Bhagavat Gita in hindi chapter 4

 

 

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ज्ञानकर्मसंन्यासयोग ~ अध्याय चार

01-15 योग परंपरा, भगवान के जन्म कर्म की दिव्यता, भक्त लक्षणभगवत्स्वरूप

 

 

Bhagavat Gita in hindi chapter 4

 

श्रीभगवानुवाच।

इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम्।

विवस्वान्मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत् ॥4.1

 

श्रीभगवान् उवाचपरम भगवान श्रीकृष्ण ने कहा; इमम्इस; विवस्वतेसूर्यदेव को; योगम्योग शास्त्र में ; प्रोक्तवान्उपदेश दिया; अहम्मैंने; अव्ययम्शाश्वत; विवस्वान्सूर्यदेव का नाम: मनवेमानव जाति के मूल प्रजनक; प्राहदिया; मनुःमनु; इक्ष्वाकसूर्यवंश के प्रथम राजा इक्ष्वाकु; अब्रवीत्उपदेश दिया।

 

परम भगवान श्रीकृष्ण ने कहा– मैंने इस शाश्वत और अविनाशी ज्ञानयोग का उपदेश सूर्यदेव (विवस्वान् ) को दिया और विवस्वान् ने अपने पुत्र वैवस्वत मनु और फिर इसके बाद मनु ने इसका उपदेश अपने पुत्र इक्ष्वाकु को दिया।॥4.1

 

