Bhagavat Gita in hindi chapter 4

 

 

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ज्ञानकर्मसंन्यासयोग ~ अध्याय चार

01-15 योग परंपरा, भगवान के जन्म कर्म की दिव्यता, भक्त लक्षणभगवत्स्वरूप

 

 

Bhagavat Gita in hindi chapter 4

 

न मां कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफले स्पृहा।

इति मां योऽभिजानाति कर्मभिर्न स बध्यते ॥4.14॥

 

कभी नहीं; माम्मुझको; कर्माणिकर्म; लिम्पन्तिदूषित करते हैं; नहीं; मे – मेरी; कर्मफलेकर्मफल में; स्पृहाइच्छा; इतिइस प्रकार; माम्मुझको; यःजो; अभिजानातिजानता है; कर्मभिःकर्म का फल; कभी नहीं; सःवह; बध्यतेबँध जाता है।

 

न तो कर्म मुझे दूषित करते हैं और न ही मैं कर्म के फल की कामना करता हूँ जो मेरे इस स्वरूप को जानता है अर्थात जो इस प्रकार मुझे तत्व से जान लेता है वह कभी कर्मफलों के बंधन में नहीं पड़ता अर्थात कर्मों से नहीं बंधता ॥4.14

 

( पूर्वजन्मों में किये गये कर्मों के अनुसार सत्त्व , रज और तम इन तीनों गुणों में कमी और अधिकता रहती है। सृष्टि रचना के समय उन गुणों और कर्मों के अनुसार भगवान ब्राह्मण , क्षत्रिय , वैश्य और शूद्र इन चारों वर्णों की रचना करते हैं। मनुष्य के अतिरिक्त देव , पितर, तिर्यक आदि दूसरी योनियों की रचना भी भगवान गुणों और कर्मों के अनुसार ही करते हैं। इसमें भगवान की किञ्चिन्मात्र भी विषमता नहीं है। केवल मनुष्य ही चार प्रकार के नहीं होते अपितु पशु , पक्षी , वृक्ष आदि भी चार प्रकार के होते हैं जैसे पक्षियों में कबूतर आदि ब्राह्मण , बाज आदि क्षत्रिय , चील आदि वैश्य , और कौआ आदि शूद्र पक्षी हैं। इसी प्रकार वृक्षों में पीपल आदि ब्राह्मण , नीम आदि क्षत्रिय, इमली आदि वैश्य और बबूल (कीकर) आदि शूद्र वृक्ष हैं परन्तु यहाँ ‘ चातुर्वर्ण्यम् पद ‘ से मनुष्यों को ही लेना चाहिये क्योंकि वर्ण विभाग को मनुष्य ही समझ सकते हैं और उसके अनुसार कर्म कर सकते हैं। कर्म करने का अधिकार मनुष्य को ही है। चारों वर्णों की रचना मैंने ही की है । इससे भगवान का यह भाव भी है कि एक तो ये मेरे ही अंश हैं और दूसरे मैं प्राणिमात्र का सुहृद हूँ इसलिये मैं सदा उनके हित को ही देखता हूँ। इसके विपरीत ये न तो देवता के अंश हैं और न देवता सबसे सुहृद् ही हैं। इसलिये मनुष्य को चाहिये कि वह अपने वर्ण के अनुसार समस्त कर्तव्य कर्मों से मेरा ही पूजन करे । सृष्टि की रचना , पालन , संहार आदि सम्पूर्ण कर्मों को करते हुए भी भगवान उन कर्मों से सर्वथा अतीत निर्लिप्त ही रहते हैं। सृष्टि रचना में भगवान ही उपादान कारण हैं और वे ही निमित्त कारण हैं। मिट्टी से बने पात्र में मिट्टी उपादान कारण है और कुम्हार निमित्त कारण है। मिट्टी से पात्र बनने में मिट्टी व्यय या खर्च हो जाती है और उसे बनाने में कुम्हार की शक्ति भी खर्च होती है परन्तु सृष्टि रचना में