ज्ञानकर्मसंन्यासयोग ~ अध्याय चार
01-15 योग परंपरा, भगवान के जन्म कर्म की दिव्यता, भक्त लक्षणभगवत्स्वरूप
काङ्क्षन्तः कर्मणां सिद्धिं यजन्त इह देवताः ।
क्षिप्रं हि मानुषे लोके सिद्धिर्भवति कर्मजा ॥4.12॥
काड्.क्षन्तः–इच्छा करते हुए; कर्मणाम्–भौतिक कर्म; सिद्धिम् – सफलता; जयन्ते–पूजा; इह–इस संसार में; देवताः–स्वर्ग के देवता; क्षिप्रम्–शीघ्र ही; हि–निश्चय ही; मानुषे–मानव समाज में; लोके–इस संसार में; सिद्धिः–सफलता; भवति–प्राप्त होती है; कर्मजा–भौतिक कर्मों से।
इस संसार ( मनुष्य लोक ) में जो लोग सकाम कर्मों में सफलता ( फल या सिद्धि ) चाहते हैं वे लोग स्वर्ग के देवताओं की पूजा करते हैं क्योंकि सकाम कर्मों का फल शीघ्र प्राप्त होता है॥4.12॥
(” काङ्क्षन्तः कर्मणां सिद्धिं यजन्त इह देवताः” मनुष्य को नवीन कर्म करने का अधिकार मिला हुआ है। कर्म करने से ही सिद्धि होती है ऐसा प्रत्यक्ष देखने में आता है। इस कारण मनुष्य के अन्तःकरण में यह बात दृढ़ता से बैठी हुई है कि कर्म किये बिना कोई भी वस्तु नहीं मिलती। वे ऐसा समझते हैं कि सांसारिक वस्तुओं की तरह भगवान की प्राप्ति भी कर्म (तप ध्यान समाधि आदि ) करने से ही होती है। नाशवान पदार्थों की कामनाओं के कारण उनकी दृष्टि इस वास्तविकता की ओर जाती ही नहीं कि सांसारिक वस्तुएँ कर्मजन्य हैं, एकदेशीय हैं , हमें नित्य प्राप्त नहीं हैं , हमारे से अलग हैं और परिवर्तनशील हैं , इसलिये उनकी प्राप्ति के लिये कर्म करने आवश्यक हैं परन्तु भगवान् कर्मजन्य नहीं हैं , सर्वत्र परिपूर्ण हैं , हमें नित्यप्राप्त हैं , हमारे से अलग नहीं हैं और अपरिवर्तनशील हैं, इसलिये भगवत्प्राप्ति में सांसारिक वस्तुओं की प्राप्ति का नियम नहीं चल सकता। भगवत्प्राप्ति केवल उत्कट अभिलाषा से होती है। उत्कट अभिलाषा जाग्रत् न होने में खास कारण सांसारिक भोगों की कामना ही है। भगवान् तो पिता के समान हैं और देवता दुकानदार के समान। अगर दुकानदार वस्तु न दे तो उसको पैसे लेने का अधिकार नहीं है परन्तु पिता को पैसे लेने का भी अधिकार है और वस्तु देने का भी। बालक को पिता से कोई वस्तु लेने के लिये कोई मूल्य नहीं देना पड़ता पर दुकानदार से वस्तु लेने के लिये मूल्य देना पड़ता है। ऐसे ही भगवान से कुछ लेने के लिये कोई मूल्य देने की जरूरत नहीं है परन्तु देवताओं से कुछ प्राप्त करने के लिये विधिपूर्वक कर्म करने पड़ते हैं। दुकानदार से बालक दियासलाई , चाकू आदि हानिकारक वस्तुएँ भी पैसे देकर खरीद सकता है परन्तु यदि वह पिता से ऐसी हानिकारक वस्तुएँ माँगे तो वे उसे नहीं देंगे और पैसे भी ले लेंगे। पिता वही वस्तु देते हैं जिसमें बालक का हित हो। इसी प्रकार देवतालोग अपने उपासकों को (उनकी उपासना साङ्गोपाङ्ग होने पर) उनके हित-अहित का विचार किये बिना उनकी इच्छित वस्तुएँ दे देते हैं परन्तु परमपिता भगवान् अपने भक्तों को अपनी इच्छा से वे ही वस्तुएँ देते हैं जिसमें उनका परम हित हो। ऐसे होने पर भी नाशवान् पदार्थों की आसक्ति , ममता और कामना के कारण अल्पबुद्धि वाले मनुष्य भगवान की महत्ता और सुहृत्ता को नहीं जानते इसलिये वे अज्ञानवश देवताओं की उपासना करते हैं (गीता 7। 20 23 9। 23 24)। ” क्षिप्रं हि मानुषे लोके सिद्धिर्भवति कर्मजा ” यह मनुष्यलोक कर्मभूमि है- “कर्मानुबन्धीनि मनुष्यलोके (गीता 15। 2):। इसके सिवाय दूसरे लोक (स्वर्ग-नरक आदि ) भोग भूमियाँ हैं। मनुष्यलोक में भी नया कर्म करने का अधिकार मनुष्य को ही है , पशु-पक्षी आदि को नहीं। मनुष्य शरीर में किये हुए कर्मों का फल ही लोक तथा परलोक में भोगा जाता है। मनुष्यलोक में कर्मों की आसक्ति वाले मनुष्य रहते हैं – “कर्मसङ्गिषु जायते (गीता 14। 