने का जैसा माहात्म्य है , वैसा माहात्म्य सकामभावपूर्वक किये गये यज्ञ , दान , तप , तीर्थ , व्रत आदि शुभ कर्मों का भी नहीं है। यद्यपि यज्ञ , दान , तप आदि क्रियाएँ भी पवित्र हैं पर जो अपने को सर्वथा अयोग्य समझकर और अपने में किसी तरह की पवित्रता न देखकर आर्तभाव से भगवान के सम्मुख रो पड़ता है , उसकी पवित्रता भगवत्कृपा से बहुत जल्दी होती है। भगवत्कृपा से होने वाली पवित्रता अनेक जन्मों में किये हुए शुभ कर्मों की अपेक्षा बहुत ही विलक्षण होती है। इसी तरह से शुभ कर्म करने वाले सुकृती भी शुभ कर्मों का आश्रय छोड़कर भगवान को पुकार उठते हैं , तो उनका भी शुभ कर्मों का आश्रय न रहकर एक भगवान का आश्रय हो जाता है। केवल भगवान् की ही आश्रय होने के कारण वे भी भगवान् के प्यारे भक्त हो जाते हैं। एक कृति होती है और एक भाव होता है। कृति में बाहर की क्रिया होती है और भाव भीतर में होता है। भाव के पीछे उद्देश्य होता है और उद्देश्य के पीछे भगवान की तरफ अनन्यता होती है। वह अनन्यता कृतियों और भावों से बहुत विलक्षण होती है क्योंकि वह स्वयं की होती है। उस अनन्यता के सामने कोई दुराचार टिक ही नहीं सकता। वह अनन्यता दुराचारी से दुराचारी पुरुष को भी बहुत जल्दी पवित्र कर देती है। वास्तव में यह जीव परमात्मा का अंश होने से पवित्र तो है ही। केवल दुर्भावों और दुराचारों के कारण ही इसमें अपवित्रता आती है। पूर्वश्लोक में भगवान ने कहा कि दुष्कृती पुरुष मेरे शरण नहीं होते। तो फिर शरण कौन होते हैं ? इसको आगे के श्लोक में बताते हैं – स्वामी रामसुखदास जी )