अध्याय सात: ज्ञान विज्ञान योग
दिव्य ज्ञान की अनुभूति द्वारा प्राप्त योग
08-12 संपूर्ण पदार्थों में कारण रूप से भगवान की व्यापकता का कथन
रसोऽहमप्सु कौन्तेय प्रभास्मि शशिसूर्ययोः ।
प्रणवः सर्ववेदेषु शब्दः खे पौरुषं नृषु ॥7.8॥
रसः-स्वाद; अहम्–मैं; अप्सु-जल में; कौन्तेय-कुन्तीपुत्र, अर्जुन; प्रभा–प्रकाश; अस्मि-हूँ; शशिसूर्ययो:-चन्द्रमा तथा सूर्य का; प्रणवः-पवित्र मंत्र ॐ ; सर्व-सारे; वेदेषु–वेद; शब्दः-ध्वनि; खे-व्योम में; पौरूषम्-सामर्थ्य; नृषु-मनुष्यों में।
हे कुंती पुत्र ! मैं जल में रस हूँ, चन्द्रमा और सूर्य में प्रकाश हूँ, सम्पूर्ण वेदों में प्रणव ( पवित्र मंत्र ) अर्थात ओंकार (ॐ) हूँ, आकाश में शब्द और पुरुषों में पुरुषार्थ ( पुरुषत्व / पौरुष ) अर्थात सामर्थ्य हूँ॥7.8॥
( जैसे साधारण दृष्टि से लोगों ने रुपयों को ही सर्वश्रेष्ठ मान रखा है तो रुपये पैदा करने और उनका संग्रह करने में लोभी आदमी की स्वाभाविक रुचि हो जाती है। ऐसे ही देखने , सुनने , मानने और समझने में जो कुछ जगत् आता है उसका कारण भगवान् हैं (7। 6) भगवान के सिवाय उसकी स्वतन्त्र सत्ता है ही नहीं । ऐसा मानने से भगवान में स्वाभाविक रुचि हो जाती है। फिर स्वाभाविक ही उनका भजन होता है। यही बात 10वें अध्याय के 8वें श्लोक में कही है कि मैं सम्पूर्ण संसार का कारण हूँ , मेरे से ही संसार की उत्पत्ति होती है। ऐसा समझकर बुद्धिमान् मनुष्य मेरा भजन करते हैं। ऐसे ही 18वें अध्याय के 46वें श्लोक में कहा है कि जिस परमात्मा से सम्पूर्ण जगत् की प्रवृत्ति होती है और जिससे सारा संसार व्याप्त है उस परमात्मा का अपने कर्मों के द्वारा पूजन करके मनुष्य सिद्धि को प्राप्त कर लेता है। इसी सिद्धान्त को बताने के लिये यह प्रकरण आया है। ‘रसोऽहमप्सु कौन्तेय’ हे कुन्तीनन्दन ! जलों में मैं रस हूँ। जल रसतन्मात्रा से (टिप्पणी प0 403) पैदा होता है , रसतन्मात्रामें रहता है और रसतन्मात्रा में ही लीन होता है। जल में से अगर रस निकाल दिया जाय तो जलतत्त्व कुछ नहीं रहेगा। अतः रस ही जलरूप से है। वह रस मैं हूँ। ‘प्रभास्मि शशिसूर्ययोः’ चन्द्रमा और सूर्य में प्रकाश करने की जो एक विलक्षण शक्ति प्रभा है (टिप्पणी प0 404) वह मेरा स्वरूप है। प्रभा रूपतन्मात्रा से उत्पन्न होती है , रूपतन्मात्रामें रहती है और अन्त में रूपतन्मात्रा में ही लीन हो जाती है। अगर चन्द्रमा और सूर्य में से प्रभा निकाल दी जाय तो चन्द्रमा और सूर्य निस्तत्त्व हो जायँगे। तात्पर्य है कि केवल प्रभा ही चन्द्र और सूर्यरूप से प्रकट हो रही है। भगवान् कहते हैं कि वह प्रभा भी मैं ही हूँ। ‘प्रणवः सर्ववेदेषु ‘ सम्पूर्ण वेदों में प्रणव (ओंकार) मेरा स्वरूप है। कारण कि सबसे पहले प्रणव प्रकट हुआ। प्रणव से त्रिपदा गायत्री और त्रिपदा गायत्री से वेदत्रयी प्रकट हुई है। इसलिये वेदों में सार प्रणव ही रहा। अगर वेदों में से प्रणव निकाल दिया जाय तो वेद वेदरूप से नहीं रहेंगे। प्रणव ही वेद और गायत्रीरूप से प्रकट हो रहा है। वह प्रणव मैं ही हूँ। ‘शब्दः खे ‘ सब जगह यह जो पोलाहट दिखती है यह आकाश है। आकाश शब्दतन्मात्रा से पैदा होता है , शब्दतन्मात्रामें ही रहता है और अन्त में शब्दतन्मात्रा में ही लीन हो जाता है। अतः शब्दतन्मात्रा ही आकाशरूप से प्रकट हो रही है। शब्दतन्मात्रा के बिना आकाश कुछ नहीं है। वह शब्द मैं ही हूँ। ‘पौरुषं नृषु’ मनुष्यों में सार चीज जो पुरुषार्थ है वह मेरा स्वरूप है। वास्तव में नित्यप्राप्त परमात्मतत्त्व का अनुभव करना ही मनुष्यों में असली पुरुषार्थ है परन्तु मनुष्यों ने अप्राप्त को प्राप्त करने में ही अपना पुरुषार्थ मान रखा है – जैसे निर्धन आदमी धन की प्राप्ति में पुरुषार्थ मानता है , अनपढ़ आदमी पढ़ लेने में पुरुषार्थ मानता है , अप्रसिद्ध आदमी अपना नाम विख्यात कर लेने में अपना पुरुषार्थ मानता है इत्यादि। निष्कर्ष यह निकला कि जो अभी नहीं है उसकी प्राप्ति में ही मनुष्य अपना पुरुषार्थ मानता है। पर यह पुरुषार्थ वास्तव में पुरुषार्थ नहीं है। कारण कि जो पहले नहीं थे , प्राप्ति के समय भी जिनका निरन्तर सम्बन्ध-विच्छेद हो रहा है और अन्त में जो नहीं में भर्ती हो जायँगे , ऐसे पदार्थों को प्राप्त करना पुरुषार्थ नहीं है। परमात्मा पहले भी मौजूद थे , अब भी मौजूद हैं और आगे भी सदा मौजूद रहेंगे क्योंकि उनका कभी अभाव नहीं होता। इसलिये परमात्मा को उत्साहपूर्वक प्राप्त करने का जो प्रयत्न है वही वास्तव में पुरुषार्थ है। उसकी प्राप्ति करने में ही मनुष्यों की मनुष्यता है। उसके बिना मनुष्य कुछ नहीं है अर्थात् निरर्थक है – स्वामी रामसुखदास जी )