ज्ञानकर्मसंन्यासयोग ~ अध्याय चार
24-33 फलसहित विभिन्न यज्ञों का वर्णन
द्रव्ययज्ञास्तपोयज्ञा योगयज्ञास्तथापरे।
स्वाध्यायज्ञानयज्ञाश्च यतयः संशितव्रताः ॥4.28॥
द्रव्ययज्ञाः–यज्ञ के रूप में अपनी सम्पत्ति अर्पित करना; तपःयज्ञाः–यज्ञ के रूप में कठोर तपस्या करना; योगयज्ञः–अष्टांग योग का यज्ञ के रूप में अभ्यास; तथा- जब कि, इस प्रकार; अपरे–अन्य; स्वाध्याय–वैदिक शास्त्रों के अध्ययन द्वारा ज्ञान पोषित करना; ज्ञानयज्ञाः–दिव्य ज्ञान को यज्ञ में अर्पित करना; च–भी; यतयः– सन्यासी, यत्नशील जन ; संशितव्रत:-कठोर प्रतिज्ञा करना।
कुछ लोग यज्ञ के रूप में अपनी सम्पत्ति को अर्पित करते हैं। कुछ अन्य लोग यज्ञ के रूप में कठोर तपस्या करते हैं और कुछ योग यज्ञ के रूप में अष्टांग योग का अभ्यास करते हैं जबकि अन्य लोग यज्ञ के रूप में वैदिक ग्रंथों और शास्त्रों के अध्ययन के द्वारा अपना ज्ञान पोषित करते हैं अर्थात स्वाध्यायरूप ज्ञानयज्ञ करने वाले हैं जबकि कुछ सन्यासी और यत्नशील जन कठोर प्रतिज्ञाएँ करते हैं॥4.28॥
( “यतयः संशितव्रताः ” अहिंसा , सत्य , अस्तेय (चोरी का अभाव) , ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह (भोग बुद्धि से संग्रह का अभाव) ये पाँच यम हैं जिन्हें महाव्रत के नाम से कहा गया है। शास्त्रों में इन महाव्रतों की बहुत प्रशंसा महिमा है। इन व्रतों का सार यही है कि मनुष्य संसार से विमुख हो जाय। इन व्रतों का पालन करने वाले साधकों के लिये यहाँ “संशितव्रताः ” पद आया है। इसके सिवाय इस श्लोक में आये चारों यज्ञों में जो-जो पालनीय व्रत अर्थात् नियम हैं उन पर दृढ़ रहकर उनका पालन करने वाले भी सब संशितव्रताः हैं। अपने-अपने यज्ञ के अनुष्ठान में प्रयत्न शील होने के कारण उन्हें यतयः कहा गया है। “संशितव्रताः” पद के साथ (द्रव्ययज्ञाः , तपोयज्ञाः , योगयज्ञाः और ज्ञानयज्ञाः की तरह) यज्ञाः पद नहीं दिया जाने के कारण इसे अलग यज्ञ नहीं माना गया है। द्रव्ययज्ञाः मात्र संसार के हित के उद्देश्य से कुआँ , तालाब , मन्दिर , धर्मशाला आदि बनवाना ; अभावग्रस्त लोगों को अन्न , जल , वस्त्र , औषध , पुस्तक आदि देना , दान करना इत्यादि सब द्रव्ययज्ञ है। द्रव्य (तीनों शरीरों सहित सम्पूर्ण पदार्थों) को अपना और अपने लिये न मानकर निःस्वार्थ भाव से उन्हीं का मानकर उनकी सेवा में लगाने से द्रव्ययज्ञ सिद्ध हो जाता है। शरीरादि जितनी वस्तुएँ हमारे पास हैं उन्हीं से यज्ञ हो सकता है अधिक की आवश्यकता नहीं है। मनुष्य बालक से उतनी ही आशा रखता है जितना वह कर सकता है फिर सर्वज्ञ भगवान् तथा संसार हमसे हमारी क्षमता से अधिक की आशा कैसे रखेंगे । “तपोयज्ञाः” – अपने कर्तव्य (स्वधर्म) के पालन में जो-जो प्रतिकूलताएँ , कठिनाइयाँ आयें उन्हें प्रसन्नतापूर्वक सह लेना तपोयज्ञ है। लोकहितार्थ एकादशी आदि का व्रत रखना , मौन धारण करना आदि भी तपोयज्ञ अर्थात् तपस्यारूप यज्ञ हैं परन्तु प्रतिकूल से प्रतिकूल परिस्थिति , वस्तु , व्यक्ति , घटना आने पर भी साधक प्रसन्नतापूर्वक अपने कर्तव्य का पालन करता रहे अपने कर्तव्य से थोड़ा भी विचलित न हो तो यह सबसे बड़ी तपस्या है जो शीघ्र सिद्धि देने वाली होती है। गाँव भर की गन्दगी कूड़ा-करकट बाहर एक जगह इकट्ठा हो जाय तो वह बुरा लगता है परन्तु वही कूड़ा-करकट खेत में पड़ जाय तो खेती के लिये खादरूप से बढ़िया सामग्री बन जाता है। इसी प्रकार प्रतिकूलता बुरी लगती है और उसे हम कूड़े-करकट की तरह फेंक देते हैं अर्थात् उसे महत्त्व नहीं देते परन्तु वही प्रतिकूलता अपना कर्तव्यपालन करने के लिये बढ़िया सामग्री है। इसलिये प्रतिकूल से प्रतिकूल परिस्थिति को सहर्ष सहने के समान दूसरा कोई तप नहीं है। भोगों में आसक्ति रहने से अनुकूलता अच्छी और प्रतिकूलता बुरी लगती है। इसी कारण प्रतिकूलता का महत्त्व समझ में नहीं आता। “योगयज्ञास्तथापरे” यहाँ योग नाम अन्तःकरण की समता का है। समता का अर्थ है कार्य की पूर्ति और अपूर्ति में फल की प्राप्ति और अप्राप्ति में अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थिति में निन्दा और स्तुति में आदर और निरादर में सम रहना अर्थात् अन्तःकरण में हलचल , राग-द्वेष , हर्ष-शोक , सुख-दुःख का न होना। इस तरह सम रहना ही योगयज्ञ है। “स्वाध्यायज्ञानयज्ञाः”- केवल लोकहित के लिये गीता ,रामायण , भागवत आदि का तथा वेद , उपनिषद् आदि का यथाधिकार , मननविचारपूर्वक , पठन-पाठन करना अपनी वृत्तियों का तथा जीवन का अध्ययन करना आदि सब स्वाध्यायरूप ज्ञानयज्ञ है। गीता के अन्त में भगवान ने कहा है कि जो इस गीता शास्त्र का अध्ययन करेगा उसके द्वारा मैं ज्ञानयज्ञ से पूजित होऊँगा ऐसा मेरा मत है (18। 70)। तात्पर्य यह है कि गीता का स्वाध्याय ज्ञानयज्ञ है। गीता के भावों में गहरे उतरकर विचार करना , उसके भावों को समझने की चेष्टा करना आदि सब स्वाध्यायरूप ज्ञानयज्ञ है- स्वामी रामसुखदासजी