ज्ञानकर्मसंन्यासयोग ~ अध्याय चार
24-33 फलसहित विभिन्न यज्ञों का वर्णन
ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम्।
ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना ॥4.24॥
ब्रहम् – ब्रह्म; अर्पणम्- यज्ञ में आहुति डालना; ब्रहम् – ब्रह्म; हविः–आहुती; ब्रह्म–ब्रह्म; अग्नौ–यज्ञ रूपी अग्नि में; ब्रह्मणा–उस व्यक्ति द्वारा; हुतम्–अर्पित; ब्रह्म–ब्रह्म; एव–निश्चय ही; तेन–उसके द्वारा; गन्तव्यम्–प्राप्त करने योग्य; ब्रह्म–ब्रह्म; कर्म–अर्पण; समाधिना–भगवद् चेतना में पूर्ण रूप से तल्लीन।
जो मनुष्य पूर्णतया भगवदचेतना में तल्लीन रहते हैं उनका हवन ब्रह्म है, हवन सामग्री ब्रह्म है और करछुल जिससे आहुति डाली जाती है वह ब्रह्म है, अर्पण कार्य ब्रह्म है और यज्ञ की अग्नि भी ब्रह्म है। ब्रह्मरूप कर्ता द्वारा ब्रह्मरूप अग्नि में आहुति देना रूप क्रिया भी ब्रह्म है। उस ब्रह्मकर्म में स्थित रहने वाले योगी द्वारा प्राप्त किए जाने योग्य फल भी ब्रह्म ही हैं। ऐसे मनुष्य जो प्रत्येक वस्तु को भगवान के रूप में देखते हैं वे सहजता से उसे पा लेते हैं।॥4.24॥
( यज्ञ में आहुति मुख्य होती है। वह आहुति तब पूर्ण होती है जब वह अग्निरूप ही हो जाय अर्थात् हव्य पदार्थ की अग्नि से अलग सत्ता ही न रहे। इसी प्रकार जितने भी साधन हैं सब साध्यरूप हो जायँ तभी वे यज्ञ होते हैं। जितने भी यज्ञ हैं उनमें परमात्मतत्त्व का अनुभव करना भावना नहीं है बल्कि वास्तविकता है। भावना तो पदार्थों की है। इस 24वें श्लोक से 30वें श्लोक तक जिन यज्ञों का वर्णन किया गया है वे सब कर्मयोग के अन्तर्गत हैं। कारण कि भगवान ने इस प्रकरण के उपक्रम में भी “तत्ते कर्म प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात्” (4। 16) ऐसा कहा है और उपसंहार में भी “कर्मजान्विद्धि तान्सर्वानेवं ज्ञात्वा विमोक्ष्यसे ” (4। 32) ऐसा कहा है तथा बीच में भी कहा है “यज्ञायाचरतः कर्म समग्रं प्रविलीयते” (4। 23)। मुख्य बात यह है कि यज्ञकर्ता के सभी कर्म अकर्म हो जायँ। यज्ञ केवल यज्ञपरम्परा की रक्षा के लिये किये जायँ तो सबके सब कर्म अकर्म हो जाते हैं। अतः इन सब यज्ञों में , कर्म में अकर्म का ही वर्णन है। “ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हविः” जिस पात्र से अग्नि में आहुति दी जाती है उस स्रुक् , स्रुवा आदि को यहाँ “अर्पणम् ” पद से कहा गया है “अर्प्यते अनेन इति अर्पणम्”। उस अर्पण को ब्रह्म ही माने। तिल ,जौ ,घी आदि जिन पदार्थों का हवन किया जाता है उन हव्य पदार्थों को भी ब्रह्म ही माने। “ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम् ” आहुति देने वाला भी ब्रह्म ही है (गीता 13। 