भगवान का कुछ भी व्यय नहीं होता। वे ज्यों के त्यों ही रहते हैं। इसलिये उन्हें अव्ययम् कहा गया है। जीव भी भगवान का अंश होने से अव्यय ही है। शरीर आदि सब वस्तुएँ संसार की हैं और संसार से ही मिली हैं। अतः उन्हें संसार की ही सेवा में लगा देने से अपना क्या व्यय हुआ । हम तो (स्वरूपतः) अव्यय ही रहे। इसलिये यदि साधक शरीर, इन्द्रियाँ, मन , बुद्धि , धन ,सम्पत्ति आदि मिले हुए सांसारिक पदार्थों को अपना और अपने लिये न माने तो फिर उसे अपनी अव्ययता का अनुभव हो जायगा। यहाँ विद्धि पद से भगवान ने कर्मों की दिव्यता को समझने की आज्ञा दी है । कर्म करते हुए भी कर्म, कर्म सामग्री और कर्मफल से अपना कोई सम्बन्ध न रहना ही कर्मों की दिव्यता है। न मां कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफले स्पृहा – विश्व की रचना आदि  समस्त कर्म करते हुए भी भगवान का उन कर्मों से कुछ भी सम्बन्ध नहीं है। उनके कर्मों में विषमता , पक्षपात आदि दोष लेशमात्र भी नहीं हैं। उनकी कर्मफल में किञ्चिन्मात्र भी आसक्ति , ममता या कामना नहीं है। इसलिये वे कर्म भगवान को लिप्त नहीं करते। उत्पत्ति और विनाशशील वस्तु मात्र कर्मफल है। भगवान कहते हैं कि जैसे मेरी कर्मफल में कोई चाह या इच्छा नहीं है ऐसे ही तुम्हारी भी कर्मफल में कोई इच्छा नहीं होनी चाहिये। कर्मफल में इच्छा न रहने से सम्पूर्ण कर्म करते हुए भी तुम कर्मों से बँधोगे नहीं। भगवान ने पहले भी बताया कि सृष्टि की रचना आदि समस्त कर्मों का कर्ता होते हुए भी मैं अकर्ता हूँ अर्थात् मुझमें कर्तृत्वाभिमान अर्थात कर्तापन का अभिमान नहीं है और इस श्लोक में बताते हैं कि कर्मफल में मेरी इच्छा नहीं है अर्थात मुझमें भोक्तृत्वाभिमान अर्थात कर्मों का फल भोगने का या भोक्तापन का अभिमान भी नहीं है। अतः साधक को भी इन दोनों से रहित होना चाहिये। फल की इच्च्चा का त्याग करके केवल दूसरों के लिये कर्म करने से कर्तृत्व और भोक्तृत्व दोनों ही नहीं रहते अर्थात कर्तापन और भोक्तापन दोनों नहीं रहते। कर्तृत्व-भोक्तृत्व ही संसार है। अतः इनके न रहने से मुक्ति स्वतःसिद्ध ही है। मनुष्य में जब कामनाएँ उत्पन्न होती हैं तब उसकी दृष्टि उत्पत्तिशील और विनाशशील पदार्थों पर रहती है। उत्पत्ति-विनाशशील या अनित्य पदार्थों पर दृष्टि रहने से वह नित्य भगवान को तत्त्व से नहीं जान सकता पर कामनाओं के मिटने से जब अन्तःकरण शुद्ध हो जाता है तब भगवान की ओर स्वतः दृष्टि जाती है। भगवान की ओर दृष्टि जाने पर मनुष्य जान जाता है कि भगवान प्राणिमात्र के परम सुहृद् हैं इसलिये उनके द्वारा होने वाली क्रियाएँ प्राणिमात्र के हित के लिये ही होती हैं। भगवान तो जीवों को कर्मबन्धन से रहित करने के लिये ही उन्हें मनुष्य शरीर देते हैं पर इस बात को न समझने के कारण जीव कर्मों से नये-नये सम्बन्ध मानकर और अधिक बन्धन उत्पन्न कर लेता