Bhagavat Gita in hindi chapter 4

 

 

Previous         Menu         Next 

 

ज्ञानकर्मसंन्यासयोग ~ अध्याय चार

24-33 फलसहित विभिन्न यज्ञों का वर्णन

 

 

ज्ञान कर्म संन्यास योग 

एवं बहुविधा यज्ञा वितता ब्रह्मणो मुखे ।

कर्मजान्विद्धि तान्सर्वानेवं ज्ञात्वा विमोक्ष्यसे ॥4.32

 

एवम्इस प्रकार; बहुविधा:-विविध प्रकार के; यज्ञाःयज्ञ; वितताःवर्णितं; ब्रह्मणाःवेदों के; मुखेमुख में; कर्मजान्कर्म से उत्पन्न; विद्धिजानो; तान्उन्हें; सर्वान्- सबको; एवम्इस प्रकार से; ज्ञात्वाजानकर; विमोक्ष्यसेतुम मुक्त हो जाओगे।

 

इसी प्रकार और भी बहुत तरह के यज्ञ वेद की वाणी में विस्तार से कहे गए हैं अर्थात बहुत प्रकार के यज्ञों का वर्णन वेदों में किया गया है। उन सबको तू मन, इन्द्रिय और शरीर की क्रिया द्वारा सम्पन्न होने वाले जान अर्थात इन सभी यज्ञों को इन्हें विभिन्न कर्मों की उत्पत्ति का रूप मान। इस प्रकार तत्व से जानकर उनके अनुष्ठान द्वारा तू कर्म बंधन से सर्वथा मुक्त हो जाएगा अर्थात यह ज्ञान तुम्हें माया के बंधन से मुक्त कर देगा॥4.32

 

( अभी तक जिन बारह यज्ञों का वर्णन किया गया है उनके सिवाय और भी अनेक प्रकार के यज्ञों का वेद की वाणी में विस्तार से वर्णन किया गया है। कारण कि साधकों की प्रकृति के अनुसार उनकी निष्ठाएँ भी अलग-अलग होती हैं और तदनुसार उनके साधन भी अलग-अलग होते हैं। वेदों में सकाम अनुष्ठानों का भी विस्तार से वर्णन किया गया है परन्तु उन सबसे नाशवान फल की ही प्राप्ति होती है अविनाशी की नहीं। इसलिये वेदों में वर्णित सकाम अनुष्ठान करने वाले मनुष्य स्वर्गलोक को जाते हैं और पुण्य क्षीण होने पर पुनः मृत्युलोक में आ जाते हैं। इस प्रकार वे जन्म-मरण के बन्धन में पड़े रहते हैं परन्तु यहाँ उन सकाम अनुष्ठानों की बात नहीं कही गयी है। यहाँ निष्काम कर्मरूप उन यज्ञों की बात कही गयी है जिनके अनुष्ठान से परमात्मा की प्राप्ति होती है । वेदों में केवल स्वर्गप्राप्ति के साधन रूप सकाम अनुष्ठानों का ही वर्णन हो ऐसी बात नहीं है। उनमें परमात्मप्राप्ति के साधनरूप श्रवण , मनन , निदिध्यासन , प्राणायाम, समाधि आदि अनुष्ठानों का भी वर्णन हुआ है। यज्ञ वेद से उत्पन्न हुए हैं और सर्वव्यापी परमात्मा उन यज्ञों में नित्य प्रतिष्ठित (विराजमान) हैं। यज्ञों में परमात्मा नित्य प्रतिष्ठित रहने से उन यज्ञों का अनुष्ठान केवल परमात्मतत्त्व की प्राप्ति के लिये ही करना चाहिये। वे सब के सब यज्ञ कर्मजन्य हैं अर्थात् कर्मों से होने वाले हैं। शरीर से जो क्रियाएँ होती हैं , वाणी से जो कथन होता है और मन से जो संकल्प होते हैं वे सभी कर्म कहलाते हैं। अर्जुन अपना कल्याण तो चाहते हैं पर युद्धरूप कर्तव्यकर्म को पाप मानकर उसका त्याग करना चाहते हैं। भगवान् अर्जुन के प्रति ऐसा भाव प्रकट कर रहे हैं कि युद्धरूप कर्तव्यकर्म का त्याग करके अपने कल्याण के लिये तू जो साधन करेगा वह भी तो कर्म ही होगा। वास्तव में कल्याण कर्म से नहीं होता बल्कि कर्मों से सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद होने से होता है। इसलिये यदि तू युद्धरूप कर्तव्यकर्म को भी निर्लिप्त रहकर करेगा तो उससे भी तेरा कल्याण हो जायगा क्योंकि मनुष्य को कर्म नहीं बाँधते बल्कि  (कर्म की और उसके फल की) आसक्ति ही बाँधती है । युद्ध तो तेरा सहज कर्म (स्वधर्म) है इसलिये उसे करना तेरे लिये सुगम भी है। भगवान ने बताया कि कर्मफल में मेरी चाह नहीं है इसलिये मुझे कर्म नहीं बाँधते , इस प्रकार जो मुझे जान लेता है वह भी कर्मों से नहीं बँधता। अर्थात जिसने कर्म करते हुए भी उनसे निर्लिप्त रहने की विद्या अर्थात कर्मफल में इच्छा न रखने की विद्या को सीखकर उसका अनुभव कर लिया है वह कर्मबन्धन से मुक्त हो जाता है। मुमुक्षु पुरुष भी इसी प्रकार जानकर कर्म करते आये हैं। कर्मों से निर्लिप्त रहने के इसी तत्त्व को विस्तार से कहने के लिये भगवान ने प्रतिज्ञा की और उसे जानने का फल मुक्त होना बताया अर्थात फल की इच्छा का त्याग करके केवल लोकहितार्थ कर्म करने से मनुष्य कर्मबन्धन से मुक्त हो जाता है। संसार में असंख्य क्रियाएँ होती रहती हैं परन्तु जिन क्रियाओं से मनुष्य अपना सम्बन्ध जोड़ता है उन्हीं से वह बँधता है। संसार में कहीं भी कोई क्रिया (घटना) हो जब मनुष्य उससे अपना सम्बन्ध जोड़ लेता है , उसमें राजी या नाराज होता है तब वह उस क्रिया से बँध जाता है। जब शरीर या संसार में होने वाली किसी भी क्रिया से मनुष्य का सम्बन्ध नहीं रहता तब वह कर्मबन्धन से मुक्त हो जाता है- स्वामी रामसुखदास जी )

 

         Next

 

 

By spiritual talks

Welcome to the spiritual platform to find your true self, to recognize your soul purpose, to discover your life path, to acquire your inner wisdom, to obtain your mental tranquility.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

error: Content is protected !!