( भगवान ने जिन सूर्य , मनु और इक्ष्वाकु राजाओं का उल्लेख किया है वे सभी गृहस्थ थे और उन्होंने गृहस्थाश्रम में रहते हुए ही कर्मयोग के द्वारा परमसिद्धि प्राप्त की थी अतः यहाँ के इमम् अव्ययम् योगम् पदों का तात्पर्य पूर्वप्रकरण के अनुसार तथा राजपरम्परा के अनुसार कर्मयोग लेना ही उचित प्रतीत होता है। यद्यपि पुराणों में और उपनिषदों में भी कर्मयोग का वर्णन आता है तथापि वह गीता में वर्णित कर्मयोग के समान साङ्गोपाङ्ग और विस्तृत नहीं है। गीता में भगवान ने विविध युक्तियों से कर्मयोग का सरल और साङ्गोपाङ्ग विवेचन किया है। कर्मयोग का इतना विशद वर्णन पुराणों और उपनिषदों में देखने में नहीं आता। भगवान् नित्य हैं और उनका अंश जीवात्मा भी नित्य है तथा भगवान के साथ जीव का सम्बन्ध भी नित्य है। अतः भगवत्प्राप्ति के सब मार्ग (योगमार्ग , ज्ञानमार्ग , भक्तिमार्ग आदि ) भी नित्य हैं । यहाँ अव्ययम् पद से भगवान् कर्मयोग की नित्यता का प्रतिपादन करते हैं। परमात्मा के साथ जीव का स्वतःसिद्ध सम्बन्ध (नित्ययोग) है। जैसे पतिव्रता स्त्री को पति की होने  के लिये करना कुछ नहीं पड़ता क्योंकि वह पतिकी तो है ही । ऐसे ही साधक को परमात्मा का होने के लिये करना कुछ नहीं है वह तो परमात्मा का है ही परन्तु अनित्य क्रिया , पदार्थ , घटना आदि के साथ जब वह अपना सम्बन्ध मान लेता है तब उसे नित्य योग अर्थात् परमात्मा के साथ अपने नित्यसम्बन्ध का अनुभव नहीं होता। अतः उस अनित्य के साथ माने हुए सम्बन्ध को मिटाने के लिये कर्मयोगी शरीर , इन्द्रियाँ , मन , बुद्धि आदि मिली हुई समस्त वस्तुओं को संसार की ही मानकर संसार की सेवा में लगा देता है। वह मानता है कि जैसे धूल का छोटा से छोटा कण भी विशाल पृथ्वी का ही एक अंश है ऐसे ही यह शरीर भी विशाल ब्रह्माण्ड का ही एक अंश है। ऐसा मानने से कर्म तो संसार के लिये होंगे पर योग (नित्ययोग ) अपने लिये होगा अर्थात् नित्ययोग का अनुभव हो जायगा। भगवान  ‘ विवस्वते प्रोक्तवान् ‘ पदों से साधकों को मानो यह लक्ष्य कराते हैं कि जैसे सूर्य सदा चलते ही रहते हैं अर्थात् कर्म करते ही रहते हैं और सबको प्रकाशित करने पर भी स्वयं निर्लिप्त रहते हैं ऐसे ही साधकों को भी प्राप्त परिस्थिति के अनुसार अपने कर्तव्यकर्मों का पालन स्वयं करते रहना चाहिये और दूसरों को भी कर्मयोग की शिक्षा देकर लोकसंग्रह करते रहना चाहिये पर स्वयं उनसे निर्लिप्त (निष्काम , निर्मम और अनासक्त) रहना चाहिये। सृष्टि में सूर्य सबके आदि हैं। सृष्टि की रचना के समय भी सूर्य जैसे पूर्वकल्प में थे वैसे ही प्रकट हुए । उन (सबके आदि ) सूर्य को भगवान ने अविनाशी कर्मयोग का उपदेश दिया। इससे सिद्ध हुआ कि भगवान् सबके आदिगुरु हैं और साथ ही कर्मयोग भी अनादि है। भगवान् अर्जुन से मानो यह कहते हैं कि मैं तुम्हें जो कर्मयोग की बात बता रहा हूँ वह कोई आज की नयी बात नहीं है। जो योग सृष्टि के आदि से अर्थात् सदा से है उसी योग की बात मैं तुम्हें बता रहा हूँ। प्रश्न -भगवान ने सृष्टि के आदिकाल में सूर्य को कर्मयोग का उपदेश क्यों दिया ? उत्तर   (1) सृष्टि के आरम्भ में भगवान ने  सूर्य को ही कर्मयोग का वास्तविक अधिकारी जानकर उन्हें सर्वप्रथम इस योग का उपदेश दिया। (2) सृष्टि में जो सर्वप्रथम उत्पन्न होता है उसे ही उपदेश दिया जाता है जैसे ब्रह्माजी ने सृष्टि के आदि में प्रजाओं को उपदेश दिया ।  