अध्याय सात: ज्ञान विज्ञान योग
दिव्य ज्ञान की अनुभूति द्वारा प्राप्त योग
24-30 भगवान के प्रभाव और स्वरूप को न जानने वालों की निंदा और जानने वालों की महिमा
अव्यक्तं व्यक्तिमापन्नं मन्यन्ते मामबुद्धयः ।
परं भावमजानन्तो ममाव्ययमनुत्तमम् ॥7.24॥
अव्यक्तम्-निराकार ; व्यक्तिम्- साकार स्वरूप; आपन्नम्-प्राप्त हुआ; मन्यन्ते-सोचना; माम्-मुझको; अबुद्धयः-अल्पज्ञानी; परम्- सर्वोच्च; भावम् – प्रकृति; अजानन्तः-बिना समझे ;मम-मेरा; अव्ययम्-अविनाशी; अनुत्तमम् – सर्वोत्तम।
बुद्धिहीन मनुष्य सोचते हैं कि मैं परमेश्वर पहले निराकार था और अब मैंने यह साकार व्यक्तित्त्व धारण किया है, वे मेरे इस अविनाशी और सर्वोत्तम दिव्य स्वरूप की प्रकृत्ति को नहीं जान पाते अर्थात वे मेरे अनुत्तम अविनाशी परम भाव को न जानते हुए मन-इन्द्रियों से परे मुझ सच्चिदानन्दघन परमात्मा को मनुष्य की भाँति जन्म लेने वाला या मनुष्य की तरह शरीर धारण करने वाला साधारण व्यक्ति समझते हैं ॥7.24॥
‘अव्यक्तं व्यक्तिमापन्नं ৷৷. ममाव्ययमनुत्तमम्’ जो मनुष्य निर्बुद्धि हैं और जिनकी मेरे में श्रद्धा-भक्ति नहीं है , वे अल्पमेधा के कारण अर्थात् समझ की कमी के कारण मेरे को साधारण मनुष्य की तरह अव्यक्त से व्यक्त होने वाला अर्थात् जन्मने मरने वाला मानते हैं। मेरा जो अविनाशी अव्ययभाव है अर्थात् जिससे बढ़कर दूसरा कोई हो ही नहीं सकता और जो देश , काल , वस्तु , व्यक्ति आदि में परिपूर्ण रहता हुआ , इन सबसे अतीत , सदा एकरूप रहनेवाला , निर्मल और असम्बद्ध है , ऐसे मेरे अविनाशी भाव को वे नहीं जानते और मेरा अवतार लेने का जो तत्त्व है उसको नहीं जानते। इसलिये वे मेरे को साधरण मनुष्य मानकर मेरी उपासना नहीं करते बल्कि देवताओं की उपासना करते हैं। ‘अबुद्धयः’ पद का यह अर्थ नहीं है कि उनमें बुद्धि का अभाव है बल्कि बुद्धि में विवेक रहते हुए भी अर्थात् संसार को उत्पत्तिविनाशशील जानते हुए भी इसे मानते नहीं । यही उनमें बुद्धिरहितपना है , मूढ़ता है। दूसरा भाव यह है कि कामना को कोई रख नहीं सकता , कामना रह नहीं सकती क्योंकि कामना पहले नहीं थी और कामनापूर्ति के बाद भी कामना नहीं रहेगी। वास्तव में कामना की सत्ता ही नहीं है फिर भी उसका त्याग नहीं कर सकते यही अबुद्धिपना है। मेरे स्वरूप को न जानने से वे अन्य देवताओं की उपासना में लग गये और उत्पत्तिविनाशशील पदार्थों की कामना में लग जाने से वे बुद्धिहीन मनुष्य मेरे से विमुख हो गये। यद्यपि वे मेरे से अलग नहीं हो सकते तथा मैं भी उनसे अलग नहीं हो सकता तथापि कामना के कारण ज्ञान ढक जाने से वे देवताओं की तरफ खिंच जाते हैं। अगर वे मेरे को जान जाते तो फिर केवल मेरा ही भजन करते। (1) बुद्धिमान मनुष्य वे होते हैं जो भगवान के शरण होते हैं। वे भगवान को ही सर्वोपरि मानते हैं। (2) अल्पमेधा वाले मनुष्य वे होते हैं जो देवताओं के शरण होते हैं। वे देवताओं को अपने से बड़ा मानते हैं जिससे उनमें थोड़ी नम्रता सरलता रहती है। (3) अबुद्धिवाले मनुष्य वे होते हैं जो भगवान को देवता जैसा भी नहीं मानते किन्तु साधारण मनुष्य जैसा ही मानते हैं। वे अपने को ही सर्वोपरि सबसे बड़ा मानते हैं (गीता 16। 