ज्ञानकर्मसंन्यासयोग ~ अध्याय चार
19-23 कर्म में अकर्मता-भाव, नैराश्य-सुख, यज्ञ की व्याख्या
यदृच्छालाभसंतुष्टो द्वन्द्वातीतो विमत्सरः ।
समः सिद्धावसिद्धौ च कृत्वापि न निबध्यते ॥4.22॥
यदृच्छा– अपने आप बिना इच्छा के प्राप्तः; लाभ–लाभ; सन्तुष्ट:-सन्तोष; द्वन्द्व–द्वन्द्व से; अतीत:-परे; विमत्सरः–ईर्ष्यारहित; समः–समभाव; सिद्धौ–सफलता में; असिद्धौ–असफलता में; च–भी; कृत्वा–करके; अपि – यद्यपि; न – कभी नहीं; निबध्यते–बंधता है।
वे जो बिना इच्छा के अपने आप स्वतः प्राप्त हो जाए उसमें संतुष्ट रहते हैं, ईर्ष्या और हर्ष – शोक आदि द्वंद्वों से मुक्त रहते हैं, वे सफलता और असफलता दोनों में संतुलित रहते हैं, ऐसे सिद्धि और असिद्धि में सम रहने वाले योगी कर्म करते हुए भी उनसे नहीं बँधते अर्थात वे सभी प्रकार के कार्य करते हुए कर्म के बंधन में नहीं पड़ते॥4.22॥
( ” यदृच्छालाभसंतुष्टः ” कर्मयोगी निष्कामभावपूर्वक साङ्गोपाङ्ग रीतिसे सम्पूर्ण कर्तव्यकर्म करता है। फलप्राप्ति का उद्देश्य न रखकर कर्म करने पर फल के रूप में उसे अनुकूलता या प्रतिकूलता , लाभ या हानि , मान या अपमान, स्तुति या निन्दा आदि जो कुछ मिलता है उससे उसके अन्तःकरण में कोई असन्तोष पैदा नहीं होता। जैसे वह व्यापार करता है तो उसे व्यापार में लाभ हो अथवा हानि उसके अन्तःकरण पर उसका कोई असर नहीं पड़ता। वह हरेक परिस्थिति में समान रूपसे सन्तुष्ट रहता है क्योंकि उसके मन में फल की इच्छा नहीं होती। तात्पर्य यह है कि व्यापार में उसे लाभ-हानि का ज्ञान तो होता है तथा वह उसके अनुसार यथोचित चेष्टा भी करता है पर परिणाम में वह सुखी-दुःखी नहीं होता। यदि साधक के अन्तःकरण पर अनुकूलता-प्रतिकूलता का थोड़ा असर पड़ भी जाय तो भी उसे घबराना नहीं चाहिये क्योंकि साधक के अन्तःकरण में वह प्रभाव स्थायी नहीं रहता, शीघ्र मिट जाता है। उपर्युक्त पदों में आया लाभ शब्द प्राप्ति के अर्थमें है जिसके अनुसार केवल लाभ या अनुकूलता का मिलना ही लाभ नहीं है बल्कि लाभ-हानि , अनुकूलता-प्रतिकूलता आदि जो कुछ प्राप्त हो जाय वह सब लाभ ही है। “विमत्सरः” कर्मयोगी सम्पूर्ण प्राणियों के साथ अपनी एकता मानता है। “सर्वभूतात्मभूतात्मा “(गीता 5। 7) इसलिये उसका किसी भी प्राणी से किञ्चिन्मात्र भी ईर्ष्या का भाव नहीं रहता। “विमत्सरः “पद अलग से देने का भाव यह है कि अपने में किसी प्राणी के प्रति किञ्चिन्मात्र भी ईर्ष्या का भाव न आ जाय इस विषय में कर्मयोगी बहुत सावधान रहता है। कारण कि कर्मयोगी की सम्पूर्ण क्रियाएँ प्राणिमात्र के हित के लिये ही होती हैं अतः यदि उसमें किञ्चिन्मात्र भी ईर्ष्या का भाव होगा तो उसकी सम्पूर्ण क्रियाएँ दूसरों के हित के लिये नहीं हो सकेंगी। ईर्ष्या दोष बहुत सूक्ष्म है। दो दुकानदार हैं और आपस में मित्रता रखते हैं। उनमें एक की दुकान दूसरे की अपेक्षा ज्यादा चल जाय तो दूसरे में थोड़ी ईर्ष्या पैदा हो जायगी कि उसकी दुकान ज्यादा चल गयी मेरी कम चली। इस प्रकार ईर्ष्या दोष के कारण मित्र से भी मित्र की उन्नति नहीं सही जाती। जहाँ आपस में प्रेम है , एकता है , मित्रता है वहाँ भी ईर्ष्या दोष आ जाता है फिर जहाँ वैर , भिन्नता आदि हो वहाँ का तो कहना ही क्या है। इसलिये साधक को इस दोष से बचने के लिये विशेष सावधान रहना चाहिये। “द्वन्द्वातीतः “कर्मयोगी लाभ-हानि , मान-अपमान , स्तुति-निन्दा , अनुकूलता-प्रतिकूलता , सुख-दुःख आदि द्वन्द्वों से अतीत होता है इसलिये उसके अन्तःकरण में उन द्वन्द्वों से होने वाले राग-द्वेष , हर्ष-शोक आदि विकार नहीं होते। द्वन्द्व अनेक प्रकार के होते हैं जैसे भगवान का सगुण-साकार रूप ठीक है या निर्गुण-निराकार रूप