उपदेश देने का तात्पर्य है कर्तव्य का ज्ञान कराना। सृष्टि में सर्वप्रथम सूर्य की उत्पत्ति हुई । फिर सूर्य से समस्त लोक उत्पन्न हुए। सबको उत्पन्न करने वाले सूर्य को सर्वप्रथम कर्मयोग का उपदेश देने का अभिप्राय उनसे उत्पन्न सम्पूर्ण सृष्टि को परम्परा से कर्मयोग सुलभ करा देना था। (3) सूर्य सम्पूर्ण जगत के नेत्र हैं। उनसे ही सबको ज्ञान प्राप्त होता है एवं उनके उदित होने पर प्रायः समस्त प्राणी जाग्रत् हो जाते हैं और अपने-अपने कर्मों में लग जाते हैं। सूर्य से ही मनुष्यों में कर्तव्य-परायणता आती है। सूर्य को सम्पूर्ण जगत् की आत्मा भी कहा गया है – (सूर्य आत्मा जगतस्तस्थुषश्च )। अतः सूर्य को जो उपदेश प्राप्त होगा वह सम्पूर्ण प्राणियों को भी स्वतः प्राप्त हो जायगा। इसलिये भगवान ने सर्वप्रथम सूर्य को ही उपदेश दिया।वास्तव में नारायण के रूप में उपदेश देना और सूर्य के रूपमें उपदेश ग्रहण करना जगन् नाट्य सूत्रधार भगवान् की एक लीला ही समझनी चाहिये , जो संसार के हित के लिये बहुत आवश्यक थी। जिस प्रकार अर्जुन महान् ज्ञानी नर ऋषि के अवतार थे परन्तु लोकसंग्रह के लिये उन्हें भी उपदेश लेने की आवश्यकता हुई , ठीक उसी प्रकार भगवान ने स्वयं ज्ञानस्वरूप सूर्यको उपदेश दिया जिसके फलस्वरूप संसार का महान् उपकार हुआ है , हो रहा है और होता रहेगा। कर्मयोग गृहस्थों की खास विद्या है। ब्रह्मचर्य , गृहस्थ , वानप्रस्थ और संन्यास इन चारों आश्रमों में गृहस्थ आश्रम ही मुख्य है क्योंकि गृहस्थ आश्रम से ही अन्य आश्रम बनते और पलते हैं। मनुष्य गृहस्थ आश्रम में रहते हुए ही अपने कर्तव्य-कर्मों का पालन करके सुगमतापूर्वक परमात्मप्राप्ति कर सकता है। उसे परमात्मप्राप्ति के लिये आश्रम बदलने की जरूरत नहीं है। भगवान् ने सूर्य , मनु , इक्ष्वाकु आदि राजाओं का नाम लेकर यह बताया है कि कल्प के आदि में गृहस्थों ने ही कर्मयोग की विद्या को जाना और गृस्थाश्रम में रहते हुए ही उन्होंने कामनाओं का नाश करके परमात्मतत्त्व को प्राप्त किया। स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण और अर्जुन भी गृहस्थ थे। इसलिये भगवान् अर्जुन के माध्यम से मानो सम्पूर्ण गृहस्थों को सावधान (उपदेश) करते हैं कि तुम लोग अपने घर की विद्या कर्मयोग का पालन करके घर में रहते हुए ही परमात्मा को प्राप्त कर सकते हो , तुम्हें दूसरी जगह जाने की जरूरत नहीं है। गृहस्थ होने पर भी अर्जुन प्राप्त कर्तव्यकर्म (युद्ध) को छोड़कर भिक्षा के अन्न से जीविका चलाने को श्रेष्ठ मानते हैं अर्थात् अपने कल्याण के लिये गृहस्थ आश्रम की अपेक्षा संन्यास आश्रम को श्रेष्ठ समझते हैं। इसलिये उपर्युक्त पदों से भगवान् मानो यह बताते हैं कि तुम भी राजघराने के श्रेष्ठ गृहस्थ हो । कर्मयोग तुम्हारे घर की खास विद्या है इसलिये इसी का पालन करना तुम्हारे लिये श्रेयस्कर है। संन्यासी के द्वारा जो परमात्मतत्त्व प्राप्त किया जाता है वही तत्त्व कर्मयोगी गृहस्थाश्रम में रहकर भी स्वाधीनतापूर्वक प्राप्त कर सकता है। अतः कर्मयोग गृहस्थों  की तो मुख्य विद्या है पर संन्यास आदि अन्य आश्रम वाले भी इसका पालन करके परमात्मतत्त्वको प्राप्त कर सकते हैं। प्राप्त परिस्थिति का सदुपयोग ही कर्मयोग है। अतः कर्मयोग का पालन किसी भी वर्ण , आश्रम , सम्प्रदाय , देश , काल आदि में किया जा सकता है। किसी विद्या में श्रेष्ठ और प्रभावशाली पुरुषों का नाम लेने से उस विद्या की महिमा प्रकट होती है, जिससे दूसरे लोग भी वैसा करने के लिये उत्साहित होते हैं। जिन लोगों के हृदय में सांसारिक पदार्थों का महत्त्व है उन पर ऐश्वर्यशाली राजाओं का अधिक