14 15)। यही तीनों में अन्तर है। ‘परं भावमजानन्तः’ का तात्पर्य है कि मैं अज रहता हुआ , अविनाशी होता हुआ और लोकों का ईश्वर होता हुआ ही अपनी प्रकृति को वश में करके योगमाया से प्रकट होता हूँ । इस मेरे परमभाव को बुद्धिहीन मनुष्य नहीं जानते। ‘अनुत्तमम्’ कहने का तात्पर्य है कि 15वें अध्याय में जिसको क्षर से अतीत और अक्षर से उत्तम बताया है अर्थात् जिससे उत्तम दूसरा कोई है ही नहीं , ऐसे मेरे अनुत्तम भाव को वे नहीं जानते। विशेष बात-इस (24वें) श्लोक का अर्थ कोई ऐसा करते हैं कि (ये) ‘अव्यक्तं मां व्यक्तिमापन्नं मन्यन्ते (ते) अबुद्धयः’ अर्थात् जो सदा निराकार रहने वाले मेरे को केवल साकार मानते हैं , वे निर्बुद्धि हैं क्योंकि वे मेरे अव्यक्त , निर्विकार और निराकार स्वरूप को नहीं जानते। दूसरे कोई ऐसा अर्थ करते हैं कि (ये) ‘व्यक्तिमापन्नं माम् अव्यक्तं मन्यन्ते (ते) अबुद्धयः’ अर्थात् मैं अवतार लेकर तेरा सारथि बना हुआ हूँ । ऐसे मेरे को केवल निराकार मानते हैं , वे निर्बुद्धि हैं क्योंकि वे मेरे सर्वश्रेष्ठ अविनाशी भाव को नहीं जानते। उपर्युक्त दोनों अर्थों में से कोई भी अर्थ ठीक नहीं है। कारण कि ऐसा अर्थ मानने पर केवल निराकार को मानने वाले साकार रूप की और साकार रूप के उपासकों की निन्दा करेंगे और केवल साकार मानने वाले निराकार रूप की और निराकार रूप के उपासकों की निन्दा करेंगे। यह सब एकदेशीयपना ही है। पृथ्वी , जल , तेज आदि जो महाभूत हैं जो कि विनाशी और विकारी हैं , वे भी दो-दो तरह के होते हैं स्थूल और सूक्ष्म। जैसे स्थूल रूप से पृथ्वी साकार है और परमाणु रूप से निराकार है । जल , बर्फ , बूँदें , बादल और भापरूप से साकार है और परमाणुरूप से निराकार है। तेज (अग्नितत्त्व) काठ और दियासलाई में रहता हुआ निराकार है और प्रज्ज्वलित होने से साकार है इत्यादि। इस तरह से भौतिक सृष्टि के भी दोनों रूप होते हैं और दोनों होते हुए भी वास्तव में वह दो नहीं होती। साकार होने पर निराकार में कोई बाधा नहीं लगती और निराकार होने पर साकार में कोई बाधा नहीं लगती। फिर परमात्मा के साकार और निराकार दोनों होने में क्या बाधा है अर्थात् कोई बाधा नहीं। वे साकार भी हैं और निराकार भी हैं , सगुण भी हैं और निर्गुण भी हैं। गीता साकार-निराकार , सगुण-निर्गुण दोनों को मानती है। नवें अध्याय के चौथे श्लोक में भगवान ने अपने को अव्यक्तमूर्ति कहा है। चौथे अध्याय के छठे श्लोक में भगवान ने कहा है कि मैं अज होता हुआ भी प्रकट होता हूँ , अविनाशी होता हुआ भी अन्तर्धान हो जाता हूँ और सबका ईश्वर होता हुआ भी आज्ञापालक (पुत्र और शिष्य) बन जाता हूँ। अतः निराकार होते हुए साकार होने में और साकार होते हुए निराकार होने में भगवान में किञ्चिन्मात्र भी अन्तर नहीं आता। ऐसे भगवान के स्वरूप को न जानने के कारण लोग उनके विषय में तरह-तरह की कल्पनाएँ किया करते हैं। भगवान को साधारण मनुष्य मानने में क्या कारण है ? इस पर आगे का श्लोक कहते हैं – स्वामी रामसुखदास जी