अध्याय सात: ज्ञान विज्ञान योग
दिव्य ज्ञान की अनुभूति द्वारा प्राप्त योग
24-30 भगवान के प्रभाव और स्वरूप को न जानने वालों की निंदा और जानने वालों की महिमा
येषां त्वन्तगतं पापं जनानां पुण्यकर्मणाम् ।
ते द्वन्द्वमोहनिर्मुक्ता भजन्ते मां दृढव्रताः ॥7.28॥
येषाम् – जिसका; तु–लेकिन; अन्तगतम्-पूर्ण विनाशः पापम्-पाप; जनानाम्- जीवों का; पुण्य-पवित्र; कर्मणाम्-गतिविधियाँ; ते–वे; द्वन्द्व-द्विविधताएँ; मोह-मोह; निर्मुक्ताः-से मुक्त; भजन्ते-आराधना करना; माम्-मुझको; दृढव्रताः-दृढसंकल्प।
परन्तु निष्काम भाव से पुण्य कर्मों में संलग्न रहने और श्रेष्ठ कर्मों में आचरण करने से जिन व्यक्तियों के पाप नष्ट हो जाते हैं, वे राग – द्वेष जनित द्वन्द्वों के मोह से मुक्त हो जाते हैं। ऐसे भक्त दृढ़ संकल्प के साथ मेरी भक्ति और पूजा करते हैं अर्थात सब प्रकार से मुझे भजते हैं ॥7.28॥
(‘येषां त्वन्तगतं पापं जनानां पुण्यकर्मणाम् ‘ द्वन्द्व-मोह से मोहित मनुष्य तो भजन नहीं करते और जो द्वन्द्व-मोह से मोहित नहीं हैं वे भजन करते हैं तो भजन न करने वालों की अपेक्षा भजन करने वालों की विलक्षणता बतानेके लिये यहाँ ‘तु’ पद आया है। जिन मनुष्यों ने अपने को तो भगवत्प्राप्ति ही करनी है इस उद्देश्य को पहचान लिया है अर्थात् जिनको उद्देश्य की यह स्मृति आ गयी है कि यह मनुष्य शरीर भोग भोगने के लिये नहीं है बल्कि भगवान की कृपा से केवल उनकी प्राप्ति के लिये ही मिला है , ऐसा जिनका दृढ़ निश्चय हो गया है , वे मनुष्य ही पुण्यकर्मा हैं। तात्पर्य यह हुआ कि अपने एक निश्चय से जो शुद्धि होती है , पवित्रता आती है वह यज्ञ , दान , तप आदि क्रियाओं से नहीं आती। कारण कि हमें तो एक भगवान की तरफ ही चलना है । यह निश्चय स्वयं में होता है और यज्ञ , दान आदि क्रियाएँ बाहर से होती हैं। ‘अन्तगतं पापम्’ कहने का भाव यह है कि जब यह निश्चय हो गया कि मेरे को तो केवल भगवान की तरफ ही चलना है तो इस निश्चय से भगवान की सम्मुखता होने से विमुखता चली गयी जिससे पापों की जड़ ही कट गयी क्योंकि भगवान से विमुखता ही पापों का खास कारण है। सन्तों ने कहा है कि डेढ़ ही पाप है और डेढ़ ही पुण्य है। भगवान से विमुख होना पूरा पाप है और दुर्गुण-दुराचारों में लगना आधा पाप है। ऐसे ही भगवान के सम्मुख होना पूरा पुण्य है और सद्गुण-सदाचारों में लगना आधा पुण्य है। तात्पर्य यह हुआ कि जब मनुष्य भगवान्के सर्वथा शरण हो जाता है तब उसके पापों का अन्त हो जाता है। दूसरा भाव यह है कि जिनका लक्ष्य केवल भगवान हैं वे पुण्यकर्मा हैं क्योंकि भगवान का लक्ष्य होने पर सब पाप नष्ट हो जाते हैं। भगवान का लक्ष्य होने पर पुराने किसी संस्कार से पाप हो भी जायगा तो भी वह रहेगा नहीं क्योंकि हृदय में विराजमान भगवान उस पाप को नष्ट कर देते हैं ‘विकर्म यच्चोत्पतितं कथञ्चिद् धुनोति सर्वं हृदि सन्निविष्टः ‘ (श्रीमद्भा0 11। 5। 