प्रभाव पड़ता है। इसलिये भगवान् सृष्टि के आदि में होने वाले सूर्य का तथा मनु आदि प्रभावशाली राजाओं के नाम लेकर कर्मयोग का पालन करने की प्रेरणा करते हैं। क्रियाओं और पदार्थों में राग होने से अर्थात् उनके साथ अपना सम्बन्ध मानने से कर्मयोग नहीं हो पाता। गृहस्थ में रहते हुए भी सांसारिक भोगों से अरुचि (उपरति अथवा कामना का अभाव) होती है। किसी भी भोग को भोगें किन्तु अन्त में उस भोग से अरुचि अवश्य उत्पन्न होती है यह नियम है। आरम्भ में भोग की जितनी रुचि (कामना) रहती है भोग भोगते समय वह उतनी नहीं रह जाती बल्कि क्रमशः घटते-घटते समाप्त हो जाती है जैसे मिठाई खाने के आरम्भ में उसकी जो रुचि होती है वह उसे खाने के साथ-साथ घटती चली जाती है और अन्त में उससे अरुचि हो जाती है परन्तु मनुष्य भूल यह करता है कि वह उस अरुचि को महत्त्व देकर उसे स्थायी नहीं बनाता। वह अरुचि को ही तृप्ति (फल) मान लेता है परन्तु वास्तव में अरुचि में थकावट अर्थात् भोगने की शक्ति का अभाव ही होता है। जिस रुचि या कामना का किसी भी समय अभाव होता है वह रुचि या कामना वास्तव में स्वयं की नहीं होती। जिससे कभी भी अरुचि होती है उससे हमारा वास्तविक सम्बन्ध नहीं होता। जिससे हमारा वास्तविक सम्बन्ध है उस सत्स्वरूप परमात्म तत्त्व की ओर चलने में कभी अरुचि नहीं होती बल्कि रुचि बढ़ती ही जाती है । यहाँ तक कि परमात्मतत्त्व की प्राप्ति होने पर भी प्रेम के रूप में वह रुचि बढ़ती ही रहती है। स्वयं भी सत्स्वरूप है । इसलिये अपने अभाव की रुचि भी किसी की नहीं होती।कर्म करण (शरीर , इन्द्रियाँ , मन आदि) और उपकरण (पदार्थ अर्थात् कर्म करने में उपयोगी सामग्री) ये तीनों ही उत्पन्न और नष्ट होने वाले हैं फिर इनसे मिलने वाला फल कैसे नित्य होगा वह तो नाशवान् ही होगा। अविनाशी की प्राप्ति से जो तृप्ति होती है वह नाशवान् फल की प्राप्ति से कैसे हो सकती है ।इसलिये साधक को कर्म  ,करण और उपकरण तीनों से ही सम्बन्ध-विच्छेद करना है। इनसे सम्बन्ध-विच्छेद तभी होगा जब साधक अपने लिये कुछ नहीं करेगा , अपने लिये कुछ नहीं चाहेगा और अपना कुछ नहीं मानेगा बल्कि  अपने कहलाने वाले कर्म करण और उपकरण इन तीनों से अपना सम्बन्ध-विच्छेद करने के लिये इन्हें संसार का ही मानकर संसार की ही सेवा में लगा देगा। कर्म करते हुए भी कर्मयोगी की कर्मों में कामना , ममता और आसक्ति नहीं होती बल्कि उनमें प्रीति और तत्परता होती है। कामना , ममता तथा आसक्ति अपवित्रता करनेवाली हैं और प्रीति तथा तत्परता पवित्रता करने वाली हैं। कामना , ममता तथा आसक्तिपूर्वक किसी भी कर्म को करने से अपना पतन और पदार्थों का नाश होता है तथा उस कर्म की बारबार याद आती है अर्थात् उस कर्म से सम्बन्ध बना रहता है परन्तु प्रीति तथा तत्परतापूर्वक कर्म करने से अपनी उन्नति और पदार्थों का सदुपयोग होता है , नाश नहीं तथा उस कर्म की पुनः याद भी नहीं आती अर्थात् उस कर्म से सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है। इस प्रकार कर्मों से सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद होते ही नित्यप्राप्त स्वरूप अथवा परमात्मतत्त्व का अनुभव हो जाता है। कोई भी मनुष्य क्यों न हो वह सुगमतापूर्वक मान सकता है कि जो कुछ मेरे पास है वह मेरा नहीं है बल्कि किसी से मिला हुआ है जैसे शरीर माता-पितासे मिला है । विद्या-योग्यता गुरुजनों से मिली है इत्यादि। तात्पर्य यह कि एक-दूसरे की सहायता से ही सबका जीवन चलता है। धनी सेध नी व्यक्ति का जीवन