अध्याय सात: ज्ञान विज्ञान योग
दिव्य ज्ञान की अनुभूति द्वारा प्राप्त योग
1-7 विज्ञान सहित ज्ञान का विषय, ईश्वर की व्यापकता
भूममिरापोऽनलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च ।
अहङ्कार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा ॥7.4॥
भूमिः-पृथ्वी; आप:-जल; अनल:-अग्नि; वायु:-वायुः खम्-आकाश; मन:-मन; बुद्धिः-बुद्धि; एव–निश्चय ही; च-और; अहंकारः-अहम्; इति–इस प्रकार; इयम्-ये सब; मे-मेरी; भिन्ना-पृथक्; प्रकृतिः-भौतिक शक्तियाँ; अष्टधा-आठ प्रकार की।
पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश ये पांच महाभूत और मन, बुद्धि तथा अहंकार ये सब मेरी आठ प्रकार के भेदों वाली प्राकृत शक्ति अर्थात अपरा शक्ति के आठ तत्त्व हैं॥7.4॥
(‘भूमिरापोऽनलो वायुः ৷৷. विद्धि मे पराम्’ परमात्मा सबके कारण हैं। वे प्रकृति को लेकर सृष्टि की रचना करते हैं (टिप्पणी प0 397.1)। जिस प्रकृति को लेकर रचना करते हैं उसका नाम अपरा प्रकृति है और अपना अंश जो जीव है उसको भगवान् परा प्रकृति कहते हैं। अपरा प्रकृति निकृष्ट , जड और परिवर्तनशील है तथा परा प्रकृति श्रेष्ठ , चेतन और परिवर्तनशील है। प्रत्येक मनुष्य का भिन्न-भिन्न स्वभाव होता है। जैसे स्वभाव को मनुष्य से अलग सिद्ध नहीं कर सकते , ऐसे ही परमात्मा की प्रकृति को परमात्मा से अलग (स्वतन्त्र) सिद्ध नहीं कर सकते। यह प्रकृति प्रभु का ही एक स्वभाव है , इसलिये इसका नाम प्रकृति है। इसी प्रकार परमात्मा का अंश होने से जीव को परमात्मा से भिन्न सिद्ध नहीं कर सकते क्योंकि यह परमात्मा का स्वरूप है। परमात्मा का स्वरूप होने पर भी केवल अपरा प्रकृति के साथ सम्बन्ध जोड़ने के कारण इस जीवात्मा को प्रकृति कहा गया है। अपरा प्रकृति के सम्बन्ध से अपने में कृति (करना) मानने के कारण ही यह जीवरूप है। अगर यह अपने में कृति न माने तो यह परमात्मस्वरूप ही है । फिर इसकी जीव या प्रकृति संज्ञा नहीं रहती अर्थात् इसमें बन्धनकारक कर्तृत्व और भोक्तृत्व नहीं रहता (गीता 18। 17)। यहाँ अपरा प्रकृति में पृथ्वी , जल , तेज , वायु , आकाश , मन , बुद्धि और अहंकार ये आठ शब्द लिये गये हैं। इनमें से अगर पाँच स्थूल भूतों से स्थूल सृष्टि मानी जाय तथा मन , बुद्धि और अहंकार इन तीनों से सूक्ष्म सृष्टि मानी जाय तो इस वर्णन में स्थूल और सूक्ष्म सृष्टि तो आ जाती है पर कारणरूप प्रकृति इसमें नहीं आती। कारणरूप प्रकृति के बिना प्रकृति का वर्णन अधूरा रह जाता है। अतः आदरणीय टीकाकारों ने पाँच स्थूल भूतों से सूक्ष्म पञ्चतन्मात्राओं (शब्द , स्पर्श , रूप , रस और गन्ध ) को लिया है जो कि पाँच स्थूल भूतों की कारण हैं। मन शब्द से अहंकार लिया है जो कि मन का कारण है। बुद्धि शब्द से महत्तत्त्व (समष्टि बुद्धि) और अहंकार शब्द से प्रकृति ली गयी है। इस प्रकार इन आठ शब्दों का ऐसा अर्थ लेने से ही समष्टि अपरा प्रकृति का पूरा वर्णन होता है क्योंकि इसमें स्थूल , सूक्ष्म और कारण ये तीनों समष्टि शरीर आ जाते हैं। शास्त्रों में इसी समष्टि प्रकृति का प्रकृति-विकृति के नाम से वर्णन किया गया है (टिप्पणी प0 397.2) परन्तु