15)”। कर्मों की आसक्ति के कारण वे कर्मजन्य सिद्धि पर ही लुब्ध होते हैं। कर्मों से जो सिद्धि होती है वह यद्यपि शीघ्र मिल जाती है तथापि वह सदा रहने वाली नहीं होती। जब कर्मों का आदि और अन्त होता है तब उनसे होने वाली सिद्धि (फल) सदा कैसे रह सकती है ? इसलिये नाशवान् कर्मों का फल भी नाशवान् ही होता है। परन्तु कामना वाले मनुष्य की दृष्टि शीघ्र मिलने वाले फल पर तो जाती है पर उसके नाश की ओर नहीं जाती। विधिपूर्वक साङ्गोपाङ्ग किये गये कर्मों का फल देवताओं से शीघ्र मिल जाया करता है इसलिये वे देवताओं की ही शरण लेते हैं और उन्हीं की आराधना करते हैं। कर्मजन्य फल चाहने के कारण वे कर्मबन्धन से मुक्त नहीं होते और परिणामस्वरूप बारंबार जन्मते-मरते रहते हैं। जो वास्तविक सिद्धि है वह कर्मजन्य नहीं है। वास्तविक सिद्धि भगवत्प्राप्ति है। भगवत्प्राप्ति के साधन कर्मयोग , ज्ञानयोग और भक्तियोग भी कर्मजन्य नहीं हैं। योग की सिद्धि कर्मों के द्वारा नहीं होती बल्कि कर्मों के सम्बन्ध-विच्छेद से होती है। शङ्का – कर्मयोग की सिद्धि तो कर्म करने से ही बतायी गयी है – “आरुरुक्षोर्मुनेर्योगं कर्म कारणमुच्यते (गीता 6। 3) ” तो फिर कर्मयोग कर्मजन्य कैसे नहीं है ? समाधान- कर्मयोग में कर्मों से और कर्मसामग्री से सम्बन्ध-विच्छेद करने के लिये ही कर्म किये जाते हैं। योग (परमात्मा का नित्य सम्बन्ध) तो स्वतःसिद्ध और स्वाभाविक है। अतः योग अथवा परमात्मप्राप्ति कर्मजन्य नहीं है। वास्तव में कर्म सत्य नहीं है बल्कि परमात्मप्राप्ति के साधन रूप कर्मों का विधान सत्य है। कोई भी कर्म जब सत् के लिये किया जाता है तब उसका परिणाम सत् होने से उस कर्म का नाम भी सत् हो जाता है – “कर्म चैव तदर्थीयं सदित्येवाभिधीयते “(गीता 17। 27)।अपने लिये कर्म करने से ही योग (परमात्मा के साथ नित्ययोग) का अनुभव नहीं होता। कर्मयोग में दूसरों के लिये ही सब कर्म किये जाते हैं । अपने लिये अर्थात् फलप्राप्ति के लिये नहीं – “कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन” (गीता 2। 47)। अपने लिये कर्म करने से मनुष्य बँधता है (गीता 3। 9) और दूसरों के लिये कर्म करने से वह मुक्त होता है (गीता 4। 23)। कर्मयोग में दूसरों के लिये ही सब कर्म करने से कर्म और फल से सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है जो योग का अनुभव कराने में हेतु है। कर्म करने में पर अर्थात् शरीर , इन्द्रियाँ , मन , बुद्धि , पदार्थ , व्यक्ति , देश , काल आदि परिवर्तनशील वस्तुओं की सहायता लेनी पड़ती है। पर ( दूसरे ) की सहायता लेना परतन्त्रता है। स्वरूप ज्यों का त्यों है। उसमें कभी कोई परिवर्तन नहीं होता। इसलिये उसकी अनुभूति में पर ( दूसरे ) कहे जाने वाले शरीर आदि पदार्थों के सहयोग की लेशमात्र भी अपेक्षा और आवश्यकता नहीं है। “पर “से माने हुए सम्बन्ध का त्याग होने से स्वरूप में स्वतःसिद्ध स्थिति का अनुभव हो जाता है। आठवें श्लोकमें अपने अवतार के उद्देश्य का वर्णन करके नवें श्लोक में भगवान ने अपने कर्मों की दिव्यता को जानने का माहात्म्य बताया। कर्मजन्य सिद्धि चाहने से ही कर्मों में अदिव्यता (मलिनता) आती है। अतः कर्मों में दिव्यता (पवित्रता) कैसे आती है इसे बतानेके लिये अब भगवान् अपने कर्मों की दिव्यता का विशेष वर्णन करते हैं- स्वामी रामसुख दास जी )