श्रद्धात्रयविभागयोग- सत्रहवाँ अध्याय
Chapter 17: Śhraddhā Traya Vibhāg Yog
श्रद्धा और शास्त्रविपरीत घोर तप करने वालों का विषय
सत्त्वानुरूपा सर्वस्य श्रद्धा भवति भारत।
श्रद्धामयोऽयं पुरुषो यो यच्छ्रद्धः स एव सः।।17.3।।
सत्त्वानुरूपा-मनुष्य के मन की प्रकृति के अनुसार; सर्वस्य-सब; श्रद्धा-विश्वास, निष्ठा; भवति-हो जाती है; भारत-भरतपुत्र, अर्जुन; श्रद्धामयः-श्रद्धा से युक्त; अवम्-यह; पुरुष:-मनुष्य; यः-जो; यत् श्रद्धा-अपनी अपनी आस्था के अनुसार; स-उनकी; एव-निश्चय ही; सः-वे
हे भारत ! सभी मनुष्यों की श्रद्धा उनके अन्तःकरण ( सत्व ) या उनके मन की प्रकृति , स्वभाव और संस्कार के अनुरूप होती है। प्रत्येक मनुष्य श्रद्धा से युक्त है चाहे उसकी श्रद्धा की प्रकृति कैसी भी हो। वास्तव में उनकी श्रद्धा वैसी ही होती है जैसे वे स्वयं वास्तव में है। इसलिये जो जैसी श्रद्धावाला है, वही उसका सत्य स्वरूप है अर्थात् वही उसकी निष्ठा या स्थिति है ৷৷17.3॥
सत्त्वानुरूपा सर्वस्य श्रद्धा भवति भारत – पीछे के श्लोक में जिसे ‘स्वभावजा ‘ कहा गया है उसी को यहाँ ‘सत्त्वानुरूपा’ कहा है। सत्त्व नाम अन्तःकरण का है। अन्तःकरण के अनुरूप श्रद्धा होती है अर्थात् अन्तःकरण जैसा होता है उसमें सात्त्विक , राजस या तामस जैसे संस्कार होते हैं वैसी ही श्रद्धा होती है। दूसरे श्लोक में जिनको ‘देहिनाम्’ पद से कहा था उन्हीं को यहाँ ‘सर्वस्य’ पद से कह रहे हैं। ‘सर्वस्य’ पद का तात्पर्य है कि जो शास्त्रविधि को न जानते हों और देवता आदि का पूजन करते हों – उनकी ही नहीं प्रत्युत जो शास्त्रविधि को जानते हों या न जानते हों , मानते हों या न मानते हों , अनुष्ठान करते हों या न करते हों , किसी जाति के , किसी वर्ण के , किसी आश्रम के , किसी सम्प्रदाय के , किसी देश के , कोई व्यक्ति कैसे ही क्यों न हों – उन सभी की स्वाभाविक श्रद्धा तीन प्रकार की होती है।श्रद्धामयोऽयं पुरुषः – यह मनुष्य श्रद्धाप्रधान है। अतः जैसी उसकी श्रद्धा होगी वैसा ही उसका रूप होगा। उससे जो प्रवृत्ति होगी वह श्रद्धा को लेकर श्रद्धा के अनुसार ही होगी। यो यच्छ्रद्धः स एव सः – जो मनुष्य जैसी श्रद्धावाला है वैसी ही उसकी निष्ठा होगी और उसके अनुसार ही उसकी गति होगी। उसका प्रत्येक भाव और क्रिया अन्तःकरण की श्रद्धा के अनुसार ही होगी। जब तक वह संसार से सम्बन्ध रखेगा तब तक अन्तःकरण के अनुरूप ही उसका स्वरूप होगा ।मार्मिक बात- मनुष्य की सांसारिक प्रवृत्ति संसार के पदार्थों को सच्चा मानने , देखने , सुनने और भोगने से होती है तथा पारमार्थिक प्रवृत्ति परमात्मा में श्रद्धा करने से होती है। जिसे हम अपने अनुभव से नहीं जानते पर पूर्व के स्वाभाविक संस्कारों से , शास्त्रों से , संत-महात्माओं से सुनकर पूज्यभावसहित विश्वास कर लेते हैं उसका नाम है – श्रद्धा। श्रद्धा को लेकर ही आध्यात्मिक मार्ग में प्रवेश होता है फिर चाहे वह मार्ग कर्मयोग का हो चाहे ज्ञानयोग का हो और चाहे भक्तियोग का हो , साध्य और साधन – दोनों पर श्रद्धा हुए बिना आध्यात्मिक मार्ग में प्रगति नहीं होती। मनुष्य जीवन में श्रद्धा की बड़ी मुख्यता है। मनुष्य जैसी श्रद्धा वाला है वैसा ही उसका स्वरूप , उसकी निष्ठा है – यो यच्छ्रद्धः स एव सः (गीता 17। 