42)। तीसरा भाव यह है कि मनुष्य सच्चे हृदय से यह दृढ़ निश्चय कर ले कि अब आगे मैं कभी पाप नहीं करूँगा तो उसके पाप नहीं रहते। ‘ते द्वन्द्वमोहनिर्मुक्ता भजन्ते मां दृढव्रताः’ पुण्यकर्मा लोग द्वन्द्वरूप मोह से रहित होकर और दृढ़व्रती होकर भगवान का भजन करते हैं। द्वन्द्व कई तरह का होता जैसे 1) भगवान में लगें या संसार में लगें क्योंकि परलोक के लिये भगवान का भजन आवश्यक है और इहलोक के लिये संसार का काम आवश्यक है। 2) वैष्णव , शैव , शाक्त , गाणपत और सौर इन सम्प्रदायों में से किस सम्प्रदाय में चलें और किस सम्प्रदाय में न चलें । 3 ) परमात्मा के स्वरूप के विषय में द्वैत-अद्वैत , विशिष्टाद्वैत , शुद्धाद्वैत , अचिन्त्यभेदाभेद आदि कई तरह के सिद्धान्त हैं। इनमें से किस सिद्धान्त को स्वीकार करें और किस सिद्धान्त को स्वीकार न करें। 4) परमात्मा की प्राप्ति के भक्तियोग , ज्ञानयोग , कर्मयोग , ध्यानयोग , हठयोग , लययोग , मन्त्रयोग आदि कई मार्ग हैं। उनमें से किस मार्ग पर चलें और किस मार्ग पर न चलें । 5 ) संसार में होने वाले अनुकूल-प्रतिकूल , हर्ष-शोक , ठीक-बेठीक , सुख- दुःख , राग-द्वेष आदि सभी द्वन्द्व हैं। उपर्युक्त सभी पारमार्थिक और सांसारिक द्वन्द्वरूप मोह से मुक्त हुए मनुष्य दृढ़व्रती होकर भगवान का भजन करते हैं। मनुष्य का एक ही पारमार्थिक उद्देश्य हो जाय तो पारमार्थिक और सांसारिक सभी द्वन्द्व मिट जाते हैं। पारमार्थिक उद्देश्य वाले साधक अपनी-अपनी रुचि , योग्यता और श्रद्धा-विश्वास के अनुसार अपने-अपने इष्ट को सगुण मानें , साकार मानें , निर्गुण मानें , निराकार मानें , द्विभुज मानें , चतुर्भुज मानें अथवा सहस्रभुज आदि कैसे ही मानें पर संसार की विमुखता में और परमात्मा की सम्मुखता में वे सभी एक हैं। उपासना की पद्धतियाँ भिन्न-भिन्न होने पर भी लक्ष्य सबका एक होने से कोई भी पद्धति छोटी-बड़ी नहीं है। जिस साधक का जिस पद्धति में श्रद्धा-विश्वास होता है उसके लिये वही पद्धति श्रेष्ठ है और उसको उसी पद्धति का ही अनुसरण करना चाहिये। परन्तु दूसरों की पद्धति या निष्ठ की निन्दा करना , उसको दो नम्बर का मानना दोष है। जब तक यह साधन विषयक द्वन्द्व रहता है और साधक में अपने पक्ष का आग्रह और दूसरों का निरादर रहता है तब तक साधक को भगवान के समग्ररूप का अनुभव नहीं होता। इसलिये आदर तो सब पद्धतियों और निष्ठाओं का करे पर अनुसरण अपनी पद्धति और निष्ठा का ही करे तो इससे साधनविषयक द्वन्द्व मिट जाता है। मनुष्यमात्र की यह प्रकृति होती है , ऐसा एक स्वभाव होता है कि जब वह पारमार्थिक बातें सुनता है तब वह यह समझता है कि साधन करके अपना कल्याण करना है क्योंकि मनुष्यजन्म की सफलता इसी में है परन्तु जब वह व्यवहार में आता है तब वह ऐसा सोचता है कि साधन-भजन से क्या होगा ? सांसारिक काम तो करना पड़ेगा क्योंकि संसार में बैठे हैं । चीज-वस्तु की आवश्यकता पड़ती है उसके बिना काम कैसे चलेगा ? अतः संसार का काम मुख्य रहेगा ही और भजन-स्मरण का नित्य-नियम तो समय पर कर लेना है क्योंकि सांसारिक काम की जितनी आवश्यकता है उतनी भजन-स्मरण , नित्य-नियम की नहीं। ऐसी धारणा रखकर भगवान में लगे हुए मनुष्य बहुत हैं। भगवान