ज्ञानकर्मसंन्यासयोग ~ अध्याय चार
24-33 फलसहित विभिन्न यज्ञों का वर्णन
अपाने जुह्वति प्राणं प्राणेऽपानं तथापरे ।
प्राणापानगती रुद्ध्वा प्राणायामपरायणाः ॥4.29॥
अपरे नियताहाराः प्राणान्प्राणेषु जुह्वति।
सर्वेऽप्येते यज्ञविदो यज्ञक्षपितकल्मषाः॥4.30॥
अपाने – भीतरी श्वास; जुह्वति–अर्पित करते हैं; प्राणम् –बाहरी श्वास; प्राणे–बाहर जाने वाली श्वास में; अपानम्–भीतरी श्वास; तथा–भी; अपरे–दूसरे; प्राण–बाहर जाने वाली श्वास को; अपान–अंदर आने वाली श्वास में; गती–गति; रुवा–रोककर; प्राणआयाम–श्वास को नियंत्रित करना; परायणा:-पूर्णतया समर्पित; अपरे–अन्य; नियत–नियंत्रित; आहारा:-खाकर; प्राणान्–प्राण वायु को; प्राणेषु–जीवन शक्ति; जुह्वति–अर्पित करते हैं; सर्वे – सभी; अपि–भी; एते–ये; यज्ञ–विदः–यज्ञ का ज्ञाता; यज्ञक्षपित–यज्ञ सम्पन्न करने से शुद्ध; कल्मषाः–अशुद्धता;।
कुछ अन्य लोग भी हैं जो बाहर छोड़े जाने वाली श्वास ( प्राणवायु ) को अन्दर भरी जाने वाली श्वास ( अपान वायु ) में जबकि अन्य लोग अन्दर भरी जाने वाली श्वास (अपान वायु ) को बाहरी श्वास ( प्राणवायु ) में रोककर यज्ञ के रूप में अर्पित ( हवन ) करते हैं। कुछ प्राणायाम परायण पुरुष प्राणायाम की कठिन क्रियाओं द्वारा भीतरी ( अपान वायु ) और बाहरी ( प्राणवायु ) श्वासों को रोककर प्राणों को नियंत्रित कर उसमें पूरी तरह से आत्मसात् हो जाते हैं अर्थात प्राणों को प्राणों में ही हवन किया करते हैं। । कुछ योगी जन अल्प भोजन या नियमित आहार कर श्वासों को यज्ञ के रूप में प्राण शक्ति में अर्पित कर देते हैं। सब प्रकार के यज्ञों को संपन्न करने के परिणामस्वरूप योग साधक अपनी अशुद्धता को शुद्ध करते हैं। अर्थात ये सभी साधक यज्ञों द्वारा पापों का नाश कर देने वाले और यज्ञों को जानने वाले हैं॥4.29-4.30॥
( प्राण का स्थान हृदय (ऊपर) तथा अपान का स्थान गुदा (नीचे) है । श्वास को बाहर निकालते समय वायु की गति ऊपर की ओर तथा श्वास को भीतर ले जाते समय वायु की गति नीचे की ओर होती है। इसलिये श्वास को बाहर निकालना प्राण का कार्य और श्वास को भीतर ले जाना अपान का कार्य है। योगी लोग पहले बाहर की वायु को बायीं नासिका (चन्द्रनाड़ी ) के द्वारा भीतर ले जाते हैं। वह वायु हृदय में स्थित प्राणवायु को साथ लेकर नाभि से होती हुई स्वाभाविक ही अपान में लीन हो जाती है। इसको पूरक कहते हैं। फिर वे प्राणवायु और अपानवायु दोनों की गति रोक देते हैं। न तो श्वास बाहर जाता है और न श्वास भीतर ही आता है। इसको कुम्भक कहते हैं। इसके बाद वे भीतर की वायु को दायीं नासिका (सूर्यनाड़ी) के द्वारा बाहर निकालते हैं। वह वायु स्वाभाविक ही प्राणवायु को तथा उसके पीछे-पीछे अपानवायु को साथ लेकर बाहर