3)। वह आज वैसा न दिखे तो भी क्या समय पाकर वह वैसा बन ही जायगा। आजकल साधक के लिये अपनी स्वाभाविक श्रद्धा को पहचानना बड़ा मुश्किल हो गया है। कारण कि अनेक मत-मतान्तर हो गये हैं। कोई ज्ञान की प्रधानता कहता है , कोई भक्ति की प्रधानता कहता है , कोई योग की प्रधानता कहता है आदि आदि। ऐसे तरह-तरह के सिद्धान्त पढ़ने और सुनने से मनुष्य पर उनका असर पड़ता है जिससे वह किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाता है कि मैं क्या करूँ ? मेरा वास्तविक ध्येय , लक्ष्य क्या है ? मेरे को किधर चलना चाहिये ? ऐसी दशा में उसे गहरी रीति से अपने भीतर के भावों पर विचार करना चाहिये कि सङ्ग से बनी हुई रुचि , शास्त्र से बनी हुई रुचि , किसी के सिखाने से बनी हुई रुचि , गुरु के बताने से बनी हुई रुचि – ऐसी जो अनेक रुचियाँ हैं उन सबके मूल में स्वतः उद्बुद्ध होने वाली अपनी स्वाभाविक रुचि क्या है ? मूल में सबकी स्वाभाविक रुचि यह होती है कि मैं सम्पूर्ण दुःखों से छूट जाऊँ और मुझे सदा के लिये महान सुख मिल जाय। ऐसी रुचि हरेक प्राणी के भीतर रहती है। मनुष्यों में तो यह रुचि कुछ जाग्रत् रहती है। उनमें पिछले जन्मों के जैसे संस्कार हैं और इस जन्म में वे जैसे माता-पिता से पैदा हुए , जैसे वायुमण्डल में रहे , जैसी उनको शिक्षा मिली , जैसे उनके सामने दृश्य आये और वे जो ईश्वर की बातें , परलोक तथा पुनर्जन्म की बातें , मुक्ति और बन्धन की बातें , सत्सङ्ग और कुसङ्ग की बातें सुनते रहते हैं उन सबका उन पर अदृश्यरूप से असर पड़ता है। उस असर से उनकी एक धारणा बनती है। उनकी सात्त्विकी , राजसी या तामसी – जैसी प्रकृति होती है उसी के अनुसार वे उस धारणा को पकड़ते हैं और उस धारणा के अनुसार ही उनकी रुचि – श्रद्धा बनती है। इसमें सात्त्विकी श्रद्धा परमात्मा की तरफ लगाने वाली होती है और राजसी-तामसी श्रद्धा संसार की तरफ। गीता में जहाँ कहीं सात्त्विकता का वर्णन हुआ है वह परमात्मा की तरफ ही लगाने वाली है। अतः सात्त्विकी श्रद्धा पारमार्थिक हुई और राजसी-तामसी श्रद्धा सांसारिक हुई अर्थात् सात्त्विकी श्रद्धा दैवीसम्पत्ति हुई और राजसी-तामसी श्रद्धा आसुरी सम्पत्ति हुई। दैवीसम्पत्ति को प्रकट करने और आसुरीसम्पत्ति का त्याग करने के उद्देश्य से 17वाँ अध्याय चला है। कारण कि कल्याण चाहने वाले मनुष्य के लिये सात्त्विकी श्रद्धा (दैवीसम्पत्ति) ग्राह्य है और राजसी-तामसी श्रद्धा (आसुरीसम्पत्ति) त्याज्य है। जो मनुष्य अपना कल्याण चाहता है उसकी श्रद्धा सात्त्विकी होती है , जो मनुष्य इस जन्म में तथा मरने के बाद भी सुख-सम्पत्ति (स्वर्गादि) को चाहता है उसकी श्रद्धा राजसी होती है और जो मनुष्य