की तरफ चलने वालों में भी जिन्होंने एक निश्चय कर लिया है कि मेरे को तो अपना कल्याण करना है , सांसारिक लाभ-हानि कुछ भी हो जाय इसकी कोई परवाह नहीं। कारण कि सांसारिक जितनी भी सिद्धि है वह आँख मीचते ही कुछ नहीं है ‘सम्मीलने नयनयोर्नहि किञ्चिदस्ति’ और इन सांसारिक वस्तुओं को प्राप्त करने से कितने दिन तक हमारा काम चलेगा ? ऐसा विचार करके जो एक भगवान की तरफ ही लग जाते हैं और सांसारिक आदर-निरादर आदि की तरफ ध्यान नहीं देते ऐसे मनुष्य ही द्वन्द्वमोह से छूटे हुए हैं। ‘दृढ़व्रताः’ कहने का तात्पर्य है कि हमें तो केवल परमात्मा की तरफ ही चलना है । हमारा और कोई लक्ष्य है ही नहीं। वह परमात्मा द्वैत है कि अद्वैत है , शुद्धाद्वैत है कि विशिष्टाद्वैत है , सगुण है कि निर्गुण है , द्विभुज है कि चतुर्भुज है इससे हमें कोई मतलब नहीं है (टिप्पणी प0 440)। वह हमारे लिये कैसी भी परिस्थिति भेजे , हमें कहीं भी रखे और कैसे भी रखे इससे भी हमें कोई मतलब नहीं है। बस हमें तो केवल परमात्मा की तरफ चलना है , ऐसे निश्चय से वे दृढ़व्रती हो जाते हैं। परमात्मा की तरफ चलने वालों के सामने तीन बातें आती हैं । परमात्मा कैसे हैं ? जीव कैसा है ? और जगत् कैसा है ? तो उनके हृदय में इनका सीधा उत्तर यह होता है कि परमात्मा हैं। वे कहाँ रहते हैं ? क्या करते हैं ? आदि से हमें कोई मतलब नहीं । हमें तो परमात्मा से मतलब है। जीव क्या है ? उसका कैसा स्वरूप है ? वह कहाँ रहता है ? इससे हमें कोई मतलब नहीं। हमें तो इतना ही पर्याप्त है कि मैं हूँ। जगत् कैसा है ? ठीक है कि बेठीक है , हमें इससे कोई मतलब नहीं। हमें तो इतना ही समझना पर्याप्त है कि जगत् त्याज्य है और हमें इसका त्याग करना है। तात्पर्य यह हुआ कि परमात्मा की तरफ चलना है , संसार को छोड़ना है और हमें चलना है अर्थात् हमें संसार से विमुख होकर परमात्मा के सम्मुख होना है यही सम्पूर्ण दर्शनों का सार है और यही दृढ़व्रती होना है। दृढ़व्रती होने से उनके द्वन्द्व नष्ट हो जाते हैं क्योंकि एक निश्चय न होने से ही द्वन्द्व रहते हैं।दूसरा भाव है कि उनको न तो निर्गुण का ज्ञान है और न उनको सगुण के दर्शन हुए हैं किन्तु उनकी मान्यता में संसार निरन्तर नष्ट हो रहा है , निरन्तर अभाव में जा रहा है और सब देश , काल , वस्तु , व्यक्ति आदि में भावरूप से एक परमात्मा ही हैं । ऐसा मानकर वे दृढ़व्रती होकर भजन करते हैं। जैसे पतिव्रता स्त्री पति के परायण रहती है ऐसे ही भगवान के परायण रहना ही उनका भजन है। विशेष बात- शास्त्रों में , सन्तवाणी में और गीता में भी यह बात आती है कि पापी मनुष्य भगवान में प्रायः नहीं लग पाते पर यह एक स्वाभाविक सामान्य नियम है। वास्तव में कितने ही पाप क्यों न हों वे भगवान से विमुख कर ही नहीं सकते क्योंकि जीव साक्षात् भगवान का अंश है। अतः उसकी शुद्धि पापों से आच्छादित भले ही हो जाय पर मिट नहीं सकती। इसलिये दुराचारी भी दुराचार छोड़कर भगवान के भजन में लग जाय तो वह बहुत जल्दी धर्मात्मा (भक्त ) हो जाता है ‘क्षिप्रं भवति धर्मात्मा’ (टिप्पणी प0 441) (गीता 9। 