भी दूसरे की सहायता के बिना नहीं चल सकता। हमने किसी से लिया है तो किसी को देना , किसी की सहायता करना , सेवा करना हमारा भी परम कर्तव्य है। इसी का नाम कर्मयोग है। इसका पालन मनुष्यमात्र कर सकता है और इसके पालन में कभी लेशमात्र भी असमर्थता तथा पराधीनता नहीं है। कर्तव्य उसे कहते हैं जिसे सुखपूर्वक कर सकते हैं , जिसे अवश्य करना चाहिये अर्थात् जो करनेयोग्य है और जिसे करने से उद्देश्य की सिद्धि अवश्य होती है। जो नहीं कर सकते उसे करने की जिम्मेवारी किसी पर नहीं है और जिसे नहीं करना चाहिये उसे करना ही नहीं है। जिसे नहीं करना चाहिये उसे न करने से दो अवस्थाएँ स्वतः आती हैं । निर्विकल्प अवस्था अर्थात् कुछ न करना अथवा जिसे करना चाहिये उसे करना। कर्तव्य सदा निष्कामभाव से एवं परहित की दृष्टि से किया जाता है। सकाम भाव से किया गया कर्म बन्धनकारक होता है इसलिये उसे करना ही नहीं है। निष्कामभाव से किया जाने वाला कर्म फल की कामना से रहित होता है उद्देश्य से रहित नहीं। उद्देश्यरहित चेष्टा तो पागल की होती है। फल और उद्देश्य दोनों में अन्तर होता है। फल उत्पन्न और नष्ट होने वाला होता है पर उद्देश्य नित्य होता है। उद्देश्य नित्य प्राप्त परमात्मा के अनुभवका होता है जिसके लिये मनुष्य जन्म हुआ है। अपने कर्तव्य का पालन न करने से उस परमात्माका अनुभव नहीं होता। सकाम भाव प्रमाद तथा आलस्य आदि रहने से अपने कर्तव्य का पालन कठिन प्रतीत होता है।वास्तव में कर्तव्यकर्म का पालन करने में परिश्रम नहीं है। कर्तव्यकर्म सहज स्वाभाविक होता है क्योंकि यह स्वधर्म है। परिश्रम तब होता है जब अहंता ,आसक्ति , ममता , कामना से युक्त होकर अर्थात् अपने लिये कर्म करते हैं। इसलिये भगवान ने राजस कर्म को परिश्रमयुक्त बताया है । जैसे भगवान् के द्वारा प्राणिमात्र का हित होता है ऐसे ही भगवान् की शक्ति भी प्राणिमात्र के हितमें निरन्तर लगी हुई है। जिस प्रकार आकाशवाणी केन्द्र के द्वारा प्रसारित विशेष शक्तियुक्त ध्वनि सब जगह फैल जाती है पर रेडियो के द्वारा जिस नंबर पर उस ध्वनि से एकता (सजातीयता) होती है उस नंबर पर वह ध्वनि पकड़में आ जाती है। इसी प्रकार जब कर्मयोगी स्वार्थभाव का त्याग करके केवल संसारमात्र के हित के भाव से ही समस्त कर्म करता है तब भगवान् की सर्वव्यापी , हितैषिणी शक्ति से उसकी एकता हो जाती है और उसके कर्मों में विलक्षणता आ जाती है। भगवान् की शक्ति से एकता होने से उसमें भगवान् की शक्ति ही काम करती है और उस शक्ति के द्वारा ही लोगों का हित होता है। इसलिये कर्तव्य कर्म करने में न तो कोई बाधा लगती है और न परिश्रम का अनुभव ही होता है।कर्मयोग में पराश्रय की भी आवश्यकता नहीं है। जो परिस्थिति प्राप्त हो जाय उसी में कर्मयोग का पालन करना है। कर्मयोग के अनुसार किसी के कार्य में आवश्यकता पड़ने पर सहायता कर देना सेवा है जैसे किसी की गाड़ी खराब हो गयी और वह उसे धक्का दे नेकी कोशिश कर रहा है । अतः हम भी इस काम में उसकी सहायता करें तो यह सेवा है। जो जानबूझकर कार्य को खोज-खोजकर सेवा करता है वह कर्म करता है सेवा नहीं क्योंकि ऐसा करने से उसका उद्देश्य पारमार्थिक न रहकर लौकिक हो जाता है। सेवा वह है जो परिस्थिति के अनुरूप की जाय। कर्मयोगी न तो परिस्थिति बदलता है और न परिस्थिति ढूँढता है। वह तो प्राप्त परिस्थिति का सदुपयोग करता है। प्राप्त परिस्थिति का सदुपयोग ही कर्मयोग है- स्वामी रामसुखदासजी 

 

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