ज्ञानकर्मसंन्यासयोग ~ अध्याय चार
01-15 योग परंपरा, भगवान के जन्म कर्म की दिव्यता, भक्त लक्षणभगवत्स्वरूप
श्रीभगवानुवाच।
बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन ।
तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परन्तप ॥4.5॥
श्रीभगवान् उवाच–परम् प्रभु ने कहा; बहूनि–अनेक, बहुत ; मे–मेरे; व्यतीतानि–व्यतीत हो चुके; जन्मानि–जन्म; तव–तुम्हारे; च–और; अर्जुन–अर्जुन; तानि–उन; अहम्–मैं जानता हूँ; सर्वाणि–सभी जन्मों को; न–नहीं; त्वम्–तुम; वेत्थ–जानते हो; परन्तप–शत्रुओं का दमन करने वाला, अर्जुन।
श्री भगवान बोले- हे परंतप अर्जुन! तुम्हारे और मेरे बहुत जन्म हो चुके हैं किन्तु तुम उन्हें भूल चुके हो जबकि मुझे उन सबका स्मरण है। अर्थात तुम उन सबको नहीं जानते किन्तु मैं जानता हूँ॥4.5॥
{अर्जुन में भगवान के जन्म रहस्य को जानने की प्रबल जिज्ञासा उत्पन्न हुई है इसलिये भगवान उनके सामने मित्रता के नाते अपने जन्म का रहस्य प्रकट कर देते हैं। श्रोता की प्रबल जिज्ञासा होने पर वक्ता अपने को छिपाकर नहीं रख सकता। इसलिये सन्त महात्मा भी अपने में विशेष श्रद्धा रखने वालों के सामने अपने आपको प्रकट कर सकते हैं । भगवान कहते हैं कि समय-समय पर मेरे और तेरे बहुत से जन्म हो चुके हैं परन्तु मेरा जन्म दूसरी तरह का है और तेरा अर्थात जीव का जन्म दूसरी प्रकार का है। मेरे और तेरे बहुत से जन्म होने पर भी वे अलग-अलग प्रकार के हैं। ऐसा नहीं है कि मैं अर्थात भगवान और तू तथा ये राजा लोग अर्थात जीव पहले नहीं थे और आगे नहीं रहेंगे । कहने का तात्पर्य यह है कि भगवान और उनका अंश जीवात्मा दोनों ही अनादि और नित्य हैं। संसार में ऐसे जीव भी होते हैं जिनको अपने पूर्व जन्मों का ज्ञान होता है। ऐसे महापुरुष युञ्जान योगी कहलाते हैं जो साधना करके सिद्ध होते हैं। साधना में अभ्यास करते-करते इनकी वृत्ति इतनी तेज हो जाती है कि ये जहाँ वृत्ति लगाते हैं वहीं का ज्ञान इनको हो जाता है। ऐसे योगी कुछ सीमा तक ही अपने पुराने जन्मों को जान सकते हैं सम्पूर्ण जन्मों को नहीं। इसके विपरीत भगवान युक्तयोगी कहलाते हैं जो साधना किये बिना स्वतःसिद्ध नित्य योगी हैं। जन्मों को जानने के लिये उन्हें वृत्ति नहीं लगानी पड़ती बल्कि उनमें अपने और जीवों के भी सम्पूर्ण जन्मों का स्वतःस्वाभाविक ज्ञान सदा बना रहता है। उनके ज्ञान में भूत , भविष्य और वर्तमान का भेद नहीं है बल्कि उनके अखण्ड ज्ञान में सभी कुछ सदा वर्तमान ही रहता है । कारण कि भगवान सम्पूर्ण देश , काल , वस्तु ,व्यक्ति ,परिस्थिति आदि में पूर्णरूप से विद्यमान रहते हुए भी इनसे सर्वथा अतीत रहते हैं। भगवान के इस वचन से कि ” मैं उन सबको जानता हूँ ” साधकों को एक विशेष आनन्द आना चाहिये कि हम भगवान की जानकारी में हैं, उनकी नजर में हैं । भगवान् हमें निरन्तर देख रहे हैं । हम कैसे ही क्यों न हों पर हैं भगवान के ज्ञान में। जन्मों को न जानने में मूल हेतु है अन्तःकरण में नाशवान पदार्थों का आकर्षण महत्त्व होना। इसी के कारण मनुष्य का ज्ञान विकसित नहीं होता। अर्जुन के अन्तःकरण में नाशवान पदार्थों का और व्यक्तियों का महत्त्व था इसीलिये वे कुटुम्बियों के मरने के भय से युद्ध नहीं करना चाहते थे। अर्जुन ने पहले अध्याय में कहा था कि जिनके लिये हमारी राज्य भोग और सुख की इच्छा है वे ही ये कुटुम्बी प्राणों की और धन की आशा छोड़कर युद्धमें खड़े हैं इससे सिद्ध होता है कि अर्जुन राज्य भोग और सुख चाहते थे। अतः नाशवान पदार्थों की कामना होने के कारण वे अपने पूर्वजन्मों को नहीं जानते थे। ममता और आसक्ति पूर्वक अपने सुखभोग और आराम के लिये धनादि पदार्थों का संग्रह करना परिग्रह कहलाता है। परिग्रह का सर्वथा त्याग करना अर्थात अपने सुख आराम आदि के लिये किसी भी वस्तु का संग्रह न करना अपरिग्रह कहलाता है। अपरिग्रह की दृढ़ता होने पर पूर्वजन्मों का ज्ञान हो जाता है । संसार सदैव परिवर्तनशील और असत है अतः उसमें अभाव होना निश्चित है। अभाव रूप संसार से सम्बन्ध जोड़ने के कारण मनुष्य को अपने में भी अभाव दिखने लग जाता है। अभाव दिखने के कारण उसमें यह कामना पैदा हो जाती है कि अभाव की तो पूर्ति हो जाय फिर नया और मिले। इस कामना की पूर्ति में ही वह दिन-रात लगा रहता है परन्तु कामना की पूर्ति होने वाली है नहीं। कामनाओं के कारण मनुष्य बेहोश सा हो जाता है। अतः ऐसे मनुष्य को अनेक जन्मों का ज्ञान तो दूर रहा । वर्तमान कर्तव्य का भी ज्ञान अर्थात क्या कर रहा हूँ और क्या करना चाहिये नहीं होता – स्वामी रामसुखदास जी )