ज्ञानकर्मसंन्यासयोग ~ अध्याय चार
01-15 योग परंपरा, भगवान के जन्म कर्म की दिव्यता, भक्त लक्षणभगवत्स्वरूप
एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः ।
स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप ॥4.2॥
एवम्–इस प्रकार; परम्परा–सतत परम्परागत; प्राप्तम्–प्राप्त; इमम–इस विज्ञान को; राज–ऋषयः–राजर्षियों ने; विदुः–जाना; सः–वह; कालेन–अनंत युगों के साथ; इह–इस संसार में; महता–महान; योग:-योग शास्त्र; नष्ट:-विलुप्त होना; परन्तप–शत्रुओं का दमनकर्ता, अर्जुन।
हे शत्रुओं के दमन कर्ता अर्जुन ! इस प्रकार राजर्षियों ने सतत गुरु परम्परा पद्धति द्वारा ज्ञान योग की विद्या प्राप्त की किन्तु अनन्त युगों के साथ यह विज्ञान ( योग शास्त्र ) संसार से लुप्त हो गया प्रतीत होता है ॥4.2॥
(सूर्य , मनु , इक्ष्वाकु आदि राजाओं ने कर्मयोग को भली-भाँति जानकर उसका स्वयं भी आचरण किया और प्रजा से भी वैसा आचरण कराया। इस प्रकार राजर्षियों में इस कर्मयोग की परम्परा चली। यह राजाओं (क्षत्रियों ) की विशेष (निजी) विद्या है इसलिये प्रत्येक राजा को यह विद्या जाननी चाहिये। इसी प्रकार परिवार , समाज , गाँव आदि के जो मुख्य व्यक्ति हैं उन्हें भी यह विद्या अवश्य जाननी चाहिये।प्राचीनकाल में कर्मयोग को जानने वाले राजा लोग राज्य के भोगों में आसक्त हुए बिना सुचारु रूप से राज्य का संचालन करते थे। प्रजा के हित में उनकी स्वाभाविक प्रवृत्ति रहती थी। सूर्यवंशी राजाओं के विषय में महाकवि कालिदास लिखते हैं कि वे राजा लोग अपनी प्रजा के हित के लिये प्रजा से उसी प्रकार कर लिया करते थे जिस प्रकार सहस्रगुना बनाकर बरसाने के लिये ही सूर्य पृथ्वी से जल लिया करते हैं। तात्पर्य यह कि वे राजा लोग प्रजा से कर आदि के रूप में लिये गये धन को प्रजा के ही हितमें लगा देते थे । अपने स्वार्थ में थोड़ा भी खर्च नहीं करते थे। अपने जीवन निर्वाह के लिये वे अलग खेती आदि काम करवाते थे। कर्मयोग का पालन करने के कारण उन राजाओं को विलक्षण ज्ञान और भक्ति स्वतः प्राप्त थी। यही कारण था कि प्राचीनकाल में बड़े-बड़े ऋषि भी ज्ञान प्राप्त करने के लिये उन राजाओं के पास जाया करते थे। श्रीवेदव्यासजी के पुत्र शुकदेवजी भी ज्ञानप्राप्ति के लिये राजर्षि जनक के पास गये थे। छान्दोग्योपनिषद् के पाँचवें अध्याय में भी आता है कि ब्रह्मविद्या सीखने के लिये छः ऋषि एक साथ महाराज अश्वपति के पास गये थे । तीसरे अध्याय के बीसवें श्लोक में जनक आदि राजाओं को और यहाँ सूर्य , मनु , इक्ष्वाकु आदि राजाओं को कर्मयोगी बताकर भगवान् अर्जुन को मानो यह लक्ष्य कराते हैं कि गृहस्थ और क्षत्रिय होने के नाते तुम्हें भी अपने पूर्वजों के (वंशपरम्परा के) अनुसार कर्मयोग का पालन अवश्य करना चाहिये। इसके अलावा अपने वंश की बात ( कर्मयोग की विद्या ) अपने में आनी सुगम भी है , इसलिये आनी ही चाहिये। परमात्मा नित्य हैं और उनकी प्राप्ति के साधन कर्मयोग , ज्ञानयोग , भक्तियोग आदि भी परमात्मा के द्वारा निश्चित किये होने से नित्य हैं । अतः इनका कभी अभाव नहीं होता। ये आचरण में आते हुए न दिखने पर भी नित्य रहते हैं। इसीलिये यहाँ आये नष्टः पद का अर्थ लुप्त या अप्रकट होना ही है , अभाव होना नहीं। पहले श्लोक में कर्मयोग को अव्ययम् अर्थात् अविनाशी कहा गया है। अतः यहाँ नष्टः