पशुओं की तरह (मूढ़तापूर्वक) केवल खाने-पीने , भोग भोगने तथा प्रमाद , आलस्य , निद्रा , खेल-कूद , तमाशे आदि में लगा रहता है उसकी श्रद्धा तामसी होती है। सात्त्विकी श्रद्धा के लिये सबसे पहली बात है कि परमात्मा है। शास्त्रों से , संत-महात्माओं से , गुरुजनों से सुनकर पूज्यभाव के सहित ऐसा विश्वास हो जाय कि परमात्मा है और उसको प्राप्त करना है – इसका नाम श्रद्धा है। ठीक श्रद्धा जहाँ होती है वहाँ प्रेम स्वतः हो जाता है। कारण कि जिस परमात्मा में श्रद्धा होती है उसी परमात्मा का अंश यह जीवात्मा है। अतः श्रद्धा होते ही यह परमात्मा की तरफ खिंचता है। अभी यह परमात्मा से विमुख होकर जो संसारमें लगा हुआ है वह भी संसार में श्रद्धा-विश्वास होने से ही है। पर यह वास्तविक श्रद्धा नहीं है प्रत्युत श्रद्धा का दुरुपयोग है। जैसे संसार में यह रुपयों पर विशेष श्रद्धा करता है कि इनसे सब कुछ मिल जाता है। यह श्रद्धा कैसे हुई ? कारण कि बचपन में खाने और खेलने के पदार्थ पैसों से मिलते थे। ऐसा देखते-देखते पैसों को ही मुख्य मान लिया और उसी में श्रद्धा कर ली जिससे यह बहुत ही पतन की तरफ चला गया। यह सांसारिक श्रद्धा हुई। इससे ऊँची धार्मिक श्रद्धा होती है कि मैं अमुक वर्ण , आश्रम आदि का हूँ परन्तु सबसे ऊँची श्रद्धा पारमर्थिक (परमात्मा को लेकर) है। यही वास्तविक श्रद्धा है और इसी से कल्याण होता है। शास्त्रों में , सन्त-महात्माओं में , तत्त्वज्ञ जीवन्मुक्तों में जो श्रद्धा होती है वह भी पारमार्थिक श्रद्धा ही है (टिप्पणी प0 836)। जिनको शास्त्रों का ज्ञान नहीं है और सन्त-महात्माओं का सङ्ग भी नहीं है ऐसे मनुष्यों की भी पूर्वसंस्कार के कारण पारमार्थिक श्रद्धा हो सकती है। इसकी पहचान क्या है ? पहचान यह है कि ऐसे मनुष्यों के भीतर स्वाभाविक यह भाव होता है कि ऐसी कोई महान चीज (परमात्मा) है जो दिखती तो नहीं पर है अवश्य। ऐसे मनुष्यों को स्वाभाविक ही पारमार्थिक बातें बहुत प्रिय लगती हैं और वे स्वाभाविक ही यज्ञ , दान , तप , तीर्थ , व्रत , सत्सङ्ग , स्वाध्याय आदि शुभ कर्मों में प्रवृत्त होते हैं। यदि वे ऐसे कर्म न भी करें तो भी सात्त्विक आहार में स्वाभाविक रुचि होने से उनकी श्रद्धा की पहचान हो जाती है। मनुष्य , पशु-पक्षी , लता-वृक्ष आदि जितने भी स्थावर-जङ्गम प्राणी हैं वे किसी न किसी को (किसी न किसी अंश में) अपने से बड़ा अवश्य मानते हैं और बड़ा मानकर उसका सहारा लेते हैं। मनुष्य पर जब आफत आती है तब वह किसी को अपने से बड़ा मानकर उसका सहारा लेता है। पशु-पक्षी भी अपनी रक्षा चाहते हैं और भयभीत होने पर किसी का सहारा लेते हैं। लता भी किसी का सहारा लेकर ही ऊँची चढ़ती है। इस प्रकार जिसने किसी को बड़ा मानकर उसका सहारा लिया उसने वास्तव में ईश्वरवाद के सिद्धान्त को स्वीकार कर ही लिया चाहे वह ईश्वरको माने या न माने। इसलिये आयु , विद्या , गुण , बुद्धि , योग्यता , सामर्थ्य , पद , अधिकार , ऐश्वर्य आदि में से एक-एक से बड़ा देखे तो बड़प्पन देखते-देखते अन्त में बड़प्पन की जहाँ समाप्ति हो वहीं ईश्वर है क्योंकि बड़े से बड़ा ईश्वर है। उससे बड़ा कोई है ही नहीं – पूर्वेषामपि गुरुः कालेनानवच्छेदात्। (योगदर्शन 1। 