निकलती है। यही प्राणवायु में अपानवायु का हवन करना है। इसको रेचक कहते हैं। चार भगवन्नाम से पूरक , सोलह भगवन्नाम से कुम्भक और आठ भगवन्नाम से रेचक किया जाता है। इस प्रकार योगी लोग पहले चन्द्रनाड़ी से पूरक फिर कुम्भक और फिर सूर्यनाड़ी से रेचक करते हैं। इसके बाद सूर्यनाड़ी से पूरक , फिर कुम्भक और फिर चन्द्रनाड़ी से रेचक करते हैं। इस तरह बार-बार पूरक , कुम्भक , रेचक करना प्राणायाम रूप यज्ञ है। परमात्म प्राप्ति के उद्देश्य से निष्कामभावपूर्वक प्राणायाम के परायण होने से सभी पाप नष्ट हो जाते हैं । नियमित आहार-विहार करने वाले साधक ही प्राणों का प्राणों में हवन कर सकते हैं। अधिक या बहुत कम भोजन करने वाला अथवा बिलकुल भोजन न करने वाला यह प्राणायाम नहीं कर सकता । प्राणों का प्राणों में हवन करने का तात्पर्य है प्राण का प्राणमें और अपान का अपान में हवन करना अर्थात् प्राण और अपान को अपने-अपने स्थानों पर रोक देना। न श्वास बाहर निकालना और न श्वास भीतर लेना। इसे स्तम्भवृत्ति प्राणायाम भी कहते हैं। इस प्राणायाम से स्वाभाविक ही वृत्तियाँ शान्त होती हैं और पापों का नाश हो जाता है। केवल परमात्म प्राप्ति का उद्देश्य रखकर प्राणायाम करने से अन्तःकरण निर्मल हो जाता है और परमात्म प्राप्ति हो जाती है। चौबीसवें श्लोक से तीसवें श्लोक के पूर्वार्ध तक जिन यज्ञों का वर्णन हुआ है उन यज्ञों का अनुष्ठान करने वाले साधकों के और समय – समय पर उन यज्ञों का अनुष्ठान करते रहने से उनके सम्पूर्ण पाप नष्ट हो जाते हैं और अविनाशी परमात्मा की प्राप्ति हो जाती है। वास्तव में सम्पूर्ण यज्ञ केवल कर्मों से सम्बन्ध-विच्छेद करने के लिये ही हैं । ऐसा जानने वाले ही यज्ञवित् अर्थात् यज्ञ के तत्त्व को जानने वाले हैं । कर्मों से सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद होने पर परमात्मा का अनुभव हो जाता है। जो लोग अविनाशी परमात्मा का अनुभव करने के लिये यज्ञ नहीं करते बल्कि इस लोक और परलोक (स्वर्गादि ) के विनाशी भोगों की प्राप्ति के लिये ही यज्ञ करते हैं वे यज्ञ के तत्त्व को जानने वाले नहीं हैं। कारण कि विनाशी पदार्थों की कामना ही बन्धन का कारण है । अतः मन में कामना और वासना रखकर परिश्रमपूर्वक बड़े-बड़े यज्ञ करने पर भी जन्म-मरण का बन्धन बना रहता है । मिटी न मन की वासना नौ तत भये न नास। तुलसी केते पच मुये दे दे तन को त्रास। यज्ञ करते समय अग्नि में आहुति दी जाती है। आहुति दी जाने वाली वस्तुओं के रूप पहले अलग-अलग होते हैं परन्तु अग्नि में आहुति देने के बाद उनके रूप अलग-अलग नहीं रहते अपितु सभी वस्तुएँ अग्निरूप हो जाती हैं। इसी प्रकार परमात्म प्राप्ति के लिये जिन साधनों का यज्ञरूप से वर्णन किया गया है