पद का अर्थ यदि कर्मयोग का अभाव माना जाय तो दोनों ओर से विरोध उत्पन्न होगा कि यदि कर्मयोग अविनाशी है तो उसका अभाव कैसे हो गया और यदि उसका अभाव हो गया तो वह अविनाशी कैसे ? इसके सिवाय आगे के (तीसरे) श्लोक में भगवान् कर्मयोग को पुनः प्रकट करने की बात कहते हैं। यदि उसका अभाव हो गया होता तो पुनः प्रकट नहीं होता। भगवान् के वचनों में विरोध भी नहीं आ सकता। इसलिये यहाँ इह नष्टः पदों का तात्पर्य यह है कि इस अविनाशी कर्मयोग के तत्त्व का वर्णन करने वाले ग्रन्थों का और इसके तत्त्व को जानने वाले तथा उसे आचरण में लाने वाले श्रेष्ठ पुरुषों का इस लोक में अभाव सा हो गया है। जहाँ से जो बात कही जाती है वहाँ से वह परम्परा से जितनी दूर चली जाती है उतना ही उसमें स्वतः अन्तर पड़ता चला जाता है यह नियम है। भगवान् कहते हैं कि कल्प के आदि में मैंने यह कर्मयोग सूर्य से कहा था फिर परम्परा से इसे राजर्षियों ने जाना। अतः इसमें अन्तर पड़ता ही गया और बहुत समय बीत जाने से अब यह योग इस मनुष्य लोक में लुप्तप्राय हो गया है। यही कारण है कि वर्तमान में इस कर्मयोग की बात सुनने तथा देखने में बहुत कम आती है। कर्मयोग का आचरण लुप्तप्राय होने पर भी उसका सिद्धान्त (अपने लिये कुछ न करना ) सदैव रहता है क्योंकि इस सिद्धान्त को अपनाये बिना किसी भी योग (ज्ञानयोग ,भक्तियोग आदि) का निरन्तर साधन नहीं हो सकता। कर्म तो मनुष्यमात्र को करने ही पड़ते हैं। हाँ ज्ञानयोगी विवेक के द्वारा कर्मों को नाशवान् मानकर कर्मों से सम्बन्ध-विच्छेद करता है और भक्तियोगी कर्मों को भगवान् के अर्पण करके कर्मों से सम्बन्ध-विच्छेद करता है। अतः ज्ञानयोगी और भक्तियोगी को कर्मयोग का सिद्धान्त तो अपनाना ही पड़ेगा भले ही वे कर्मयोग का अनुष्ठान न करें। तात्पर्य यह कि वर्तमान में कर्मयोग लुप्तप्राय होने पर भी सिद्धान्त के रूप में विद्यमान ही है। वास्तव में देखा जाय तो कर्मयोग में कर्म लुप्त नहीं हुए हैं प्रत्युत (कर्मों का प्रवाह अपनी ओर होने से) योग ही लुप्त हुआ है। तात्पर्य यह है कि जैसे संसार के पदार्थ कर्म करने से मिलते हैं ऐसे ही परमात्मा भी कर्म करने से मिलेंगे यह बात साधकों के अन्तःकरण में इतनी दृढ़ता से बैठ गयी है कि परमात्मा नित्यप्राप्त हैं इस वास्तविकता की ओर उनका ध्यान ही नहीं जा रहा है। कर्म सदैव संसार के लिये होते हैं और योग सदैव अपने लिये होता है। योग के लिये कर्म करना नहीं होता वह तो स्वतःसिद्ध है । अतः योग के लिये यह मान लेना कि वह कर्म करने से होगा यही योग का लुप्त होना है। मनुष्य शरीर कर्मयोग का पालन करने के लिये अर्थात् दूसरों की निःस्वार्थ सेवा करने के लिये ही मिला है परन्तु आज मनुष्य रात-दिन अपनी सुख-सुविधा , सम्मान आदि की प्राप्ति में ही लगा हुआ है। स्वार्थ के अधिक बढ़ जाने के कारण दूसरों की सेवा की तरफ उसका ध्यान ही नहीं है। इस प्रकार जिसके लिये मनुष्य शरीर मिला है उसे भूल जाना ही कर्मयोग का लुप्त होना है। मनुष्य सेवा के द्वारा पशु-पक्षी से लेकर मनुष्य , देवता , पितर , ऋषि , सन्त-महात्मा और भगवान तक को अपने वश में कर सकता है परन्तु सेवा भाव को भूलकर मनुष्य स्वयं भोगों के वश में हो गया जिसका परिणाम नरकों में तथा चौरासी लाख योनियों में पड़ जाना है। यही कर्मयोग का छिपना है- स्वामी रामसुखदास जी )