अध्याय सात: ज्ञान विज्ञान योग
दिव्य ज्ञान की अनुभूति द्वारा प्राप्त योग
13-19 आसुरी स्वभाव वालों की निंदा और भगवद्भक्तों की प्रशंसा
उदाराः सर्व एवैते ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम् ।
आस्थितः स हि युक्तात्मा मामेवानुत्तमां गतिम् ॥7.18॥
उदारा:-महान; सर्वे -सभी; एव–वास्तव में; एते-ये; ज्ञानी–वे जो ज्ञान में स्थित रहते हैं; तु–लेकिनः आत्मा एव-मेरे समान ही; मे- मेरे; मतम्-विचार; आस्थित:-स्थित; सः-वह; हि-निश्चय ही; युक्त-आत्मा भगवान में एकीकृत; माम्-मुझे ; एव–निश्चय ही; अनुत्तमाम्-सर्वोच्च ;गतिम्-लक्ष्य।
वास्तव में वे सब जो मुझ पर समर्पित हैं, निःसंदेह महान हैं और उदार हैं। लेकिन जो ज्ञानी हैं और स्थिर मन वाले हैं और जिन्होंने अपनी बुद्धि मुझमें विलय कर दी है और जो केवल मुझे ही परम लक्ष्य के रूप में देखते हैं, उन्हें मैं अपने समान ही मानता हूँ अर्थात ज्ञानी तो साक्षात् मेरा स्वरूप ही है- ऐसा मेरा मत है॥7.18॥
(‘उदाराः सर्व एवैते’ ये सब के सब भक्त उदार हैं , श्रेष्ठ भाव वाले हैं। भगवान ने यहाँ जो ‘उदाराः’ शब्द का प्रयोग किया है , उसमें कई विचित्र भाव हैं जैसे (1) चौथे अध्याय के 11वें श्लोक में भगवान ने कहा है कि भक्त जिस प्रकार मेरे शरण होते हैं ,उसी प्रकार मैं उनका भजन करता हूँ। भक्त भगवान को चाहते हैं और भगवान भक्त को चाहते हैं परन्तु इन दोनों में पहले भक्त ने ही सम्बन्ध जोड़ा है और जो पहले सम्बन्ध जोड़ता है वह उदार होता है। तात्पर्य यह है कि भगवान् सम्बन्ध जोड़ें या न जोड़ें ,इसकी भक्त परवाह नहीं करता। वह तो अपनी तरफ से पहले सम्बन्ध जोड़ता है और अपने को समर्पित करता है। इसलिये वह उदार है। (2) देवताओं के भक्त सकामभाव से विधिपूर्वक यज्ञ , दान , तप आदि कर्म करते हैं तो देवताओं को उनकी कामना के अनुसार वह चीज देनी ही पड़ती है क्योंकि देवतालोग उनका हित-अहित नहीं देखते परन्तु भगवान का भक्त अगर भगवान से कोई चीज माँगता है तो भगवान अगर उचित समझें तो वह चीज दे देते हैं अर्थात् देने से उसकी भक्ति बढ़ती हो तो दे देते हैं और भक्ति न बढ़ती हो , संसार में फँसावट होती हो तो नहीं देते। कारण कि भगवान परम पिता हैं और परम हितैषी हैं। तात्पर्य यह हुआ कि अपनी कामना की पूर्ति हो अथवा न हो तो भी वे भगवान का ही भजन करते हैं , भगवान के भजन को नहीं छोड़ते , यह उनकी उदारता ही है। (3) संसार के भोग और रुपये , पैसे प्रत्यक्ष सुखदायी दिखते हैं और भगवान के भजन में प्रत्यक्ष जल्दी सुख नहीं दिखता , फिर भी संसार के प्रत्यक्ष सुख को छोड़कर अर्थात् भोग भोगने और संग्रह करने की लालसा को छोड़कर भगवान का भजन करते हैं , यह उनकी उदारता ही है। (4) भगवान के दरबार में माँगने वालों को भी उदार कहा जाता है ‘यहि दरबार दीन को आदर रीति सदा चलि आई।’ (विनयपत्रिका 165। 5) अर्थात् कोई कुछ माँगता है , कोई धन चाहता है , कोई दुःख दूर करना चाहता है , ऐसे माँगने वाले भक्तों को भी भगवान उदार कहते हैं । यह भगवान की विशेष उदारता ही है।