अध्याय सात: ज्ञान विज्ञान योग
दिव्य ज्ञान की अनुभूति द्वारा प्राप्त योग
20- 23 अन्य देवताओं की उपासना और उसका फल
अन्तवत्तु फलं तेषां तद्भवत्यल्पमेधसाम् ।
देवान्देवयजो यान्ति मद्भक्ता यान्ति मामपि ॥7.23॥
अन्तवत् – नाशवान; तु-लेकिन; फलम्-फल; तेषाम्-उनके द्वारा; तत्-वह; भवति–होता है; अल्पमेधसाम्-अल्पज्ञों का; देवान्–स्वर्ग के देवता; देवयज्ञः-देवताओं को पूजने वाले; यान्ति–जाते हैं; मत्–मेरे; भक्ताः-भक्त जन; यान्ति–जाते हैं; माम् – मेरे; अपि – भी।
किन्तु ऐसे अल्पज्ञानी लोगों को प्राप्त होने वाले फल भी नाशवान होते हैं। देवताओं की पूजा करने वाले , देव लोकों को जाते हैं अर्थात देवताओं को प्रात होते हैं जबकि मेरे भक्त चाहे जैसे भी मुझे भजें, अंत में वे मेरे लोक को जाते हैं अर्थात मुझको ही प्राप्त होते हैं ॥7.23॥
‘अन्तवत्तु फलं तेषां तद्भवत्यल्पमेधसाम्’ देवताओं की उपासना करने वाले अल्पबुद्धियुक्त मनुष्यों को अन्तवाला अर्थात् सीमित और नाशवान फल मिलता है। यहाँ शङ्का होती है कि भगवान के द्वारा विधान किया हुआ फल तो नित्य ही होना चाहिये फिर उनको अनित्य फल क्यों मिलता है ? इसका समाधान यह है कि एक तो उनमें नाशवान पदार्थों की कामना है और दूसरी बात वे देवताओं को भगवान से अलग मानते हैं। इसलिये उनको नाशवान फल मिलता है परन्तु उनको दो उपायों से अविनाशी फल मिल सकता है । एक तो वे कामना न रखकर (निष्काम भाव से) देवताओं की उपासना करें तो उनको अविनाशी फल मिल जायगा और दूसरा वे देवताओं को भगवान से भिन्न न समझकर अर्थात् भगवत्स्वरूप ही समझकर उनकी उपासना करें तो यदि कामना रह भी जायगी तो भी समय पाकर उनको अविनाशी फल मिल सकता है अर्थात् भगवत्प्राप्ति हो सकती है। यहाँ ‘तत्’ कहने का तात्पर्य है कि फल तो मेरा विधान किया हुआ ही मिलता है पर कामना होने से वह नाशवान हो जाता है। यहाँ ‘अल्पमेधसाम्’ कहने का तात्पर्य है कि उनको नियम तो अधिक धारण करने पड़ते हैं तथा विधियाँ भी अधिक करनी पड़ती हैं पर फल मिलता है सीमित और अन्तवाला परन्तु मेरी आराधना करने में इतने नियमों की जरूरत नहीं है तथा उतनी विधियों की भी आवश्यकता नहीं है पर फल मिलता है असीम और अनन्त। इस तरह देवताओं की उपासना में नियम हों अधिक , फल हो थोड़ा और हो जाय जन्ममरणरूप बन्धन और मेरी आराधना में नियम हों कम , फल हो अधिक और हो जाय कल्याण । ऐसा होने पर भी वे उन देवताओं की उपासना में लगते हैं और मेरी उपासना में नहीं लगते। इसलिये उनकी बुद्धि अल्प है , तुच्छ है। ‘देवान्देवयजो यान्ति मद्भक्ता यान्ति मामपि ‘ देवताओं का पूजन करने वाले देवताओं को प्राप्त होते हैं और मेरा पूजन करने वाले मेरे को ही प्राप्त होते हैं। यहाँ ‘अपि’ पद से यह सिद्ध होता है कि मेरी उपासना करने वालों की कामनापूर्ति भी हो सकती है और मेरी प्राप्ति तो हो ही जाती है अर्थात् मेरे भक्त सकाम हों या निष्काम वे सब के सब मेरे को ही प्राप्त होते हैं परन्तु भगवान की उपासना करने वालों की सभी कामनाएँ पूरी हो जायँ यह नियम नहीं है। भगवान उचित समझें तो पूरी कर भी दें और न भी करें अर्थात् उनका हित होता हो तो पूरी कर देते हैं और अहित होता हो तो कितना ही पुकारने पर तथा रोने पर भी पूरी नहीं करते। यह नियम है कि भगवान का भजन करने से भगवान के नित्यसम्बन्ध की स्मृति हो जाती है क्योंकि भगवान का सम्बन्ध सदा रहने वाला है। अतः भगवान की प्राप्ति होने पर फिर संसार में लौटकर नहीं आना पड़ता ‘यद्गत्वा न निवर्तन्ते'(15। 6)। परन्तु देवताओं का सम्बन्ध सदा रहने वाला नहीं है क्योंकि वह कर्मजनित है। अतः देवतालोक की प्राप्ति होने पर संसार में लौटकर आना ही पड़ता है ‘क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति’ (9। 21)। मेरा भजन करने वाले मेरे को ही प्राप्त होते हैं , इसी भाव को लेकर भगवान ने अर्थार्थी , आर्त , जिज्ञासु और ज्ञानी इन चारों प्रकार के भक्तों को सुकृती और उदार कहा है (7। 16 18)। यहाँ ‘मद्भक्ता यान्ति मामपि’ का तात्पर्य है कि जीव कैसे ही आचरणों वाला क्यों न हो अर्थात् वह दुराचारी से दुराचारी क्यों न हो , आखिर है तो मेरा ही अंश। उसने केवल आसक्ति और आग्रहपूर्वक संसार के साथ सम्बन्ध जोड़ लिया है। अगर संसार की आसक्ति और आग्रह न हो तो उसे मेरी प्राप्ति हो ही जायगी। विशेष बात – सब कुछ भगवत्स्वरूप ही है और भगवान का विधान भी भगवत्स्वरूप है । ऐसा होते हुए भी भगवान से भिन्न संसार की सत्ता मानना और अपनी कामना रखना – ये दोनों ही पतन के कारण हैं। इनमें से यदि कामना का सर्वथा नाश हो जाय तो संसार भगवत्स्वरूप दिखने लग जायगा और यदि संसार भगवत्स्वरूप दिखने लग जाय तो कामना मिट जायगी। फिर मात्र क्रियाओं के द्वारा भगवान की सेवा होने लग जायगी। अगर संसार का भगवत्स्वरूप दिखना और कामना का नाश होना – दोनों एक साथ हो जायँ तो फिर कहना ही क्या है । यद्यपि देवताओं की उपासना का फल सीमित और अन्तवाला होता है फिर भी मनुष्य उसमें क्यों उलझ जाते हैं ? भगवान में क्यों नहीं लगते ? इसका उत्तर आगे के श्लोक में देते हैं – स्वामी रामसुखदास जी