उनमें आहुति देने का तात्पर्य यही है कि आहुति दी जाने वाली वस्तुओं की अलग सत्ता रहे ही नहीं सब स्वाहा हो जाय। जब तक उनकी अलग सत्ता बनी हुई है तब तक वास्तव में उनकी आहुति दी ही नहीं गयी अर्थात् यज्ञ का अनुष्ठान हुआ ही नहीं। इसी अध्याय के सोलहवें श्लोक से भगवान् कर्मों के तत्त्व (कर्म में अकर्म ) का वर्णन कर रहे हैं। कर्मों का तत्त्व है कर्म करते हुए भी उनसे नहीं बँधना। कर्मों से न बँधने का ही एक साधन है यज्ञ। जैसे अग्नि में डालने पर सब वस्तुएँ स्वाहा हो जाती हैं ऐसे ही केवल लोकहित के लिये किये जाने वाले सब कर्म स्वाहा हो जाते हैं । निष्कामभावपूर्वक केवल लोकहितार्थ किये गये साधारण से साधारण कर्म भी परमात्मा की प्राप्ति कराने वाले हो जाते हैं परन्तु सकाम भावपूर्वक किये गये बड़े से बड़े कर्मों से भी परमात्मा की प्राप्ति नहीं होती। कारण कि उत्पत्तिविनाशशील पदार्थों की कामना ही बाँधने वाली है। पदार्थ और क्रियारूप संसार से अपना सम्बन्ध मानने के कारण मनुष्यमात्र में पदार्थ पाने और कर्म करने का राग रहता है कि मुझे कुछ न कुछ मिलता रहे और मैं कुछ न कुछ करता रहूँ। इसी को पाने की कामना तथा करने का वेग कहते हैं। मनुष्य में जो पाने की कामना रहती है वह वास्तव में अपने अंशी परमात्मा को ही पाने की भूख है परन्तु परमात्मा से विमुख और संसार के सम्मुख होने के कारण मनुष्य इस भूखको सांसारिक पदार्थोंसे ही मिटाना चाहता है। सांसारिक पदार्थ विनाशी हैं और जीव अविनाशी है। अविनाशी की भूख विनाशी पदार्थों से मिट ही कैसे सकती है परन्तु जब तक संसार की सम्मुखता रहती है तब तक पाने की कामना बनी रहती है। जब तक मनुष्य में पाने की कामना रहती है तब तक उसमें करने का वेग बना रहता है। इस प्रकार जब तक पाने की कामना और करने का वेग बना हुआ है अर्थात् पदार्थ और क्रिया से सम्बन्ध बना हुआ है तब तक जन्म-मरण नहीं छूटता। इससे छूटने का उपाय है कुछ भी पाने की कामना न रखकर केवल दूसरोंके हित के लिये कर्म करना। इसी को लोकसंग्रह यज्ञार्थ कर्म , लोकहितार्थ कर्म आदि नामों से कहा गया है। केवल दूसरों के हित के लिये कर्म करने से संसार से सम्बन्ध छूट जाता है और असङ्गता आ जाती है। अगर केवल भगवान के लिये कर्म किये जाएं तो संसार से सम्बन्ध छूटकर असङ्गता तो आ ही जाती है इसके साथ एक और विलक्षण बात यह होती है कि भगवान का प्रेम प्राप्त हो जाता है । 24वें श्लोक से 30वें श्लोक के पूर्वार्ध तक भगवान ने कुल बारह प्रकार के यज्ञों का वर्णन किया और 30वें श्लोक के उत्तरार्ध में यज्ञ करने वाले साधकों की प्रशंसा की। अब भगवान आगे के श्लोक में यज्ञ करने से होने वाले लाभ और न करने से होने वाली हानि बताते हैं – स्वामी रामसुखदास जी )