31)। अतः मनुष्य को कभी भी ऐसा नहीं मानना चाहिये कि पुराने पापों के कारण मेरे से भजन नहीं हो रहा है क्योंकि पुराने पाप केवल प्रतिकूल परिस्थिति रूप फल देने के लिये होते हैं , भजन में बाधा देने के लिये नहीं। प्रतिकूल परिस्थिति देकर वे पाप नष्ट हो जाते हैं। अगर ऐसा मान लिया जाय कि पापों के कारण ही भजन नहीं होता तो ‘अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक्’ (गीता 9। 30) दुराचारी से दुराचारी पुरुष अनन्यभाव से मेरा भजन करता है यह कहना बन नहीं सकता। पापों के कारण अगर भजन-ध्यान में बाधा लग जाय तो बड़ी मुश्किल हो जायगी क्योंकि बिना पाप के कोई प्राणी है ही नहीं। पाप-पुण्य से ही मनुष्यशरीर मिलता है। इससे सिद्ध होता है कि पुराने पाप भजन में बाधक नहीं हो सकते। इसलिये जो दृढ़व्रती पुरुष भगवान के शरण होकर वर्तमान में भगवान के भजन में लग जाते हैं उनके पुराने पापों का अन्त हो जाता है। मनुष्यशरीर भजन करने के लिये ही मिला है अतः जो परिस्थितियाँ शरीर तक रहने वाली हैं , वे भजन में बाधा पहुँचायें , ऐसा कभी सम्भव ही नहीं है। सकाम पुण्यकर्मों की मुख्यता होने से जीव स्वर्ग में जाते हैं और पापकर्मों की मुख्यता होने से नरकों में जाते हैं। परन्तु भगवान विशेष कृपा करके पापों और पुण्यों का पूरा फलभोग न होने पर भी अर्थात् चौरासी लाख योनियों के बीच में ही जीव को मनुष्यशरीर दे देते हैं। मनुष्यशरीर में भगवद्भजन का अवसर विशेषता से प्राप्त होता है। अतः मनुष्यशरीर प्राप्त होने पर भगवत्प्राप्ति की तरफ से कभी निराश नहीं होना चाहिये क्योंकि भगवत्प्राप्ति के लिये ही मनुष्यशरीर मिलता है। यह मनुष्यशरीर भोगयोनि नहीं है। इसको सामान्यतः कर्मयोनि कहते हैं परन्तु संतों की वाणी और सिद्धान्तों के अनुसार मनुष्यशरीर केवल भगवत्प्राप्ति के लिये ही है। इसमें पुराने पुण्यों के अनुसार जो अनुकूल परिस्थिति आती है और पुराने पापों के अनुसार जो प्रतिकूल परिस्थिति आती है ये दोनों ही केवल साधनसामग्री हैं। इन दोनों में से अनुकूल परिस्थिति आने पर दुनिया की सेवा करना और प्रतिकूल परिस्थिति आने पर अनुकूलता की इच्छा का त्याग करना यह साधक का काम है। ऐसा करने से ये दोनों ही परिस्थितियाँ साधनसामग्री हो जायँगी। इनमें भी देखा जाय तो अनुकूल परिस्थिति में पुराने पुण्यों का नाश होता है और वर्तमान में भोगों में फँसने की सम्भावना भी रहती है परन्तु प्रतिकूल परिस्थिति में पुराने पापों का नाश होता है और वर्तमान में अधिक सजगता सावधानी रहती है जिससे साधन सुगमता से बनता है। इस दृष्टि से संतजन सांसारिक प्रतिकूल परिस्थिति का आदर करते आये हैं। सातवें अध्याय के आरम्भ में भगवान ने साधक के लिये तीन बातें कही थीं ‘मय्यासक्तमनाः ‘ मेरे में प्रेम करके और ‘मदाश्रयः’ मेरा आश्रय लेकर ‘योगं युञ्जन्’ योग का अनुष्ठान करता है । वह मेरे समग्ररूप को जान जाता है। उन्हीं तीन बातों का उपसंहार अब आगे के दो श्लोकों में करते हैं – स्वामी रामसुखदास जी )