ज्ञानकर्मसंन्यासयोग ~ अध्याय चार
16-18 कर्म-विकर्म एवं अकर्म की व्याख्या
कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं बोद्धव्यं च विकर्मणः ।
अकर्मणश्च बोद्धव्यं गहना कर्मणो गतिः ॥4.17॥
कर्मणः–अनुशंसित कर्म, अनुमोदित कर्म ; हि–निश्चय ही; अपि भी; बोद्धव्यम्–जानना चाहिए; च–भी; विकर्मणः–वर्जित कर्म का; अकर्मणः–अकर्म, निष्क्रिय होना ; च–भी; बोद्धव्यम्–जानना चाहिए; गहना–गहन कठिन; कर्मणः–कर्म की; गतिः–सत्य मार्ग।
तुम्हें सभी तीन कर्मों-अनुमोदित कर्म, विकर्म ( वर्जित कर्म ) और अकर्म ( निष्क्रिय होना ) की प्रकृति या स्वरूप को समझना चाहिए। क्योंकि कर्म की गति गहन है अर्थात इनके सत्य को समझना कठिन है॥17॥
( कर्म करते हुए निर्लिप्त रहना अर्थात उनमें लिप्त न होना ही कर्म के तत्त्व को जानना है । कर्म स्वरूप से एक दिखने पर भी अन्तःकरण के भाव के अनुसार उसके तीन भेद हो जाते हैं – कर्म ,अकर्म और विकर्म। सकाम भाव से की गयी शास्त्रविहित क्रिया कर्म बन जाती है। फल की इच्छा , ममता और आसक्ति से रहित होकर केवल दूसरों के हित के लिये किया गया कर्म अकर्म बन जाता है। विहित कर्म भी यदि दूसरे का हित करने अथवा उसे दुःख पहुँचाने के भाव से किया गया हो तो वह भी विकर्म बन जाता है। निषिद्ध कर्म तो विकर्म है ही।निर्लिप्त रहते हुए कर्म करना ही अकर्म के तत्त्वको जानना है । कामना से अर्थात इच्छा से कर्म होते हैं। जब कामना अधिक बढ़ जाती है तब विकर्म (पापकर्म) होते हैं। दूसरे अध्याय के 38वें श्लोक में भगवान ने बताया है कि अगर युद्ध जैसा हिंसायुक्त घोर कर्म भी शास्त्र की आज्ञा से और समतापूर्वक अर्थात जय-पराजय , लाभ-हानि और सुख-दुःख को समान समझकर किया जाय तो उससे पाप नहीं लगता। समतापूर्वक कर्म करने से दिखने में विकर्म होता हुआ भी वह अकर्म हो जाता है। शास्त्रनिषिद्ध कर्म का नाम विकर्म है। विकर्म के होने में कामना ही कारण है । अतः विकर्म का तत्त्व है कामना । विकर्म का स्वरूप से त्याग करना तथा उसके कारण कामना का त्याग करना ही विकर्म के तत्त्व को जानना है । कौन सा कर्म मुक्त करने वाला है और कौन सा कर्म बाँधने वाला है इसका निर्णय करना बड़ा कठिन है। कर्म क्या है ? अकर्म क्या है ? और विकर्म क्या है ? इसका यथार्थ तत्त्व जानने में बड़े-बड़े शास्त्रज्ञ विद्वान् भी अपने-आप को असमर्थ पाते हैं। अर्जुन भी इस तत्व को न जानने के कारण अपने युद्ध रूप कर्तव्य कर्म को घोर कर्म मान रहे हैं। अतः कर्म की गति (ज्ञान या तत्त्व) बहुत गहन है। विकर्म का तत्त्व भी जानना चाहिये। भगवान ने मुख्य रूप से कर्म में अकर्म की बात कही है जिससे सब कर्म अकर्म हो जायँ अर्थात कर्म करते हुए भी बन्धन न हो। विकर्म कर्म के अत्यंत पास है क्योंकि कर्मों में कामना ही विकर्म का मुख्य कारण है। अतः कामना का त्याग करने के लिये तथा विकर्म को निकृष्ट बताने के लिये भगवान ने विकर्म का नाम लिया है। जिस कामना से कर्म होते हैं उसी कामना के अधिक बढ़ने पर विकर्म होने लगते हैं परन्तु कामना नष्ट होने पर सब कर्म अकर्म हो जाते हैं। इसके अतिरिक्त अकर्म होता है कामना का नाश होने पर। कामना का नाश होने पर विकर्म होता ही नहीं अतः विकर्म के विवेचन की जरूरत ही नहीं। पापजनक और नरकों की प्राप्ति कराने वाला होने के कारण विकर्म सर्वथा त्याज्य है। विकर्म के मूल कारण कामना का त्याग करना चाहिए – स्वामी रामसुखदास जी )