The Bhagavad Gita chapter 14

 

 

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GunTrayVibhagYog ~ Bhagwat Geeta Chapter 14 | गुणत्रयविभागयोग ~ अध्याय चौदह

अथ चतुर्दशोऽध्यायः- गुणत्रयविभागयोग

 

19-27 भगवत्प्राप्ति का उपाय और गुणातीत पुरुष के लक्षण

 

 

The Bhagavad Gita chapter 14मां च योऽव्यभिचारेण भक्तियोगेन सेवते ।

स गुणान्समतीत्येतान्ब्रह्मभूयाय कल्पते ॥ 14.26

 

माम् – मेरी; च-भी; यः-जो; अव्यभिचारेण-विशुद्ध विकारों के; भक्ति-भक्ति योग से; सेवते-सेवा करता है; स:-वह; गुणान् – प्रकृति के गुणों को; समतीत्य-पार कर; एतान्- इन सब; ब्रह्मभूयाय-ब्रह्म पद की अवस्था; कल्पते-हो जाता है।

 

जो धीर मनुष्य विशुद्ध भक्ति के साथ मेरी सेवा और उपासना करते हैं, वे प्राकृतिक शक्ति के तीनों गुणों से ऊपर उठ कर ब्रह्म पद के स्तर को पा लेते हैं या ब्रह्म बनने के लिये योग्य हो जाता है अर्थात जो मनुष्य हर परिस्थिति में बिना विचलित हुए अनन्य-भाव से मेरी भक्ति में स्थिर रहता है, वह भक्त प्रकृति के तीनों गुणों को अति-शीघ्र पार करके ब्रह्म-पद पर स्थित हो जाता है।।14.26।।

 

यद्यपि भगवान ने इसी अध्याय के 19वें-20वें श्लोकों में गुणों का अतिक्रमण करने का उपाय बता दिया था तथापि अर्जुन ने 21वें श्लोक में गुणातीत होने का उपाय पूछ लिया। इससे यह मालूम होता है कि अर्जुन उस उपाय के सिवाय गुणातीत होने के लिये दूसरा कोई उपाय जानना चाहते हैं। अतः अर्जुन को भक्ति का अधिकारी समझकर भगवान उनको गुणातीत होने का उपाय भक्ति बताते हैं।] मां च योऽव्यभिचारेण भक्तियोगेन सेवते – इन पदों में उपासक , उपास्य और उपासना – ये तीनों आ गये हैं अर्थात् ‘यः’ पद से ‘उपासक माम्’ पद से ‘उपास्य’ और ‘अव्यभिचारेण भक्तियोगेन सेवते’ पदों से उपासना आ गयी है। ‘अव्यभिचारेण’ पद का तात्पर्य है कि दूसरे किसी का भी सहारा न हो। सांसारिक सहारा तो दूर रहा ज्ञानयोग , कर्मयोग आदि योगों (साधनों) का भी सहारा न हो और ‘भक्तियोगेन’ पद का तात्पर्य है कि केवल भगवान का ही सहारा हो , आश्रय हो , आशा हो , बल हो , विश्वास हो। इस तरह ‘अव्यभिचारेण’ पद से दूसरों का आश्रय लेने का निषेध करके ‘भक्तियोगेन’ पद से केवल भगवान का ही आश्रय लेने की बात कही गयी है। ‘सेवते’ पद का तात्पर्य है कि अव्यभिचारी भक्तियोग के द्वारा भगवान का भजन करे , उनकी उपासना करे , उनके शरण हो जाय , उनके अनुकूल चले। स गुणान्समतीत्यैतान् – जो अनन्य भाव से केवल भगवान के ही शरण हो जाता है उसको गुणों का अतिक्रमण करना नहीं पड़ता प्रत्युत भगवान की कृपा से उसके द्वारा स्वतः गुणों का अतिक्रमण हो जाता है (गीता 12। 67)। ब्रह्मभूयाय कल्पते – वह गुणों का अतिक्रमण करके ब्रह्मप्राप्ति का पात्र (अधिकारी) हो जाता है। भगवान ने जब यहाँ भक्ति की बात बतायी है तो फिर भगवान को यहाँ ब्रह्मप्राप्ति की बात न कहकर अपनी प्राप्ति की बात बतानी चाहिये थी परन्तु यहाँ ब्रह्मप्राप्ति की बात बताने का तात्पर्य यह है कि अर्जुन ने गुणातीत होने(निर्गुण ब्रह्मकी प्राप्ति) का उपाय पूछा था। इसलिये भगवान ने अपनी भक्ति को ब्रह्मप्राप्ति का उपाय बताया। दूसरी बात – शास्त्रों में कहा गया है कि भगवान की उपासना करने वाले को ज्ञान की भूमिकाओं की सिद्धि के लिये दूसरा कोई साधन , प्रयत्न नहीं करना पड़ता प्रत्युत उसके लिये ज्ञान की भूमिकाएँ अपने आप सिद्ध हो जाती हैं। उसी बात को लक्ष्य करके भगवान यहाँ कह रहे हैं कि अव्यभिचारी भक्तियोग से मेरा सेवन करने वाले को ब्रह्मप्राप्ति का पात्र बनने के लिये दूसरा कोई साधन नहीं करना पड़ता प्रत्युत वह अपने आप ब्रह्मप्राप्ति का पात्र हो जाता है परन्तु वह भक्त ब्रह्मप्राप्ति में सन्तोष नहीं करता। उसका तो यही भाव रहता है कि भगवान कैसे प्रसन्न हों ? भगवान की प्रसन्नता में ही उसकी प्रसन्नता होती है। तात्पर्य यह निकला कि जो केवल भगवान के ही परायण है , भगवान में ही आकृष्ट है उसके लिये ब्रह्मप्राप्ति स्वतःसिद्ध है। हाँ , वह ब्रह्मप्राप्ति को महत्त्व दे अथवा न दे – यह बात दूसरी है पर वह ब्रह्मप्राप्ति का अधिकारी स्वतः हो जाता है। तीसरी बात – जिस तत्त्व की प्राप्ति ज्ञानयोग , कर्मयोग आदि साधनों से होती है उसी तत्त्व की प्राप्ति भक्ति से भी होती है। साधनों में भेद होने पर भी उस तत्त्व की प्राप्ति में कोई भेद नहीं होता। उपासना तो करे भगवान की और पात्र बन जाय ब्रह्मप्राप्तिका – यह कैसे ? इसका उत्तर आगे के श्लोक में देते हैं – स्वामी रामसुखदास जी 

 

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