यहाँ एक बात ध्यान देने की है कि भगवान ने यहाँ अपरा और परा प्रकृति का वर्णन प्रकृति-विकृति की दृष्टि से नहीं किया है। यदि भगवान् प्रकृति-विकृति की दृष्टि से वर्णन करते तो चेतन को प्रकृति के नाम से कहते ही नहीं क्योंकि चेतन न तो प्रकृति है और न विकृति है। इससे सिद्ध होता है कि भगवान ने यहाँ जड और चेतन का विभाग बताने के लिये ही अपरा प्रकृति के नाम से जड का और परा प्रकृति के नाम से चेतन का वर्णन किया है। यहाँ यह आशय मालूम देता है कि पृथ्वी , जल , तेज , वायु और आकाश इन पाँच तत्त्वों के स्थूलरूप से स्थूल सृष्टि ली गयी है और इनका सूक्ष्मरूप जो पञ्चतन्मात्राएँ कही जाती हैं उनसे सूक्ष्मसृष्टि ली गयी है। सूक्ष्मसृष्टि के अङ्ग , मन , बुद्धि और अहंकार हैं। अहंकार दो प्रकार का होता है (1) अहं – अहं करके अन्तःकरण की वृत्ति का नाम भी अहंकार है जो कि करणरूप है। यह हुई अपरा प्रकृति जिसका वर्णन यहाँ चौथे श्लोक में हुआ है और (2) अहम्रूप से व्यक्तित्व एकदेशीयता का नाम भी अहंकार है जो कि कर्तारूप है अर्थात् अपने को क्रियाओं का करने वाला मानता है। यह हुई परा प्रकृति जिसका वर्णन यहाँ पाँचवें श्लोक में हुआ है। यह अहंकार कारणशरीर में तादात्म्यरूप से रहता है। इस तादात्म्य में एक जड अंश है और एक चेतन अंश है। इसमें जो जड अंश है वह कारणशरीर है और उसमें जो अभिमान करता है वह चेतन अंश है। जब तक बोध नहीं होता तब तक यह जड-चेतन के तादात्म्य वाला कारणशरीर का अहम् कर्तारूप से निरन्तर बना रहता है। सुषुप्ति के समय यह सुप्तरूप से रहता है अर्थात् प्रकट नहीं होता। नींद से जगने पर मैं सोया था ,अब जाग्रत् हुआ हूँ । इस प्रकार अहम् की जागृति होती है। इसके बाद मन और बुद्धि जाग्रत् होते हैं – जैसे मैं कहाँ हूँ ? कैसे हूँ ? यह मन की जागृति हुई और मैं इस देश में , इस समय में हूँ ऐसा निश्चय होना बुद्धि की जागृति हुई। इस प्रकार नींद से जगने पर जिसका अनुभव होता है वह अहम् परा प्रकृति है और वृत्तिरूप जो अहंकार है वह अपरा प्रकृति है। इस अपरा प्रकृति को प्रकाशित करने वाला और आश्रय देने वाला चेतन जब अपरा प्रकृति को अपनी मान लेता है तब वह जीवरूप परा प्रकृति होती है ‘ययेदं धार्यते जगत्।’ अगर यह परा प्रकृति अपरा प्रकति से विमुख होकर परमात्मा के ही सम्मुख हो जाय , परमात्मा को ही अपना माने और अपरा प्रकृति को कभी भी अपना न माने अर्थात् अपरा प्रकृति से सर्वथा सम्बन्धरहित होकर निर्लिप्तता का अनुभव कर ले तो इसको अपने स्वरूप का बोध हो जाता है। स्वरूप का बोध हो जाने पर परमात्मा का प्रेम प्रकट हो जाता है (टिप्पणी प0 398) जो कि पहले अपरा प्रकृति से सम्बन्ध रखने से आसक्ति और कामना के रूप में था। वह प्रेम अनन्त , अगाध , असीम , आनन्दरूप और प्रतिक्षण वर्धमान है। उसकी प्राप्ति होने से यह परा प्रकृति प्राप्त-प्राप्तव्य हो जाती है , अपने असङ्गरूप का अनुभव होने से ज्ञात-ज्ञातव्य हो जाती है और अपरा प्रकृति को संसारमात्र की सेवा में लगाकर संसार से सर्वथा विमुख होने से कृतकृत्य हो जाती है। यही मानवजीवन की पूर्णता है , सफलता है – स्वामी रामसुखदास जी )