2) , जिसमें आहुति दी जा रही है वह अग्नि भी ब्रह्म ही है और आहुति देनारूप क्रिया भी ब्रह्म ही है ऐसा माने। “ब्रह्मकर्मसमाधिना ” जैसे हवन करने वाला पुरुष , स्रुवा , हवि , अग्नि आदि सब को ब्रह्म का ही स्वरूप मानता है ऐसे ही जो प्रत्येक कर्म में कर्ता , करण , कर्म और पदार्थ सबको ब्रह्मरूप ही अनुभव करता है उस पुरुष की ब्रह्म में ही कर्मसमाधि होती है अर्थात् उसकी सम्पूर्ण कर्मों में ब्रह्मबुद्धि होती है। उसके लिये सम्पूर्ण कर्म ब्रह्मरूप ही बन जाते हैं। ब्रह्म के सिवाय कर्मों का अपना कोई अलग स्वरूप रहता ही नहीं। “ब्रह्मैव तेन गन्तव्यम् ” ब्रह्म में ही कर्मसमाधि होने से जिसके सम्पूर्ण कर्म ब्रह्मरूप ही बन गये हैं उसे फल के रूप में निःसन्देह ब्रह्म की ही प्राप्ति होती है कारण कि उसकी दृष्टि में ब्रह्म के सिवाय और किसी की स्वतन्त्र सत्ता रहती ही नहीं। इस (चौबीसवें) श्लोक को शिष्टजन भोजन के समय बोलते हैं जिससे भोजनरूप कर्म भी यज्ञ बन जाय। भोजनरूप कर्म में ब्रह्मबुद्धि इस प्रकार की जाती है –1. जिससे अर्पण किया जाता है वह हाथ भी ब्रह्मरूप है “सर्वतः पाणिपादं तत्” (गीता 13। 13)। 2. भोजन के पदार्थ भी ब्रह्मरूप हैं “अहमेवाज्यम् ” (गीता 9। 16)। 3. भोजन करने वाला भी ब्रह्मरूप है “ममैवांशो जीवलोके “(गीता 15। 7)। 4. जठराग्नि भी ब्रह्मरूप है “अहं वैश्वानरः ” (गीता 15। 14)। 5. भोजन करनारूप क्रिया अर्थात् जठराग्नि में अन्न की आहुति देनारूप क्रिया भी ब्रह्म है “अहं हुतम् ” (गीता 9। 16)। 6. इस प्रकार भोजन करने वाले मनुष्यों के द्वारा प्राप्त करने योग्य फल भी ब्रह्म ही है । “यज्ञशिष्टामृतभुजो यान्ति ब्रह्म सनातनम्” (गीता 4। 31)। प्रकृति के कार्य संसार का स्वरूप है क्रिया और पदार्थ। वास्तविक दृष्टि से देखा जाय तो प्रकृति या संसार क्रियारूप ही है । कारण कि पदार्थ एक क्षण भी स्थिर नहीं रहता उसमें निरन्तर परिवर्तन होता रहता है। अतः वास्तव में पदार्थ परिवर्तनरूप क्रिया का पुञ्ज ही है। केवल राग के कारण पदार्थ की मुख्यता दिखती है। सम्पूर्ण क्रियाएँ अभाव में जा रही हैं। अतः संसार अभावरूप ही है। भावरूप से केवल एक अक्रिय तत्त्व ब्रह्म ही है जिसकी सत्ता से अभावरूप संसार भी सत्तावान् प्रतीत हो रहा है। संसार की अभावरूपता को इस प्रकार से समझ सकते हैं कि संसार की तीन अवस्थाएँ दिखती हैं – उत्पत्ति , स्थिति और प्रलय । जैसे वस्तु उत्पन्न होती है , फिर रहती है और अन्त में नष्ट हो जाती है अथवा मनुष्य जन्म लेता है , फिर रहता है और अन्त में मर जाता है। इससे आगे विचार करें तो केवल उत्पत्ति और प्रलय का ही क्रम है स्थिति वस्तुतः है ही नहीं , जैसे यदि मनुष्य की पूरी आयु पचास वर्ष की है तो बीस वर्ष बीतने पर उसकी आयु तीस वर्ष ही रह जाती है। इससे आगे विचार करें तो केवल प्रलय ही प्रलय (नाश ही नाश) है उत्पत्ति है ही नहीं जैसे आयु के जितने वर्ष बीत गये उतने वर्ष मनुष्य मर ही गया। इस प्रकार मनुष्य प्रतिक्षण ही मर रहा है उसका जीवन प्रतिक्षण ही मृत्यु में जा रहा है। दृश्यमात्र प्रतिक्षण अदृश्य में जा रहा है। प्रलय अभाव का ही नाम है इसलिये अभाव ही शेष रहा। अभाव की सत्ता भावरूप ब्रह्म पर ही टिकी हुई है। अतः भावरूप से एक ब्रह्म ही शेष रहा “सर्वं खल्विदं ब्रह्म “(छान्दोग्य0 3। 14। 1) वासुदेवः सर्वम् (गीता 7। 19)- स्वामी रामसुखदासजी