(5) भक्तों का लौकिक-पारलौकिक कामनापूर्ति के लिये अन्य की तरफ किञ्चिन्मात्र भी भाव नहीं जाता। वे केवल भगवान से ही कामनापूर्ति चाहते हैं। भक्तों का यह अनन्य भाव ही उनकी उदारता है। ‘ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम् ‘ यहाँ ‘तु’ पद से ज्ञानी अर्थात् प्रेमी भक्त की विलक्षणता बतायी है कि दूसरे भक्त तो उदार हैं ही पर ज्ञानी को उदार क्या कहें वह तो मेरा स्वरूप ही है। स्वरूप में किसी निमित्त से किसी कारण विशेष से प्रियता नहीं होती बल्कि अपना स्वरूप होने से स्वतःस्वाभाविक प्रियता होती है। प्रेम में प्रेमी अपने आपको प्रेमास्पद पर न्योछावर कर देता है अर्थात् प्रेमी अपनी सत्ता अलग नहीं मानता। ऐसे ही प्रेमास्पद भी स्वयं प्रेमी पर न्योछावर हो जाते हैं। उनको इस प्रेमाद्वैत की विलक्षण अनुभूति होती है। ज्ञानमार्ग का जो अद्वैतभाव है वह नित्य-निरन्तर अखण्डरूप से शान्त , सम रहता है परन्तु प्रेम का जो अद्वैतभाव है , वह एक-दूसरे की अभिन्नता का अनुभव कराता हुआ प्रतिक्षण वर्धमान रहता है। प्रेम का अद्वैतभाव एक होते हुए भी दो हैं और दो होते हुए भी एक है। इसलिये प्रेमतत्त्व अनिर्वचनीय है। शरीर के साथ सर्वथा अभिन्नता (एकता) मानते हुए भी निरन्तर भिन्नता बनी रहती है और भिन्नता का अनुभव होने पर भी भिन्नता बनी रहती है। इसी तरह प्रेमतत्त्व में भिन्नता रहते हुए भी अभिन्नता बनी रहती है और अभिन्नता का अनुभव होने पर भी अभिन्नता बनी रहती है। जैसे नदी समुद्र में प्रविष्ट होती है तो प्रविष्ट होते ही नदी और समद्र के जल की एकता हो जाती है। एकता होने पर भी दोनों तरफ से जल का एक प्रवाह चलता रहता है अर्थात् कभी नदी का समुद्र की तरफ और कभी समुद्र का नदी की तरफ एक विलक्षण प्रवाह चलता रहता है। ऐसे ही प्रेमी का प्रेमास्पद की तरफ और प्रेमास्पद का प्रेमी की तरफ प्रेम का एक विलक्षण प्रवाह चलता रहता है। उनका नित्ययोग में वियोग और वियोग में नित्ययोग , इस प्रकार प्रेम की एक विलक्षण लीला अनन्तरूप से अनन्तकाल तक चलती रहती है। उसमें कौन प्रेमास्पद है और कौन प्रेमी है इसका खयाल नहीं रहता। वहाँ दोनों ही प्रेमास्पद हैं और दोनों ही प्रेमी हैं। यही ‘ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम्’ पदों का तात्पर्य है। ‘आस्थितः स हि युक्तात्मा मामेवानुत्तमां गतिम्’ क्योंकि जिससे उत्तम गति कोई हो ही नहीं सकती , ऐसे सर्वोपरि मेरे में ही उसकी श्रद्धा , विश्वास और दृढ़ आस्था है। तात्पर्य है कि उसकी वृत्ति किसी अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति को लेकर मेरे से हटती नहीं बल्कि एक मेरे में ही लगी रहती है। केवल भगवान ही मेरे हैं इस प्रकार मेरे में उसका जो अपनापन है उसमें अनुकूलता-प्रतिकूलता को लेकर किञ्चिन्मात्र भी फरक नहीं पड़ता बल्कि वह अपनापन दृढ़ होता और बढ़ता ही चला जाता है। वह युक्तात्मा है अर्थात् वह किसी भी अवस्था में मेरे से अलग नहीं होता बल्कि सदा मेरे से अभिन्न रहता है। पूर्वश्लोक में कहे हुए ज्ञानी अर्थात् प्रेमी भक्त की वास्तविकता और उसके भजन का प्रकार आगे के श्लोक में बताते हैं – स्वामी रामसुखदास जी )