है। इसलिये कर्तापन और फल की इच्छा न होने पर भी वे केवल कृपा करके जीवों को कर्मबन्धन से रहित करके उनका उद्धार करने के लिये ही सृष्टिरचना का कार्य करते हैं। भगवान को इस तरह जान लेने से मनुष्य भगवान की ओर खिंच जाता है। भगवान के कर्म तो दिव्य हैं ही सन्त-महात्माओं के कर्म भी दिव्य हो जाते हैं। वास्तव में सन्त-महात्मा ही नहीं मनुष्यमात्र अपने कर्मों को दिव्य बना सकता है। जब कर्मों में मलिनता ( कामना , ममता , आसक्ति आदि ) होती है तब वे कर्म बाँधने वाले हो जाते हैं। जब मलिनता के दूर हो जाने पर कर्म दिव्य हो जाते हैं तब वे उसे नहीं बाँधते। इतना ही नहीं वे कर्म उस कर्ता को और दूसरों को भी उसके अनुसार आचरण करने से मुक्त करने वाले हो जाते हैं। अपने कर्मों को दिव्य बनाने का सरल उपाय है संसार से मिली हुई वस्तुओं को अपनी और अपने लिये न मानकर संसार की और संसार के लिये मानते हुए संसार की सेवा में लगा देना।हमारे पास शरीर आदि जितनी भी बाह्य वस्तुएँ हैं उन सबको हम साथ लाये नहीं और जायँगे तब साथ ले जा सकते नहीं । उनके रहते हुए उनमें इच्छानुसार परिवर्तन कर सकते नहीं , उन्हें इच्छानुसार रख सकते नहीं अर्थात् उन पर हमारा कोई आधिपत्य नहीं है। इसी प्रकार जन्म जन्मान्तरों से साथ आये सूक्ष्म और कारण शरीर भी परिवर्तनशील और प्रकृति के कार्य हैं इसलिये उनके साथ भी हमारा सम्बन्ध नहीं है। वे वस्तुएँ अपने लिये नहीं हैं क्योंकि उनके मिलने पर भी और मिले यह इच्छा रहती है। यदि वे वस्तुएँ अपने लिये होतीं तो और मिलने की इच्छा नहीं रहती। ऐसा होने पर भी उन वस्तुओं को अपनी और अपने लिये मानना कितनी बड़ी भूल है । उन वस्तुओं में जो अपनापन दिखता है वह वास्तव में केवल उनका सदुपयोग करने के लिये है उन पर अपना अधिकार जमाने के लिये नहीं। सेवा करने के लिये तो सब अपने हैं पर सेवा लेने के लिये कोई अपना नहीं है। संसार की तो बात ही क्या है भगवान भी लेने के लिये अपने नहीं हैं अर्थात् भगवान से भी कुछ नहीं लेना है बल्कि अपने आपको ही भगवान के समर्पित करना है। कारण कि जो वस्तु हमें चाहिये और हमारे हित की है वह भगवान ने हमें पहले से ही बिना माँगे दे रखी है और ज्यादा दे रखी है कम नहीं। हमारी जरूरत को जितना भगवान समझते हैं उतना हम कभी समझ भी नहीं सकते क्योंकि भगवान की उदारता अपार है। उनके सामने हमारी समझ तो बहुत ही अल्प है। इसलिये उनसे माँगना किस बात का । जो कुछ हमें मिला है उसी का हमें सदुपयोग करना है। वस्तुओं को अपनी और अपने लिये न मानकर निष्काम भावपूर्वक दूसरों के हित में लगा देना ही वस्तुओं का सदुपयोग है। इससे कर्मों और पदार्थों से सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है और महान आनन्द स्वरूप परमात्मा का अनुभव हो जाता है- स्वामी रामसुखदास जी  )

         

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