26) वह परमात्मा सबके पूर्वजों का भी गुरु है क्योंकि उसका काल से अवच्छेद नहीं है अर्थात् वह काल की सीमा से बाहर है। इस प्रकार प्रत्येक मनुष्य अपनी दृष्टि से किसी न किसी को बड़ा मानता है। ब़ड़प्पन की यह मान्यता अपने-अपने अन्तःकरण के भावों के अनुसार अलग-अलग होती है। इस कारण उनकी श्रद्धा भी अलग-अलग होती है। श्रद्धा अन्तःकरण के अनुरूप ही होती है। धारणा , मान्यता , भावना आदि सभी अन्तःकरण में रहते हैं। इसलिये अन्तःकरण में सात्त्विक , राजस या तामस जिस गुण की प्रधानता रहती है उसी गुण के अनुसार धारणा , मान्यता आदि बनती है और उस धारणा , मान्यता आदि के अनुसार ही तीन प्रकार की (सात्त्विकी , राजसी या तामसी) श्रद्धा बनती है। सात्त्विक , राजस और तामस – तीनों गुण सभी प्राणियों में रहते हैं (गीता 18। 40)। उन प्राणियों में किसी में सत्त्वगुण की प्रधानता होती है , किसी में रजोगुण की प्रधानता होती है और किसी में तमोगुण की प्रधानता होती है। अतः यह नियम नहीं है कि सत्त्वगुण की प्रधानता वाले मनुष्य में रजोगुण और तमोगुण न आयें , रजोगुण की प्रधानता वाले मनुष्य में सत्त्वगुण और तमोगुण न आयें तथा तमोगुण की प्रधानता वाले मनुष्य में सत्त्वगुण और रजोगुण न आयें (गीता 14। 10)। कारण कि प्रकृति परिवर्तनशील है – प्रकर्षेण करणं (भावे ल्युट्) इति प्रकृतिः। इसलिये प्रकृतिजन्य गुणों में भी परिवर्तन होता रहता है। अतः एकमात्र परमात्मप्राप्ति के उद्देश्य वाले साधक को चाहिये कि वह उन आने-जाने वाले गुणों से अपना सम्बन्ध मानकर उनसे विचलित न हो। जीवमात्र परमात्मा का अंश है। इसलिये किसी मनुष्य में रजोगुण-तमोगुण की प्रधानता देखकर उसे नीचा नहीं मान लेना चाहिये क्योंकि कौन सा मनुष्य किस समय समुन्नत हो जाय – इसका कुछ पता नहीं है। कारण कि परमात्मा का अंश – स्वरूप (आत्मा) तो सबका शुद्ध ही है । केवल सङ्ग , शास्त्र , विचार , वायुमण्डल आदि को लेकर अन्तःकरण में किसी एक गुण की प्रधानता हो जाती है अर्थात् जैसा सङ्ग , शास्त्र आदि मिलता है वैसा ही मनुष्य का अन्तःकरण बन जाता है और उस अन्तःकरण के अनुसार ही उसकी सात्त्विकी , राजसी या तामसी श्रद्धा बन जाती है। इसलिये मनुष्य को सदा-सर्वदा सात्त्विक सङ्ग , शास्त्र , विचार , वायुमण्डल आदि का ही सेवन करते रहना चाहिये। ऐसा करने से उसका अन्तःकरण तथा उसके अनुसार उसकी श्रद्धा भी सात्त्विकी बन जायगी जो उसका उद्धार करने वाली होगी। इसके विपरीत मनुष्य को राजस-तामस सङ्ग , शास्त्र आदि का सेवन कभी भी नहीं करना चाहिये क्योंकि इससे उसकी श्रद्धा भी राजसी-तामसी बन जायेगी जो उसका पतन करने वाली होगी। अपने इष्ट के यजन-पूजन द्वारा मनुष्यों की निष्ठा की पहचान किस प्रकार होती है? अब उसको बताते हैं।