ठीक है , अद्वैत-सिद्धान्त ठीक है या द्वैत सिद्धान्त ठीक है । भगवान में मन लगा या नहीं लगा , एकान्त मिला या नहीं मिला , शान्ति मिली या नहीं मिली , सिद्धि मिली या नहीं मिली इत्यादि। इन सब द्वन्द्वों के साथ सम्बन्ध न होने से ही साधक निर्द्वन्द्व होता है। जैसे तराजू किसी भी तरफ झुक जाय तो वह बराबर नहीं कहलाता ऐसे ही साधक के अन्तःकरण में किसी भी तरफ झुकाव हो जाय तो वह द्वन्द्वातीत नहीं कहलाता। कर्मयोगी सब प्रकार के द्वन्द्वों से अतीत होता है इसलिये वह सुखपूर्वक संसारबन्धन से मुक्त हो जाता है (गीता 5। 3)। “समः सिद्धावसिद्धौ च ” किसी भी कर्तव्यकर्म का निर्विघ्न रूप से पूरा हो जाना सिद्धि है और किसी प्रकार के विघ्न बाधा के कारण उसका पूरा न होना असिद्धि है। कर्म का फल मिल जाना सिद्धि है और न मिलना असिद्धि है। सिद्धि और असिद्धि में राग-द्वेष , -हर्षशोक आदि विकारों का न होना ही सिद्धि-असिद्धि में सम रहना है। दूसरे अध्याय के 48वें श्लोक में “सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा ” पदों में भी यही भाव आया है।अपना कुछ भी नहीं है , अपने लिये कुछ भी नहीं चाहिये और अपने लिये कुछ भी नहीं करना है । ये तीनों बातें ठीक-ठीक अनुभव में आ जायँ तभी सिद्धि और असिद्धि में पूर्णतः समता आयेगी। “कृत्वापि न निबध्यते ” यहाँ ” कृत्वा अपि ” पदों का तात्पर्य है कि कर्मयोगी कर्म करते हुए भी नहीं बँधता फिर कर्म न करते हुए बँधने का प्रश्न ही पैदा नहीं होता। वह दोनों अवस्थाओं में निर्लिप्त रहता है। जैसे शरीर-निर्वाह मात्र के लिये कर्म करने वाला कर्मयोगी कर्मों से नहीं बँधता , वैसे ही शास्त्रविहित सम्पूर्ण कर्मों को करने वाला कर्मयोगी भी कर्मों से नहीं बँधता। वास्तव में देखा जाय तो कर्मयोग में कर्म करना , अधिक करना , कम करना अथवा न करना बन्धन या मुक्ति का कारण नहीं है। इनके साथ जो लिप्तता (लगाव) है वही बन्धन का कारण है और जो निर्लिप्तता है वही मुक्ति का कारण है। जैसे नाटक में एक व्यक्ति लक्ष्मण का और दूसरा व्यक्ति मेघनाद का स्वाँग धारण करता है और दोनों व्यक्ति अपने-अपने स्वाँग को ठीक-ठीक निभाते हुए भी उससे निर्लिप्त रहते हैं अर्थात् अपने को वास्तव में लक्ष्मण या मेघनाद नहीं मानते। ऐसे ही कर्मयोगी अपने वर्ण आश्रम आदि के अनुसार कर्तव्य का पालन करते हुए भी उनसे निर्लिप्त रहता है अर्थात् उनसे अपना कोई सम्बन्ध नहीं मानता। उसका सम्बन्ध नित्य-निरन्तर रहने वाले स्वरूप के साथ रहता है , प्रतिक्षण परिवर्तनशील प्रकृति के साथ नहीं। इसलिये उसकी स्थिति स्वाभाविक ही समता में रहती है। समता में स्थिति रहने से वह कर्म करते हुए भी उनसे नहीं बँधता। यदि विशेष विचारपूर्वक देखा जाय तो समता स्वतःसिद्ध है। यह प्रत्येक मनुष्य का अनुभव है कि अनुकूल परिस्थिति में हम जो रहते हैं , प्रतिकूल परिस्थिति आने पर भी हम वही रहते हैं। यदि हम वही (एक ही ) न रहते तो दो अलग-अलग (अनुकूल और प्रतिकूल) परिस्थितियों का ज्ञान किसे होता । इससे सिद्ध हुआ कि परिवर्तन परिस्थितियों में होता है अपने स्वरूप में नहीं । इसलिये परिस्थितियों के बदलने पर भी स्वरूप से हम सम (ज्यों के त्यों ) ही रहते हैं। भूल यह होती है कि हम परिस्थितियों की ओर तो देखते हैं पर स्वरूप की ओर नहीं देखते। अपने सम स्वरूप की ओर न देखने के कारण ही हम आने जाने वाली परिस्थितियों से मिलकर सुखी-दुःखी होते हैं। तीसरे अध्याय के नवें श्लोक के पूर्वार्ध में भगवान ने व्यतिरेक रीति से कहा था कि यज्ञ से अतिरिक्त कर्म मनुष्य को बाँधते हैं। अब 23वें श्लोक के उत्तरार्धमें उसी बात को अन्वय रीति से कहते हैं- स्वामी रामसुख दास जी )