Bhagavat gita chapter 7

 

 

Previous         Menu        Next

 

अध्याय सात: ज्ञान विज्ञान योग

दिव्य ज्ञान की अनुभूति द्वारा प्राप्त योग

 

20- 23 अन्य देवताओं की उपासना और उसका फल

 

Bhagavat gita chapter 7

स तया श्रद्धया युक्तस्तस्याराधनमीहते ।

लभते च ततः कामान्मयैव विहितान्हि तान् ॥7.22॥

 

स:-वह; तया-उसके साथ; श्रद्धया – विश्वास से; युक्त:-सम्पन्न; तस्य-उसकी; आराधनम्-पूजा; ईहते-तल्लीन होने का प्रयास करना; लभते-प्राप्त करना; च-तथा; ततः-उससे; कामान्–कामनाओं को; मया- मेरे द्वारा; एव-केवल; विहितान्–स्वीकृत; हि-निश्चय ही; तान्-उन।

 

उस (मेरे द्वारा दृढ़ की हुई) श्रद्धा से युक्त होकर ऐसे भक्त सकाम भाव से उस विशेष देवता की पूजा करते हैं और निःसंदेह अपनी वांछित वस्तुएँ और इच्छित भोग प्राप्त भी करते हैं अर्थात उनकी वह कामना पूरी भी होती है किन्तु वास्तव में ये सब लाभ और कामना पूर्ति मेरे द्वारा ही प्रदान किए जाते हैं॥7.22॥

 

स तया श्रद्धया युक्तः ৷৷. मयैव विहितान्हि तान् ‘ मेरे द्वारा दृढ़ की हुई श्रद्धा से सम्पन्न हुआ वह मनुष्य उस देवता की आराधना की चेष्टा करता है और उस देवता से जिस कामनापूर्ति की आशा रखता है उस कामना की पूर्ति होती है। यद्यपि वास्तव में उस कामना की पूर्ति मेरे द्वारा ही की हुई होती है परन्तु वह उसको देवता से ही पूरी की हुई मानता है। वास्तव में देवताओं में मेरी ही शक्ति है और मेरे ही विधान से वे उनकी कामनापूर्ति करते हैं। जैसे सरकारी अफसरों को एक सीमित अधिकार दिया जाता है कि तुम लोग अमुक विभाग में अमुक अवसर पर इतना खर्च कर सकते हो , इतना इनाम दे सकते हो। ऐसे ही देवताओं में एक सीमा तक ही देने की शक्ति होती है । अतः वे उतना ही दे सकते हैं ,अधिक नहीं। देवताओं में अधिक से अधिक इतनी शक्ति होती है कि वे अपने-अपने उपासकों को अपने-अपने लोकों में ले जा सकते हैं परन्तु अपनी उपासना का फल भोगने पर उनको वहाँ से लौटकर पुनः संसार में आना पड़ता है (गीता 8। 16)। यहाँ ‘मयैव’ कहने का तात्पर्य है कि संसार में स्वतः जो कुछ संचालन हो रहा है , वह सब मेरा ही किया हुआ है। अतः जिस किसी को जो कुछ मिलता है , वह सब मेरे द्वारा विधान किया हुआ ही मिलता है। कारण कि मेरे सिवाय विधान करने वाला दूसरा कोई नहीं है। अगर कोई मनुष्य इस रहस्य को समझ ले तो फिर वह केवल मेरी तरफ ही खिंचेगा। अब भगवान उपासना के अनुसार फल का वर्णन करते हैं – स्वामी रामसुखदास जी 

 

।।7.22।। वह भक्त उस श्रद्धा से युक्त होकर अपने इष्ट देवता की आराधना करता है जिसके फलस्वरूप वह देवता उसकी इच्छा को पूर्ण करता है परन्तु भगवान कहते हैं कि वास्तव में कर्मफलदाता वे ही हैं। सर्वज्ञ सर्वशक्तिमान परमात्मा ही समस्त जगत् का आदि कारण होने से मनुष्य को कर्म करने की और देवताओं को फल प्रदान करने की सार्मथ्य उन्हीं से प्राप्त होती है। इष्ट – अनिष्ट फलों की प्राप्ति से सुख दुख आदि का अनुभव अन्तकरण में होता है , जिसे आत्मचैतन्य प्रकाशित करता है। उसके बिना इस प्रकार का कोई अनुभव प्राप्त नहीं हो सकता। श्रद्धा के साथ किये हुये पूजन से ईश्वर द्वारा विधान किये हुए नियम के अनुसार फल प्राप्त होता है। यहाँ श्रीकृष्ण अपने परमात्म स्वरूप के साथ तादात्म्य करके कहते हैं । वे इष्ट फल मेरे द्वारा ही दिये जाते हैं। अविवेकी लोग अनित्य भोगों की कामना करते हैं । इसलिए उन्हें कभी शाश्वत शान्ति प्राप्त नहीं होती – स्वामी चिन्मयानन्द जी 

 

    Next

 

 

By spiritual talks

Welcome to the spiritual platform to find your true self, to recognize your soul purpose, to discover your life path, to acquire your inner wisdom, to obtain your mental tranquility.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

error: Content is protected !!