अध्याय सात: ज्ञान विज्ञान योग
दिव्य ज्ञान की अनुभूति द्वारा प्राप्त योग
13-19 आसुरी स्वभाव वालों की निंदा और भगवद्भक्तों की प्रशंसा
तेषां ज्ञानी नित्ययुक्त एकभक्तिर्विशिष्यते ।
प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थमहं स च मम प्रियः ॥7.17॥
तेषाम्-उनमें से; ज्ञानी–वे जो ज्ञान में स्थित रहते हैं; नित्य-युक्त:-सदैव दृढ़; एक-अनन्य; भक्ति:-भक्ति में; विशिष्यते-श्रेष्ठ है; प्रियः-अति प्रिय; हि-निश्चय ही; ज्ञानिनः-ज्ञानवान; अत्यर्थम्-अत्यधिक; अहम्-मैं हूँ; सः-वह; च-भी; मम–मेरा; प्रियः-प्रिय।
इनमें से मैं उन्हें श्रेष्ठ मानता हूँ जो ज्ञान युक्त होकर प्रेम और भक्ति पूर्वक मेरी आराधना करते हैं और दृढ़तापूर्वक अनन्य भाव से मेरे प्रति समर्पित होते हैं अर्थात इन सब में से नित्य मुझमें एकीभाव से स्थित हो कर अनन्य प्रेम और भक्ति वाला ज्ञानी भक्त अति उत्तम है क्योंकि मुझको तत्व से जानने वाले ज्ञानी भक्त मैं बहुत प्रिय हूँ और वे मुझे अत्यंत प्रिय हैं॥7.17॥
( ‘ तेषां ज्ञानी नित्ययुक्तः ‘ उन (अर्थार्थी , आर्त , जिज्ञासु और ज्ञानी ) भक्तों में ज्ञानी अर्थात् प्रेमी भक्त श्रेष्ठ है क्योंकि वह नित्ययुक्त है अर्थात् वह सदा-सर्वदा केवल भगवान में ही लगा रहता है। भगवान के सिवाय दूसरे किसी में वह किञ्चिन्मात्र भी नहीं लगता। जैसे गोपियाँ गाय दुहते , दही बिलोते , धान कूटते आदि सभी लौकिक कार्य करते हुए भी भगवान् श्रीकृष्ण में चित्तवाली रहती हैं (टिप्पणी प0 420.2) ऐसे ही वह ज्ञानी भक्त लौकिक और पारमार्थिक सब क्रियाएँ करते समय सदा-सर्वदा भगवान से जुड़ा रहता है। भगवान का सम्बन्ध रखते हुए ही उसकी सब क्रियाएँ होती हैं। ‘एकभक्तिर्विशिष्यते’ उस ज्ञानी अर्थात् प्रेमी भक्त का आकर्षण केवल भगवान में होता है। उसकी अपनी कोई व्यक्तिगत इच्छा नहीं रहती। इसलिये वह श्रेष्ठ है। अर्थार्थी आदि भक्तों में पूर्वसंस्कारों के कारण जब तक व्यक्तिगत इच्छाएँ उत्पन्न होती रहती हैं , तब तक उनकी एकभक्ति नहीं होती अर्थात् केवल भगवान में प्रेम नहीं होता परन्तु उन भक्तों में इन इच्छाओं को नष्ट करने का भाव भी होता रहता है और इच्छाओं के सर्वथा नष्ट होने पर सभी भक्त भगवान के प्रेमी और भगवान के प्रेमास्पद हो जाते हैं। वहाँ भक्त और भगवान में द्वैत का भाव न रहकर प्रेमाद्वैत (प्रेम में अद्वैत ) हो जाता है। ऐसे तो चारों भक्त भगवान में नित्य-निरन्तर लगे रहते हैं परन्तु तीन भक्तों के भीतर में कुछ न कुछ व्यक्तिगत इच्छा रहती है जैसे अर्थार्थी भक्त अनुकूलता की इच्छा करते हैं । आर्त भक्त प्रतिकूलता को मिटाने की इच्छा करते हैं और जिज्ञासु भक्त अपने स्वरूप को या भगवत्तत्त्व को जानने की इच्छा करते हैं। ज्ञानी अर्थात् प्रेमी भक्त में अपनी कोई इच्छा नहीं रहती । अतः वह एकभक्ति है। ‘प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थमहं स च मम प्रियः’ उस ज्ञानी प्रेमी भक्त को मैं अत्यन्त प्यारा हूँ। उसमें अपनी किञ्चिन्मात्र भी इच्छा नहीं है , केवल मेरे में प्रेम है। इसलिये वह मेरे को अत्यन्त प्यारा है। वास्तव में तो भगवान का अंश होने से सभी जीव स्वाभाविक ही भगवान को प्यारे हैं। भगवान के प्यार में कोई निजी स्वार्थ नहीं है। जैसे माता अपने बच्चों का पालन करती है । ऐसे ही भगवान बिना किसी कारण के सबका पालन-पोषण और प्रबन्ध करते हैं परन्तु जो मनुष्य किसी कारण से भगवान के सम्मुख हो जाते हैं , उनकी उस सम्मुखता के कारण भगवान में उनके प्रति एक विशेष प्रियता हो जाती है। जब भक्त सर्वथा निष्काम हो जाता है अर्थात् उसमें लौकिक-पारलौकिक किसी तरह की भी इच्छा नहीं रहती , तब उसमें स्वतःसिद्ध प्रेम पूर्णरूप से जाग्रत् हो जाता है। पूर्णरूप से जाग्रत् होने का अर्थ है कि प्रेम में किञ्चिन्मात्र भी कमी नहीं रहती। प्रेम कभी समाप्त भी नहीं होता क्योंकि वह अनन्त और प्रतिक्षण वर्धमान है। प्रतिक्षण वर्धमान का तात्पर्य है कि प्रेम में प्रतिक्षण अलौकिक विलक्षणता का अनुभव होता रहता है अर्थात् इधर पहले दृष्टि गयी ही नहीं , इधर हमारा खयाल गया ही नहीं , अभी दृष्टि गयी , इस तरह प्रतिक्षण भाव और अनुभव होता ही रहता है। इसलिये प्रेम को अनन्त बताया गया है। पूर्वश्लोकमें भगवान्ने ज्ञानी भक्तको अपना अत्यन्त प्यारा बताया तो इससे यह असर पड़ता है कि भगवान ने दूसरे भक्तों का आदर नहीं किया। इसलिये भगवान् आगे के श्लोक में कहते हैं – स्वामी रामसुखदास जी )